Tuesday, July 24, 2012

ਐਸ. ਜੀ. ਪੀ. ਸੀ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਮਿਲ ਰਿਹਾ ਅਦਾਲਤ ਚ ਪੇਸ਼ ਕਰਨ ਲਈ ਢੁਕਵਾਂ ਜਵਾਬ : ਰਾਣੂ



   
ਚੰਡੀਗੜ੍ਹ, 24 ਜੁਲਾਈ (ਪ  ਪ   ) : ਸੁਪਰੀਮ ਕੋਰਟ ਵਿੱਚ 26 ਜੁਲਾਈ ਨੂੰ ਜਸਟਿਸ ਲੋਧਾ ਅਤੇ ਜਸਟਿਸ ਗੋਖਲੇ ਦੇ ਡਿਵੀਜ਼ਨ ਬੈਂਚ ਤੇ ਲਗੇ ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਕਮੇਟੀ ਬਨਾਮ ਸਹਿਜਧਾਰੀ ਸਿੱਖ ਫੈਡਰੇਸ਼ਨ ਦੇ ਕੇਸ ਵਿੱਚ 18 ਜੁਲਾਈ ਨੂੰ ਸਹਿਜਧਾਰੀ ਸਿੱਖ ਫੈਡਰੇਸ਼ਨ ਨੇ ਅਪਣਾ ਜਵਾਬ ਦਾਵਾ ਦਾਖਲ ਕਰਣ ਉਪਰੰਤ ਨਵੇ ਸਵਾਲ ਖੜੇ ਕਰ ਦਿੱਤੇ ਜਿਸ ਨਾਲ ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਕਮੇਟੀ ਵਿੱਚ ਘਬਰਾਹਟ ਪੈਦਾ ਹੋ ਗਈ ਅਤੇ ਉਸੇ ਵੇਲੇ ਅੰਤਰਿੰਗ ਕਮੇਟੀ ਦੀ ਮੀਟਿੰਗ ਚੰਡੀਗੜ੍ਹ ਵਿਖੇ ਕਲਗੀਧਰ ਨਿਵਾਸ ਵਿੱਚ ਬੁਲਾਉਣੀ ਪਈ। ਇਹ ਵਿਚਾਰ ਸਹਿਜਧਾਰੀ ਸਿਖ ਫੈਡਰੇਸ਼ਨ ਦੇ ਪ੍ਰਧਾਨ ਪਰਮਜੀਤ ਰਾਨੂੰ ਨੇ ਪ੍ਰਗਟ ਕਰਦਿਆਂ ਕਿਹਾ ਕਿ ਹੁਣ ਕਮੇਟੀ ਦੇ ਮਾਹਿਰਾਂ ਕੋਲ ਅਦਾਲਤ ਅੱਗੇ ਬਹਿਸ ਕਰਣ ਲਈ ਕਈ ਨਵੇ ਸਵਾਲ ਖੜੇ ਹੋ ਗਏ ਹਨ। ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਕਮੇਟੀ ਨੇ ਸਹਿਜਧਾਰੀ ਸਿੱਖ ਫੈਡਰੇਸ਼ਨ ਅੱਗੇ ਅਦਾਲਤ ਮੂਹਰੇ ਗੋਡੇ ਟੇਕਦੇ ਹੋਏ ਹੁਣ ਉਕਤ ਜਵਾਬ ਦਾਵੇ ਦਾ ਅੱਗੋਂ ਜਵਾਬ ਲੱਭਣ ਲਈ ਅਦਾਲਤ ਕੋਲੋਂ ਹੋਰ ਸਮਾ ਮੰਗਣ ਲਈ ਮੰਗਲਵਾਰ ਨੂੰ ਦਰਖਾਸਤ ਦੇ ਦਿੱਤੀ ਹੈ। ਅਦਾਲਤ ਨੇ ਅਪਣੇ ਫੈਸਲੇ ਵਿੱਚ ਪੁਰਾਣੇ ਹਾਉਸ ਦੀ ਅੰਤਰਿੰਗ ਕਮੇਟੀ ਨੂੰ ਆਰਜ਼ੀ ਤੋਰ ਤੇ ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਕਮੇਟੀ ਦਾ ਕੰਮ ਕਾਜ ਚਲਾਉਣ ਦੀ ਇਜਾਜ਼ਤ ਦਿੱਤੀ ਸੀ ਕਿਉ ਕਿ ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਕਮੇਟੀ ਨੇ ਅਪਣੀ ਬੇਨਤੀ ਵਿੱਚ ਅਦਾਲਤ ਨੂੰ ਕਿਹਾ ਸੀ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਸਲਾਨਾ ਬਜਟ ਪਾਸ ਨਾ ਹੋਣ ਕਾਰਣ ਉਹਨਾਂ ਅਧੀਨ ਆਉਂਦੇ ਵਿੱਦਿਅਕ ਅਦਾਰੇ, ਧਾਰਮਿਕ ਅਦਾਰੇ ਅਤੇ ਹਸਪਤਾਲਾਂ ਦੇ ਕੰਮ ਕਾਜ ਰੁਕ ਚੁਕੇ ਹਨ।
ਸਹਿਜਧਾਰੀ ਸਿੱਖ ਫੈਡਰੇਸ਼ਨ ਦੇ ਪ੍ਰਧਾਨ ਡਾ.ਪਰਮਜੀਤ ਸਿੰਘ ਰਾਣੂੰ ਨੇ ਪ੍ਰੈਸ ਨੂੰ ਸੁਪਰੀਮ ਕੋਰਟ ਵਿੱਚ ਦਾਇਰ ਅਪਣੇ ਜਵਾਬ ਦਾਅਵੇ ਦੀ ਕਾਪੀ ਦਿੰਦੇ ਹੋਏ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਮਾਣਯੋਗ ਅਦਾਲਤ ਦੇ ਹੁਕਮਾ ਅਨੁਸਾਰ ਮਿਥੀ ਹੋਈ ਤਾਰੀਖ਼ ਤੋ ਹਫਤਾ ਪਹਿਲਾ ਹੀ ਅਪਣਾ ਜਵਾਬ ਦਾਖਲ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਵਿਰੋਧੀ ਧਿਰ ਨੂੰ ਅਤੇ ਬਾਕੀ ਸਾਰੀਆਂ ਧਿਰਾਂ ਨੂੰ ਹੀ ਸਮੇਂ ਸਿਰ ਤਾਮੀਲ ਵੀ ਕਰਵਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ ਤਾਂ ਜੋ ਕਿਸੇ ਕਿਸਮ ਦਾ ਭਰਮ ਨਾ ਰਹਿ ਜਾਵੇ। 75 ਸਫਿਆਂ ਦੇ ਇਸ ਜਵਾਬ ਦਾਅਵੇ ਵਿੱਚ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ ਕਿ ਜਦੋਂ ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਕਮੇਟੀ ਦਾ ਨਵਾ ਤੇ ਪੁਰਾਣਾ ਹਾਉਸ ਹੋਂਦ ਵਿੱਚ ਹੀ ਨਹੀ ਸੀ ਤਾਂ ਸਕੱਤਰ ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਕਮੇਟੀ ਕੋਲ ਸੁਪਰੀਮ ਕੋਰਟ ਵਿੱਚ ਕੇਸ ਦਾਇਰ ਕਰਣ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ ਹੀ ਨਹੀ ਸੀ।ਜਸਟਿਸ ਲਿਬਰਾਹਨ ਦੇ ਇਕ ਫੈਸਲੇ ਮੁਤਾਬਿਕ ਬੋਰਡ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਸਿਰਫ਼ ਮਤਿਆਂ ਰਾਹੀ ਬੋਲਦੀਆਂ ਹਨ ਤੇ ਕਾਰਵਾਈਆਂ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ ਪਰ ਇਥੇ ਤਾਂ ਨਵੀ ਅਤੇ ਪੁਰਾਣੀ ਦੋਨੋ ਹੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਦੀ ਹੋਂਦ ਹੀ ਨਹੀ ਸੀ ਤੇ ਮਤਾ ਪਾਸ ਹੋਣ ਦਾ ਤਾਂ ਸਵਾਲ ਦੂਰ ਦੀ ਗੱਲ ਹੈ।

ये पत्रकारिता है अथवा नौकरी?


अभी अभी एक साथी से मुलाकात हुई. जाहिर सी बात है कि एक पत्रकार साथी से मुलाकात होगी तो बात भी इसी के इर्द-गिर्द रहेगी. यह वह साथी है जब वह अपने शुरूआती दिनों में पत्रकारिता को लेकर बड़ा जज्बाती था. उसे उम्मीद थी कि वह अपनी कोशिशों से समाज को बदल डालेगा लेकिन आज वह निराश है. उसे समझ में नहीं आ रहा है कि जिस समाज को बदलने के लिये वह आया था, आज वह खुद बदल गया है. पत्रकार से वह एक मामूली कर्मचारी बन गया है. अपने तीन दशक की पत्रकारिता में वह यायावर बन कर रह गया है. कभी उसकी काबिलियत का लाभ लेने की बात कह कर उसे अपने शहर से दूर भेज दिया जाता रहा है तो कभी सजा के तौर पर. वह यह बात समझने में अपने आपको नाकामयाब समझ रहा है कि आखिर वह पत्रकारिता कर रहा है अथवा नौकरी. यह सवाल इस समय पत्रकारिता के समक्ष यक्ष प्रश्र के तौर पर मौजूद है. हर पत्रकार इस परेशानी से जूझ रहा है. उन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा है कि वे पत्रकारिता कर रहे हैं अथवा नौकरी. इस सवाल पर मैं काफी दिनों से गौर कर रहा था क्योंकि पत्रकार के स्थानीय होने में ही पत्रकारिता का अस्तित्व होता है. 

तकनीक के विस्तार के साथ ही मीडिया का विस्तार हो गया है. अखबार अब सिंगल एडीशन वाले अखबार नहीं रह गये हैं. अखबार अब मल्टीएडीशन वाले अखबार हो गये हैं. अखबारों के खरीददार भले ही न बढ़ रहे होंं लेकिन पाठकों की गिनती लाखों और करोड़ों में हो रही है. सम्पादक मैनेजर बन गया है और अखबार वस्तु. हालांकि ये सारी बातें बार बार और इतनी बार हो चुकी हैं कि अब इस पर बात करना बेमानी सा है किन्तु इस विस्तार से कुछ नया संकट पैदा किया है जिस पर बात करना बेमानी नहीं है. सामयिक है और समय की जरूरत भी. इस विस्तार से उत्पन्न संकट को नजरअंदाज करने का अर्थ एक और नये संकट को जन्म देना है. 

पत्रकारिता अथवा नौकरी, इसे इसलिये मुद्दा बनाकर उठा रहे हैं क्योंकि तकनीक के विस्तार के साथ साथ अखबार मल्टीएडीशन वाले हो गये हैं और इसी के साथ शुरू हो चुकी है पत्रकारिता की समाप्ति का दौर. सम्पादक पद के गुम हो जाने का हल्ला तो खूब मचा किन्तु पत्रकार के गुम हो जाने की भी खबर गुमनाम सी है. पत्रकारिता के स्तर के गिरावट को लेकर चिंता होती है, चर्चा होती है और आलोचना पर आकर बात खत्म हो जाती है किन्तु पत्रकार खत्म हो रहे हैं, इस पर न तो चिंता होती है, न चर्चा होती है और न आलोचना. पत्रकार को अखबारों के मल्टीएडीशन नेचर ने नौकर बना कर रख दिया है. प्रबंधन जब जिस पत्रकार से रूठा या उसकी मर्जी के मुताबिक काम नहीं किया, पत्रकारिता करने का दुस्साहस किया तो तत्काल उसकी बदली किसी ऐसे शहर के संस्करण में कर दिया जाता है जहां उसका अपना कोई नहीं होता है. वेतन वही, सुविधाएं नहीं और एक पत्रकार पर अपने घर और अपने स्टेबलिसमेंट का दोहरा दबाव. एक तरह से यह सजा होती है प्रबंधन की नाफरमानी का. अक्सर मीडिया के बेवसाइटों पर प्रकाशित-प्रसारित होने वाली खबरों में पढऩे को मिलता है कि अपनी बदली से परेशान पत्रकार ने नौकरी छोड़ दी. यह अदला-बदली का खेल अखबारी दुनिया का नया शगल है. प्रबंधन के प्रताडऩा का यह औजार है. प्रताडऩा का यह औजार बीते एक दशक में और भी धारदार हुआ है. कभी दंड के रूप में तो कभी पदोन्नति का लालसा देकर पत्रकारों को इधर-उधर किया जाता है. पत्रकारिता में प्रबंधन का यह नया सलूक बेहद घातक है. न केवल पत्रकारिता एवं पत्रकारों के लिये बल्कि स्वयं अखबार के लिये भी. अस्सी के दशक में जब मैंने पत्रकारिता आरंभ किया था तब अखबार मल्टीएडीशन नहीं हुआ करते थे. जाहिर सी बात है जब अखबार मल्टीएडीशन होते ही नहीं थे तो अदला-बदली का कोई खेल भी नहीं चलता था. जीवन बसर करने लायक वेतन में ही गुजारा हो जाता था. पत्रकार को न तो किसी तरह का ऐसा तनाव दिया जाता था और न ही उसकी एक्सपटराइज में कोई कमी आती थी, उल्टे अखबार का दबदबा पूरे प्रसार क्षेत्र में होता था. 

नब्बे के दशक आते आते अखबार मल्टीएडीशन होने लगे और दो हजार दस तक तो ऐसा हो गया कि जिस अखबार का मल्टीएडीशन नहीं होगा, वह बड़ा अखबार ही नहीं कहलायेगा. पहले राज्य से राज्य, फिर जिलेवार और तो तहसीलस्तर पर भी अखबारों के संस्करण छपने लगे हैं. अखबार तो बड़े हो गये लेकिन उनका प्रभाव कम होता गया, यह कडुवी सच्चाई है. इस न मानने का अर्थ होगा सच से मुंह चुराना. बहरहाल, प्रबंधन की मनमानी अब बढ़ती जा रही है. पत्रकारों की अदला-बदली के इस खेल में सर्वाधिक नुकसान अखबार को उठाना पड़ रहा है. अपने विषय के एक्सपर्ट की बदली कर दी जाती है, इस बदली के साथ ही उसके खबरों के स्रोत बिखर जाते हैं. पत्रकारिता की यह विशिष्टता होती है कि पत्रकार के साथ ही उसके खबरों के स्रोत टूट जाते हैं अथवा खत्म हो जाते हैं. जो लोग जमीनी पत्रकारिता कर रहे हैं, उन्हें यह बात मालूम है कि एक स्रोत बनाने में उन्हें कितना समय और मेहनत लगता है किन्तु प्रबंधन को इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता है.

पत्रकारों की बदली के पीछे एक तरह से बदले की भावना निहित होती है. यह भावना कई बार व्यक्तिगत भी होती है न कि संस्थान के हित में. पेडन्यूज में भले ही श्रीवृद्धि हो किन्तु पत्रकारों के बारे में यह बात जब प्रबंधन के दिमाग में बिठा दी जाती है कि अमुक पत्रकार स्थापित हो गया है अर्थात वह अपने स्रोत से आर्थिक लाभ पाने लगा है तो प्रबंधन उसे विदा करने में कतई देर नहीं करता है. ज्यादतर ऐसी खबरें गढ़ी हुई और भ्रामक होती है क्योंकि किसी से आर्थिक लाभ पाना आसान नहीं होता है. एक दूसरा कारण अखबार को लाभ पहुंचाने वाले तंत्र को लग जाये कि फलां पत्रकार उनकी पोल खोल में लग गया है तो उसकी शिकायत बल्कि दबाव बनाया जाता है कि उक्त पत्रकार को हटा दिया जाए. प्रबंधन इस बात की जांच किये बिना कि शिकायतकर्ता का दबाव या शिकायत सही है या नहीं, अपने हित में पत्रकार की बदली कर दी जाती है.

पत्रकारों की एक स्थान से दूसरे स्थान बदली किये जाने की यह व्यवस्था स्थायी होती जा रही है जिससे पत्रकारों में कुंठा का भाव आ रहा है. एक पत्रकार का स्थानीय और स्थायी होना उसके लिये और अखबार, दोनों के लिये हमेशा से फायदेमंद रहा है. खबरों को तलाशने, जांचने और उसकी सत्यता को परखने के लिये स्थानीय परिस्थितियों की समझ स्थानीय पत्रकार को हो सकती है. इस बात से परे जाकर यह कहा जाता है कि पत्रकार कहीं भी हो, खबर सूंघने, जांचने और लिखने का माद्दा हो तो वह कहीं भी काम कर सकता है. यह बात भी सच है किन्तु बदलते समय में यह संभव नहीं है. खासतौर पर तब जब स्थानीय राजनीति बेहद कठिन हो चली हो. मुझे तो बहुसंस्करणीय अखबारों के दौर में मेरे अपने मध्यप्रदेश के दो अखबार नईदुनिया और देशबन्धु का स्मरण हो आता है जो एक ही संस्करण निकाल कर पूरे देश में अपने होने का आभाष करा देते थे. यह बात सबको पता है कि इंदौर से निकलने वाले नईदुनिया का इंतजार देश की राजधानी दिल्ली में भी हुआ करता था. एक सिंगल एडीशन अखबार की प्रसार संख्या अनुमानित लाख प्रतियोंं के आसपास थी. देशबन्धु का हाल भी कुछ ऐसा ही था. हालांकि देशबन्धु ने बाद में मध्यप्रदेश के अनेक स्थानों से संस्करणों का प्रकाशन किया किन्तु दोनों ही अखबार स्कूल ऑफ जर्नलिज्म कहलाते थे. आज ऐसे अखबारों की कल्पना करना भी बेमानी है.

बहरहाल, मीडिया के विस्तार से उत्पन्न संकट का सवाल एकबारगी फिजूल का सवाल लग सकता है किन्तु इस पर नजदीक से सोचेंगे तो लगेगा कि यह सवाल फालूत नहीं बल्कि एक ऐसा सवाल है जिस पर समूची पत्रकार बिरादरी को सोचना होगा. यह सवाल तेरा, मेरा नहीं बल्कि हम सबका है. सवाल पर आते हैं. सवाल यह है कि हम पत्रकारिता कर रहे हैं अथवा नौकरी, इस पर पहले बात होना चाहिए. नौकरी करने वाले पत्रकार, जिन्हें अब मीडियाकर्मी कहा जाने लगा है, उनसे क्षमा चाहेंगे क्योंकि यह सवाल उनके लिये नहीं है. यह सवाल सौ टके की पत्रकारिता करने वालों के लिये है क्योंकि पत्रकारिता नौकरी नहीं होती है. पत्रकारिता एक जुनून है. एक जज्बा है समाज में परिवर्तन लाने का. कोई नौकरी जुनून नहीं हो सकती, जज्बे का तो सवाल ही नहीं है. ऐसे में तय यह करना होगा कि हम पत्रकारिता कर रहे हैं अथवा नौकरी? जिस दिन हम यह बात तय कर लेंगे कि हम क्या कर रहे हैं, सवाल का हल मिल जाएगा.

Sehajdhari row: SGPC to seek time from Supreme Court


Sehajdhari row: SGPC to seek time from Supreme Court

Tuesday, July 24, 2012 - 20:30
CHANDIGARH: The Sehajdhari Sikh Federation has filed its reply in the Special Leave Petition of the SGPC before Supreme Court. The respondent Sehajdhari Sikh Federation represented by its National President Dr.P.S.Ranu has raised preliminary objections on the locus standii  of the SGPC for filing the SLP. 
 
The 75 pages reply of the Sehajdharis has given a detailed counter to all the law points raised in the SLP by the SGPC.The Sehajdhari Sikh Federation has requested the Supreme Court that the present SLP deserves to be dismissed on the short ground that the Union of India which had issued the impugned notification dated 8.10.2003 debarring the Sehajdharis to vote , has chosen not to impugn the judgment of Hon’ble Full Bench, having accepted its correctness.
 
 The petitioner SGPC, therefore, lacks locus standi to file and maintain the present SLP. Also in view of the ad-interim order dated 3.8.2011 of the Hon’ble Full Bench of High Court; the entire election process itself was made subject to the decision by the Full Bench and the Supreme Court had affirmed the same vide order dated 16.9.2011,where by virtue of consent order of all the parties it was then directed by the Supreme Court that the result of the election would abide by the decision by the Full Bench. 
 
The Full Bench having quashed the notification dated 8.10.2003; the election held on 18.09.2011 to the new house is a nullity. The result of the election has been notified by Government of India vide Notification dated 17.12.2011 thereby constituting the newly elected Board but the said notification was subject to the final outcome of the writ petition pending in the High Court. Thus it inevitably follows that there is no validly constituted house/Board as on date or even on the date when a decision was taken to file the present SLP.  
 
There being no valid resolution of the petitioner, which is a body corporate, the present SLP has not been filed by a competent person and the same also deserves to be dismissed for want of proper resolution in this regard as a body corporate can only act through a resolution as neither the Old house was in existence nor the new House has passed any resolution authorizing any one to approach the SC, therefore the SLP deserves to be dismissed on this ground alone. 
 
The Supreme Court has only allowed the executive body of the old house to look after the day to day affairs so that the functioning of the body corporate may not suffer. This further supports the contention of the Sehajdhari Sikh Federation that there is no validly constituted body in existence, therefore the petitioner cannot maintain the present Special Leave Petition.  
 
The issue raised in 2003 when the SGPC passed resolutions that only keshdhari Sikhs should be allowed to vote in the SGPC elections and those with shorn hairs, trimeed or shaved beards and plucked eyebrows were termed as patits and their voting right was snatched away by an executive order by the Ministry amending the Sikh Gurdwara Act 1925.
 
Its first time in the history of the SGPC that 170 members of the newly elected house of the SGPC had been rendered functionless after the judgment of the full bench of the Punjab & Haryana High Court after it quashed the notification issued by the Union Home Ministry in 2003 where the Sehajdhari Sikhs were debarred from their voting right which was given to them pre independence. This time also during the SGPC election out of the 2 crore sikh population only 50 lakh Sikhs were enrolled as voters and approximately 69 lakh Sikhs were rejected naming them as patits. 
 
It is mentionable here that the Supreme Court has in allowed the old House executive of 15 members to function as per the provisions of  the Sikh Gurdwara Act that is why it could only pass its budget on vote on account but it has been noticed that the SGPC Executive had been working in violation of the spirit of the orders as it had no authority to take any policy decision for the Sikh community like as constituting the 84 riots memorial or dis-imbursement of finances on mercy ground to persons especially of Ludhiana the native place of the President of SGPC.
 
 

Saturday, July 21, 2012

प्रभाष जोशी तो मुझ में ज़िंदा हैं




दयानंद पाण्डेय


लगता है नर्मदा किनारे प्रभाष जोशी की देह नहीं जली है, मैं ही जल गया हूं। प्रभाष जोशी तो मुझ में ज़िंदा हैं। मेरी कलम में उन के हाथ सांस ले रहे हैं। पूछता हूं अपने आप से कि क्या उन की सांस को कोई तोड़ भी पाएगा भला? कोई उत्तर नहीं मिलता। न हां में न ना में। अजीब बेचैनी है। अनिश्चितता बढ़ती जाती है। ख़ास कर तब और जब पाता हूं कि दिल्ली पहुंचने वाले नवधा पत्रकारों में से हर दूसरा या तीसरा राजीव शुक्ला बनना चाहता है। रजत शर्मा या प्रभु चावला बनना चाहता है। प्रभाष जोशी नहीं। ख़ैर, पुरानी यादें कुलबुलाती हैं। बताते हुए अच्छा लगता है कि 1983 में जनसत्ता की पहली टीम में पहले ही दिन से मैं भी था। थोड़े समय ही रहा, पर यादें ढेरों हैं।
अख़बार छपने के शुरुआती दिनों की बात है। जोशी जी जनरल डेस्क पर बैठे कोई ख़बर लिख रहे थे। उन की आदत सी थी कि जब कोई ख़ास घटना घटती थी तो वह टहलते हुए जनरल डेस्क पर आ जाते थे और ‘हेलो चीफ सब!’ कह कर सामने की एक कुर्सी खींच कर किसी सब एडीटर की तरह बैठ जाते थे। संबंधित ख़बर से जुड़े तार मांगते और ख़बर लिखने लगते। लिख कर शिफ्ट इंचार्ज को ख़बर देते हुए कहते, ‘जैसे चाहिए इस का इस्तेमाल करिए।’ हां, तब वह अपने संबोधन में ‘हेलो चीफ सब’ कहते ज़रूर थे पर तब तक जनसत्ता में सिर्फ़ एक ही चीफ़ सब एडीटर थे मंगलेश डबराल। और वह रविवारीय देखते थे, शिफ़्ट नहीं। जोशी जी की आदत थी कि जब वह कोई ख़बर लिख रहे होते या कुछ भी लिख रहे होते तो डिस्टरवेंस पसंद नहीं करते थे। लेकिन तभी एक फ़ोन आया। मनमोहन तल्ख़ ने रिसीव किया। और जोशी जी से बताया कि, ‘मोहसिना किदवई का फ़ोन है।’
‘यह कौन हैं?’ जोशी जी ने बिदक कर पूछा।
‘यू.पी. में बाराबंकी से एम.पी. हैं।’ मनमोहन तल्ख़ ने अपनी आदत और रवायत के मुताबिक़ जोड़ा, ‘बड़ी खूबसूरत महिला हैं।’
‘तो?’ जोशी जी और बिदके। बोले, ‘कह दीजिए बाद में फ़ोन करें।’
लेकिन पंद्रह मिनट में जब कोई तीन बार मोहसिना किदवई ने फ़ोन किया तो जोशी जी को फ़ोन पर आना पड़ा। मोहसिना किदवई के खि़लाफ जनसत्ता में बाराबंकी डेटलाइन से एक ख़बर छपी थी। उसी के बारे में वह जोशी जी से बात कर रही थीं। वह उधर से जाने क्या कह रही थीं, जो इधर सुनाई नहीं दे रहा था। पर इधर से जोशी जी जो कह रहे थे वह तो सुनाई दे रहा था। जो सभी उपस्थित लोग सुन रहे थे। जाहिर है मोहसिना किदवई उधर से अपने खि़लाफ ख़बर लिखने वाले रिपोर्टर की ऐसी तैसी करती हुई उसे हटाने की तजवीज दे रही थीं। पर इधर से जोशी जी अपनी तल्ख़ आवाज़ में उन्हें बता रहे थे कि, ‘रिपोर्टर जैसा भी है उसे न आप के कहने पर रखा गया है, न आप के कहने से हटाया जाएगा। रही बात आप के प्रतिवाद की तो उसे लिख कर भेज दीजिए, ठीक लगा तो वह भी छाप दिया जाएगा।’ उधर से मोहसिना किदवई ने फिर कुछ कहा तो जोशी जी ने पूरी ताकत से उन से कहा कि, ‘जनादेश की बात तो हमें आप समझाइए नहीं। आप पांच साल में एक बार जनादेश लेती हैं तो हम रोज जनादेश लेते हैं। और लोग पैसे खर्च कर, अख़बार ख़रीदते हैं और जनादेश देते हैं। बाक़ी जो करना हो आप कर सकती हैं, स्वतंत्र हैं।’ कह कर उन्हों ने फ़ोन रख दिया।
जनता द्वारा अख़बारों को दिए गए इस जनादेश की ताकत का इस तरह बखान प्रभाष जोशी ही कर सकते थे। अब विज्ञापन को ख़बर बता कर, पैसे ले कर ख़बर छापने वाले संपादक किस बूते पर और किस मुंह से इस ताकत का बखान कर सकते हैं?
दरअसल जोशी जी ने कई असंभव चीज़ों को संभव बनाया। भारतीय पत्रकारिता में हिंदी को उन्हों ने जो मान दिलाया वह अद्वितीय है। इस के लिए उन्हों ने बड़ी तपस्या की। विनोबा और जे.पी. सरीखों के साथ काम कर चुके प्रभाष जोशी में धैर्य और उस का संतुलन ज़बरदस्त था। कई बार वह अपना गुस्सा भी बहुत धीमे से व्यक्त करते थे। कई बार संकेतों में। और बात असर कर जाती थी। जनसत्ता के लिए जब मेरा इंटरव्यू हुआ तो इंटरव्यू लेने वालों में जोशी जी के साथ इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक एम.वी. देसाई और तत्कालीन संपादक वी.जी. वर्गीज तथा एक रिटायर्ड आई.पी.एस. अफसर भी थे। अपने लेखों आदि की छपी कतरनों को एक बड़े ब्रीफकेस में भर कर मैं पहुंचा था। अंदर जाते ही ब्रीफकेस अपने आप खुल गया। रविवार, दिनमान, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएं वहां फैल कर बिखर गईं। जोशी जी यह देख कर मुसकुराए। बोले, ‘समझ गया कि आप हर जगह छपे हैं। अब इस सब को बटोर लीजिए।’ मैं ने कहा, ‘देख तो लीजिए।’ वह संक्षिप्त सा बोले, ‘देख लिया। अब रख लीजिए।’ बातचीत शुरू हुई। वर्गीज साहब को जब पता चला कि मैं गोरखपुर का रहने वाला हूं तो उन्हों ने गंडक नहर प्रोजेक्ट के बारे में पूछा। मुझे इस बारे में बिलकुल जानकारी नहीं थी। पर चूंकि सवाल था तो जवाब देना ही था। मैं ने पूरी ढिठाई से कहा, ‘जैसा कि सरकारी योजनाओं के साथ होता है, यह गंडक नहर परियोजना भी वैसी ही है।’
वर्गीज साहब ने टोका, ‘फिर भी?’
मैं ने अपनी ढिठाई जारी रखी और कहा कि, ‘सारी योजना काग़ज़ी है। फर्जी है।’ वर्गीज साहब ने फिर धीरे से पूछा, ‘पर प्रोजेक्ट में है क्या?’ मैं ने अपनी ढिठाई में थोड़ा कानफिडेंस और मिलाया और पूरी दृढ़ता से बोला, ‘कहा न पूरी परियोजना काग़ज़ी है और फर्जी भी।’
बाद में बनवारी जी के हस्तक्षेप से मुझे जनसत्ता में नौकरी मिल गई। बहुत बाद में एक बार एक ख़बर के सिलसिले में डा. लक्ष्मीमल्ल सिंधवी से बात करने जाना था तो जोशी जी ने सख़्त हिदायत दी कि, ‘बातचीत में बहकिएगा नहीं। और कि जिस बारे में जानकारी नहीं हो, उस बारे में उड़िएगा नहीं।’
‘मैं समझा नहीं।’ कह कर मैं अनमना हुआ तो जोशी जी बोले, ‘आप को अपना इंटरव्यू याद है?’
‘जी क्यों?’
‘वर्गीज साहब ने आप से गंडक नहर प्रोजेक्ट के बारे में पूछा था तो आप ने उसे काग़ज़ी और फर्जी करार दिया था?’
‘जी वो तो है।’ मैं अचकचाया।
‘ख़ाक जानते हैं आप?’ जोशी जी बिदके। बोले, ‘आप जानते हैं कि वर्गीज साहब गंडक नहर प्रोजेक्ट पर लंबा काम कर चुके हैं। और आप पूरी बेशर्मी से उन से उसे काग़ज़ी और फर्जी बता रहे थे?’ वह बोले, ‘किसी पत्रकार में कानफिडेंस होना बहुत ज़रूरी है पर यह ओवर कानफिडेंस, फर्जी कानफिडेंस? बिलकुल नहीं चलेगा। अरे नहीं आता तो चुप रहिए। स्वीकार कर लीजिए कि नहीं मालूम। खामखा उड़ने की क्या ज़रूरत है?’
मुझे सचमुच बड़ी शर्मिंदगी हुई। बाद में एक दिन जा कर वर्गीज साहब से मिला और उन से अपनी ग़लती स्वीकार कर क्षमा मांगी। पर वह तो जैसे पहले ही से क्षमा किए हुए थे। बोले, ‘इट्स ओ.के.।’ वर्गीज साहब वैसे भी बहुत कम बोलने वाले आदमी हैं। एक बार इंडियन एक्सप्रेस में किसी बात पर कर्मचारी गरमाए हुए थे। वर्गीज साहब दफ्तर आने के लिए एक्सप्रेस बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। कर्मचारियों ने उन्हें रोका। धक्का-मुक्की में उन का चश्मा फर्श पर गिर कर टूट गया। पर वह चुपचाप रहे। किसी से कुछ बोले नहीं। चुपचाप चले गए।
वर्गीज साहब की एक बात और याद आ रही है। जनता पार्टी की सरकार के दिनों में गांधी शांति प्रतिष्ठान के काम काज को ले कर इंदिरा गांधी की सरकार ने जांच के लिए एक आयोग बनाया था। जांच आयोग के लपेटे में वर्गीज साहब भी थे। जांच आयोग ने जब रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो उस की सिफ़ारिशों को पी.टी.आई. ने चार पांच टेक में जारी किया। हिंदुस्तान टाइम्स से एक सज्जन ने उन्हें फ़ोन किया। आपरेटर ने फ़ोन ग़लती से जनसत्ता में दे दिया। उन को बताया गया कि फ़ोन है तो बड़ी विनम्रता से फ़ोन पर आ गए। उधर से जो भी कुछ कहा गया हो। पर इधर से वर्गीज साहब बोले, ‘आप इस ख़बर का क्या करें, मैं कैसे बता सकता हूं। हां, यह ज़रूर बता सकता हूं कि मैं अपने यहां पूरी ख़बर ले रहा हूं। आप को क्या करना है, यह आप तय कर लीजिए। हां, मैं अपना जवाब कल दे रहा हूं।’ जाते-जाते वह जनसत्ता डेस्क पर भी कह गए कि, ‘आयोग की सिफ़ारिश मेरे खि़लाफ है इस लिए इस ख़बर को अंडर प्ले नहीं किया जाना चाहिए। ख़बर जो प्लेसमेंट मांगती है, वही दिया जाना चाहिए।’
और सचमुच दूसरे दिन इंडियन एक्सप्रेस में पहले पेज़ पर तीन कालम में वह ख़बर छपी। पर उस के बाद अपने जवाब में वर्गीज साहब ने आयोग की सिफ़ारिशों की जो धज्जियां उड़ाईं तो फिर बात ही ख़त्म हो गई। बाद में वर्गीज साहब से पूछा कि, ‘आप चाहते तो पी.टी.आई. से ही ख़बर ड्राप करवा सकते थे। फिर कहीं नहीं छपती।’
‘अरे फिर तो वह ख़बर हो जाती। इस का मतलब होता कि फिर मैं कहीं गिल्टी हूं।’
प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर की दोस्ती के चर्चे आम हैं। पर एक समय अपनी टीम के चयन में दोनों ही आमने-सामने थे। 1983 में जब दिल्ली से जनसत्ता निकालने की तैयारी हो रही थी तभी नवभारत टाइम्स में राजेंद्र माथुर संपादक हो कर आए थे और लखनऊ नवभारत टाइम्स की तैयारी में थे। बहुतेरे लोग जनसत्ता और नवभारत टाइम्स को एक साथ साध रहे थे। ख़ास कर उत्तर प्रदेश के लोग। प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर में एक अघोषित सी होड़ थी कि कौन किस को ले जा रहा है।
जनसत्ता छपना शुरू होने के पहले की बात है। उन दिनों जोशी जी रोज शाम को एक मीटिंग करते थे। पूरी टीम को एक साथ बिठा कर। कैसा अख़बार निकाला जाए, और फिर किस ने क्या काम किया, काम काज पर यहां तक कि रिपोर्टरों की रिपोर्टों पर भी दूसरे अख़बारों से तुलनात्मक चर्चा होती। घंटों चलने वाली इस मीटिंग में सब की बातें भी जोशी जी बड़े धैर्य से सुनते। सब की एक-एक बात नोट करते। कई बार बहुतेरी मूर्खता भरी बातें भी एकाध लोग करते तो लोग ऊब जाते। पर जोशी जी का धैर्य नहीं चुकता। वह ऐसी तल्लीनता से लोगों को सुनते गोया कुमार गंधर्व या भीमसेन जोशी को सुन रहे हों। मीटिंग के बाद भी वह कभी किसी के कंधे पर हाथ रख कर बतियाते या पीछे से पीठ पर अचानक धौल जमा देते। कमर में हाथ डाल कर बतियाते चलने लगते। इस सब को ले कर उन के बारे में तब तरह-तरह की चर्चाएं होतीं।
ख़ैर, उन्हीं मीटिंग्स में एक दिन उन्हों ने बसंत गुप्त को पुलक भरी नज़रों से देखा और छाती फुला कर ऐलान किया कि बसंत गुप्त को उन्हों ने सब एडीटर भले नियुक्त किया है पर वह उन्हें ऐज स्पोर्ट एडीटर ट्राई कर रहे हैं। सभी लोग जानते हैं कि प्रभाष जोशी स्पोर्ट के आदमी थे। और वह बसंत गुप्त को लगभग स्पोर्ट एडीटर घोषित कर रहे थे। बसंत गुप्त सभी की नज़रों में यकायक चढ़ गए। लोग उन के आगे पीछे डोलने लगे।
प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर रोज मिलते थे। अपनी-अपनी टीम के बारे में भी चर्चा करते थे। कौन किधर टूट रहा है, कौन किधर जुड़ रहा है पर भी चर्चा होती। एक दिन राजेंद्र माथुर ने मजाक ही मजाक में जोशी जी से कह दिया कि बाक़ी की बात छोड़िए आप के एक खेल वाले को ही जो एक दो इनक्रीमेंट ज़्यादा दे दूं तो वह भी चला आएगा। राजेंद्र माथुर की इस बात को प्रभाष जोशी ने दिल पर ले लिया। अगले दिन की मीटिंग में वह बिफर पड़े। बसंत गुप्त का नाम तो उन्हों ने खुल कर नहीं लिया पर उन की जितनी मरम्मत और मजम्मत वह कर सकते थे कर गए। फिर अफसोस जताते हुए जोशी जी ने कहा कि जिस पर मैं ने सब से ज़्यादा विश्वास किया वह यहां सिर्फ़ इस लिए रुका हुआ है कि उस को दो इंक्रीमेंट वहां ज़्यादा नहीं मिल रहा है? यह तो मेरे विश्वास को तोड़ना हुआ। ऐसे कैसे काम चलेगा? ऐसे आदमी को हमारी टीम में रहने का क्या हक़ है? कुछ ऐसा ही कहा था जोशी जी ने।
समझने वाले समझ गए। पर ज़्यादातर लोग कयास लगाते रहे। कि यह कौन है। पर बसंत गुप्त का चेहरा धुआं पड़ गया। दूसरे दिन वह दफ़्तर आए तब भी चेहरा उतरा हुआ। परेशानी में तर बतर। बनारस में आज की नौकरी छोड़ कर आए थे। भैया जी बनारसी के सुपुत्र। बड़े भाई शिशिर गुप्त रविवार में थे। खु़द जनसत्ता दिल्ली में आ गए थे। सब कुछ ठीक चल रहा था। पर अब अचानक सब कुछ उलट-पुलट।
पत्रकारों की जाति नौकरी के मामले में वैसे भी बड़ी कायर होती है। कहां लोग आगे पीछे डोल रहे थे, अब कतराने लगे। अंततः बसंत गुप्त ने चुपचाप इस्तीफ़ा दे दिया। वह समझ गए थे कि यहां अब मुश्किल होगी। नवभारत टाइम्स लखनऊ चले गए। कम से कम मुझे यह अच्छा नहीं लगा। अरे अगर आप बसंत गुप्त में स्पोर्ट एडीटर की प्रतिभा देख रहे थे तो उन की इस नादानी पर उन्हें माफ भी कर सकते थे। और कि उन्हें प्यार से, दुलार से समझा कर रोक सकते थे। पर नहीं आप ने सरे आम एक प्रतिभा को दुत्कार दिया। ज़रा सी बात के लिए।
ख़ैर, फिर तो लोग जोशी जी से डरने भी लगे। पर जोशी जी ने अपनी सहजता बरकरार रखी। अख़बार छपने की तारीख़ कुछ तैयारियों के चलते लगातार बढ़ती जाती थी। 15 अगस्त, 2 अक्टूबर फिर नवंबर में छपने का समय आ ही गया। पर जब तक छपा नहीं अनिश्चितता बढ़ती जाती। मुझे याद है संपादकीय विभाग में एक गोरखा चपरासी था तब। जनसत्ता के साथियों पर बड़ी हिकारत के साथ कमेंट करता, ‘ये सब बैठ कर दो लाख रुपए महीने तनख्वाह खा रहे हैं कंपनी का!’ हालां कि जोशी जी किसी को तब बैठने ही कहां देते थे? तरह-तरह के प्रयोग करते। ख़बर लिखने से ले कर वर्तनी, एडिटिंग, पेज मेकिंग तक पर सब को माजते रहते। आठ कालम के बजाय पांच कालम से सोलह कालम तक का प्रयोग किया। अंततः पांच कालम पर आए फिर छः कालम पर फ़ाइनल किया। जनसत्ता की डमी जितनी छपी, उतने लंबे समय तक शायद ही तब तक या अब तक किसी अख़बार की डमी छपी होगी या छपेगी। लेकिन अख़बार जब छप कर बाक़ायदा बाज़ार में आया तो धूम मच गई। इंडियन एक्सप्रेेस की नेटवर्किंग और साख तो थी ही, जनसत्ता की अपनी धार भी कुछ कम नहीं थी। पहले दिन क्या बाद में भी कई दिन तक लगभग सभी साथी सुबह 9-10 बजे से रात दो बजे तक डटे रहते। ऐसा समर्पण, ऐसा उत्साह, ऐसा रोमांच शायद ही किसी अख़बार को नसीब हुआ हो! बताने में अच्छा लगता है कि अख़बार छपने के कुछ महीने पहले ही साठ हज़ार से अधिक की बुकिंग एजेंटों ने पहले ही से कर दी थी।
हिंदी पट्टी में ख़बरों के मामले में इतना कड़क अख़बार पहले कभी देखा नहीं गया था और क्षमा कीजिए कि अब तक नहीं देखा गया। नतीज़ा सामने था। गिनती के दिनों में ही जनसत्ता ढाई लाख की प्रसार संख्या को छू गया। कभी मीटिंग में उन दिनों जोशी जी बताते नहीं अघाते थे कि उस समय देश में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला अख़बार था बांग्ला में छपने वाला आनंद बाज़ार पत्रिका। जिस की प्रसार संख्या तब सात लाख बताते थे जोशी जी। और कहते थे कि अगर बांग्ला में कोई अख़बार सात लाख बिक सकता है तो हिंदी में क्यों नहीं? पर क्या कीजिएगा कि गिनती के दिनों में ही जनसत्ता के ढाई लाख की प्रसार संख्या छूने पर वही प्रभाष जोशी विशेष संपादकीय लिख कर पाठकों से निहोरा कर रहे थे कि कृपया अब अख़बार ख़रीद कर नहीं, मांग कर पढ़ें। संपादकीय में तो नहीं पर मीटिंग में जोशी जी ने पूछने पर बताया कि गोयनका जी ने कहा है कि या तो दो मशीनें लगा कर अख़बार अब पांच लाख छापिए या फिर यहीं रोकिए। अख़बार की छपाई और व्यवसाय का यह गुणा भाग था।

दरअसल एक बात बताना यहां ज़रूरी जान पड़ती है। बात थोड़ी अप्रिय है पर है सच! रामनाथ गोयनका ने एक्सप्रेेस ग्रुप से हिंदी अख़बार जनसत्ता निकाला तो हिंदी की सेवा के लिए नहीं, अपनी सेवा के लिए निकाला था। मतलब एक व्यावसायिक गणित थी। उन दिनों दिल्ली में टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस तीनों ही अख़बारों में ट्रेड यूनियनों का ज़बरदस्त दबदबा था। ज़बरदस्त दबाव भी। यूनियन की मांग अगर मैनेजमेंट न माने तो बात-बेबात काम बंद या हड़ताल हो जाती थी। कभी-कभी यह हड़ताल लंबी भी खिंच जाती थी। तो अगर टाइम्स आफ इंडिया में हड़ताल हो या हिंदुस्तान टाइम्स दोनों ही जगहों की हड़ताल का फ़ायदा इंडियन एक्सप्रेस को नहीं मिल पाता था। बढ़ी हुई कापियों का। क्यों कि एक्सप्रेस के पास हिंदी अख़बार नहीं था। ऐसे में अगर हिंदुस्तान में हड़ताल होती तो हाकरों की बाध्यता थी कि वह हिंदुस्तान टाइम्स की जगह टाइम्स आफ इंडिया ही लें तभी उन्हें नवभारत टाइम्स बढ़ा कर मिल पाता। यही हाल जब टाइम्स आफ इंडिया में हड़ताल होती तब होता। जो हाकर हिंदुस्तान टाइम्स की बढ़ी प्रतियां लेता उस को ही हिंदुस्तान हिंदी की बढ़ी प्रतियां मिलतीं। इंडियन एक्सप्रेस हर बार गच्चा खा जाता। हिंदी अख़बार न होने से। तो उसे जनसत्ता निकालना पड़ा। और बताता चलूं कि प्रभाष जोशी जनसत्ता के संस्थापक संपादक नहीं हैं। हकीकत यह है कि जनसत्ता पचास के दशक में भी हिंदी में निकल चुका था। संभवतः दो तीन साल निकला था। एक विवाद के चलते रामनाथ गोयनका ने हिंदी जनसत्ता तब बंद कर दिया था। बहुत बाद में एक्सप्रेस गु्रप ने मुंबई से गुजराती में भी जनसत्ता नाम से अख़बार छापा। और मराठी में लोकसत्ता। हिंदी में जनसत्ता का पुनर्प्रकाशन हुआ था 1983 में। इस जनसत्ता की प्रतीक्षा में प्रभाष जोशी को इंडियन एक्सप्रेस में नौ साल गुज़ारना पड़ा था। दिल्ली, चंडीगढ़, अहमदाबाद में। तब के दिनों में जनसत्ता के आने की ख़बर दिल्ली में हर साल चलती। उन्हीं दिनों दिल्ली में स्टेट्समैन से हिंदी अख़बार नागरिक की भी चर्चा चलती। यहां तक कि चर्चा में एक बार नागरिक के संपादक के रूप में रघुवीर सहाय का नाम भी आ गया। उन की टीम के लोगों के नाम भी। खै़र, नागरिक नहीं निकला।
जनसत्ता निकल गया। जनसत्ता क्या निकला हिंदी की पृथ्वी में प्रभाष जोशी नाम का सूर्य भी निकला। कहूं कि जनसत्ता और उस के संपादक प्रभाष जोशी दोनों की चमक उन दिनों देखने लायक़ थी। एक दूसरे की चमक से दोनों ही आप्लावित। ग़ज़ब मंजर था वह भी। जो ही देखता जनसत्ता और संपादक के रूप में नाम देखता प्रभाष जोशी का तो वह बरबस पूछ बैठता, ‘यह आदमी था कहां अभी तक।’ हिंदी में यह नाम पहले भी था पर इतनी चमक और धमक इस के हिस्से नहीं थी तो लोग नहीं जान पाए थे, प्रभाष जोशी को। उन दिनों हिंदी में लोग जानते थे अक्षय कुमार जैन को, गोपाल प्रसाद व्यास, और अज्ञेय को, इलाचंद्र जोशी, मोहन राकेश और रामानंद दोषी को। और चमक रहे थे धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, कन्हैयालाल नंदन, राजेंद्र अवस्थी। और हां, सुरेंद्र प्रताप सिंह। जिन्हें लोग एस.पी. कहते। सभी के सभी हिंदी पत्रिकाओं के संपादक। हिंदी दैनिक अख़बारों के संपादकों की जैसे तब कोई हैसियत ही नहीं थी! और सच कहूं तो हिंदी के दैनिक अख़बारों की दरिद्रता मंुह बाए हुए थी। प्रभाष जोशी नाम के सूर्य ने हिंदी की पृथ्वी में जो रोशनी, जो ऊष्मा और जो सुंदरता परोसी वह अविरल थी। अद्भुत थी।
अंगरेजी अख़बारों की जूठन और उतरन पर जी खा रही हिंदी पत्रकारिता को दरअसल प्रभाष जोशी के संपादन में निकलने वाले जनसत्ता ने अंगरेजी अख़बारों के जूठन और उतरन के सहारे जीने से इंकार कर दिया था। अंगरेजी अख़बारों के छिछले अनुवादों से पटी हिंदी अख़बारों की संपादकीय या संपादकीय पेज वाले लेखों में अंगरेजी अख़बारों के कचरे से छुट्टी दिला दी थी प्रभाष जोशी ने। नवभारत टाइम्स के प्रबंधन ने हिंदी में आई इस नई करवट की शिनाख्त कर ली थी और इंदौर के नई दुनिया से जहां से प्रभाष जोशी भी आए थे, वहीं से राजेंद्र माथुर को बुला लिया था। जो काम प्रभाष जोशी जनसत्ता में कर रहे थे, वही काम राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स में। हिंदुस्तान प्रबंधन तो बहुत बाद में नींद से जागा। और कि अब जगा हुआ है। खै़र, बात प्रभाष जोशी और उन के जनसत्ता की हो रही थी। राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी दोनों में कुछ बातें सामान्य थीं। पत्रकारिता की समझ, लिखने की ललक और हिंदी पत्रकारिता को बदलने की बेचैनी दोनों में ही थी। वहीं हिंदुस्तान के तत्कालीन संपादक विनोद मिश्र के लिए कहा जाता था कि वह जेब से पेन ही नहीं निकालते थे। तो कोई कहता कि वह पेन रखते ही नहीं थे। बहुत बाद में एक व्यंग्यकार ने चुटकी लेते हुए लिखा कि वह बहुत समझदार थे। लिखते तो नौकरी न चली जाती? बहरहाल यह भी एक विरल संयोग ही था कि तब दिल्ली में तीनों प्रमुख हिंदी अख़बारों जनसत्ता, नवभारत टाइम्स और हिंदुस्तान के संपादक मध्य प्रदेश से आते थे।
पर वो जो कहते हैं कि छोटे बच्चे की ग्रोथ ज़्यादा तेज़ी से होती है। तो जनसत्ता की ग्रोथ दिन दूनी रात चौगुनी थी। बिलकुल किसी बछड़े जैसा उछाह था। दूसरे, प्रभाष जोशी को जनसत्ता में जितनी आज़ादी थी, स्टाफ रखने से ले कर, ख़बर और कंटेंट तक की उतनी किसी को नहीं थी। जैसे कोई प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री जब अपनी कैबिनेट बनाता है तो क्षेत्रीय, जातीय संतुलन का भी ध्यान रखते हुए अपने करीबियों का भी ध्यान रखता है। अपनी पसंद और नीति की भी। प्रभाष जोशी ने यही किया था। हर फील्ड के लोगों को वह ले आए थे। हर तरह के लोग। हिंदी में भले उन्नीस थे एक सहयोगी पर तमिल के जानकार थे। मराठी और उर्दू जानने वाले सहयोगी भी थे। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल से भी लोग थे। हां, लेकिन सच यह है कि दबदबा दो जगह के लोगों का ज़्यादा था। एक मध्य प्रदेश के लोगों का जो प्रभाष जोशी का गृह प्रदेश था। दूसरे, कानपुर का जहां प्रभाष जोशी की ससुराल थी। गावसकर की भी ससुराल कानपुर है। इनमें भी कनपुरिया फैक्टर ज़्यादा आक्रामक और प्रभावी था।
देवप्रिय अवस्थी जो सर्वाधिक पांच इनक्रीमेंट के साथ आए थे, इस लिए भी कि वह टाइम्स ट्रेनी वाले थे और अपनी सिक्योरिटी जब्त करवा कर आए थे। तिस पर उन की आक्रामकता इतनी कि तब के कार्यकारी समाचार संपादक गोपाल मिश्र उन के आगे पानी मांगते और नहीं पाते। वैसे भी वह सिफारिशी थे और कि हफ्ते का एक ड्यूटी चार्ट बनाने और स्ट्रिंगर टाइप संवाददाताओं से चिट्ठी पत्री में ही खेत हो जाते। सत्य प्रकाश त्रिपाठी, राजीव शुक्ला, शंभुनाथ शुक्ला भी कानपुर के थे। और मिल कर सब पर भारी हो जाते। हालां कि उन दिनों पूरी जनसत्ता टीम दो क्षत्रपों में अघोषित रूप से बंटी रहती। एक बनवारी, दूसरे हरिशंकर व्यास। दरअसल यही दोनों अख़बार के पहले दौर में प्रभाष जोशी के आंख और कान थे। यह लोग जैसा और जिस के बारे में जोशी जी को बताते वह वही जान पाते थे। दोनों सहायक संपादक थे। हालां कि एक तीसरे सहायक संपादक भी थे सतीश झा। फाइनेंसियल एक्सप्रेस से ट्रांसफर ले कर जनसत्ता में आए थे। मतलब अंगरेजी से हिंदी में। तिस पर एक अफसर के बेटे थे। और बहुत तीन पांच में नहीं रहते थे। मुझे याद है 23 नवंबर, 1983 को जब जनसत्ता का प्रवेशांक छप रहा था, आधी रात को 12 बजे के बाद सतीश झा बहुत भावुक हो कर सब को बता रहे थे कि मेरी पत्नी या बेटी याद नहीं आ रहा का जन्म दिन भी आज ही है और अपने अख़बार का भी।
बहरहाल जोशी जी की किचेन कैबिनेट में तब दो ही थे। बनवारी और हरिशंकर व्यास। दोनों एक दूसरे के उलट। दो ध्रुव। बनवारी सर्वोदयी थे तो हरिशंकर व्यास संघी। बनवारी खादी पहनने वाले तो हरिशंकर व्यास पालिएस्टर। दोनों की सोच समझ में तो फरक था ही, ज़मीनी हकीकत भी जुदा-जुदा। हरिशंकर व्यास को जोशी जी जनसत्ता में क्यों लाए थे, मैं आज तक नहीं समझ पाया। हिंदी का एक वाक्य छोड़िए कई शब्द भी वह ठीक से नहीं लिख पाते थे। अकसर उन का लिखा टाइपिस्ट ठीक करता था। सोच और समझ में भी वह पैदल ही थे। तिस पर देखते वह विदेशी मामले थे। ख़ैर, बनवारी पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे। फिर रघुवीर सहाय उन्हें दिनमान में ले आए। एक साथ दस इंक्रीमेंट दे कर। दिनमान के पुराने संपादकीय सहयोगियों में नाराजगी घर कर गई। बस बगावत भर नहीं हुई। बाक़ी सब हुआ। धीरे-धीरे बनवारी ने अपने काम और व्यवहार से सब को अपना बना लिया। लेकिन जब दिनमान से रघुवीर सहाय के जाने और कन्हैयालाल नंदन के आने की ख़बर चली तो बनवारी ने रघुवीर सहाय को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया। सहाय जी ने उन्हें समझाया भी कि, ‘मैं कहीं नहीं जा रहा।’ पर बनवारी नहीं माने। बोले, ‘मैं मुगालते में नहीं जीता।’ और जोड़ा कि, ‘आप जा रहे हैं। अच्छा है कि मेरा इस्तीफ़ा मंजूर कर के जाएं। क्यों कि जो संपादक आ रहे हैं, उन्हें मैं संपादक नहीं मानता, उन के साथ काम करना मेरे लिए नामुमकिन है।’ और इस्तीफ़ा दे कर चले गए। हालां कि थोड़ा समय लगा और रघुवीर सहाय को दिनमान से नवभारत टाइम्स ट्रांसफर कर नंदन जी को दिनमान का संपादक बना दिया गया। उन दिनों नंदन जी को 10, दरियागंज का संपादक कहा जाता था। क्यों कि इसी पते से दिनमान, सारिका, पराग छपती थी। और वह इन तीनों पत्रिकाओं के एक साथ संपादक थे। यहीं से छपने वाली खेल भारती और वामा में भी उन का पूरा हस्तक्षेप था। अब अलग बात है कि बाद में नंदन जी को भी प्रबंधन ने रघुवीर सहाय की राह पर लगा कर नवभारत टाइम्स भेज दिया था। उन के मूल पद असिस्टेंट एडीटर पद पर। सहाय जी और नंदन जी दोनों ही का मूल पद असिस्टेंट एडीटर का ही था। एडीटर का काम देखते थे। तो जो आदमी 10, दरियागंज का संपादक कहा जाता था और पांच-पांच पत्रिकाओं का कामकाज देखता था, उसे नवभारत टाइम्स के रविवारीय में सिर्फ़ और सिर्फ़ पुस्तक समीक्षा देखने का काम दिया गया। बैठने की व्यवस्था भी ठीक नहीं। और धर्मयुग में कभी अपने अप्रैंटिश रहे सुरेंद्र प्रताप सिंह को रिपोर्ट करना होता था। इस के पहले रघुवीर सहाय के साथ भी यही हुआ था। वह भी पुस्तक समीक्षा देखते थे और तब के साक्षर संपादक आनंद जैन को रिपोर्ट करते थे। ख़ैर, सहाय जी के जाने के बाद नंदन जी आ गए पर दिनमान की प्रिंट लाइन में बनवारी का नाम जाता रहा। अब बनवारी ने टाइम्स प्रबंधन को नोटिस दी कि जब वह इस्तीफ़ा दे चुके हैं तो उन का नाम प्रिंट लाइन पर क्यों जा रहा है? नंदन जी ने सहयोगियों के मार्फ़त उन्हें समझाने की कोशिश की। पर वह नहीं माने। फिर उन का इस्तीफ़ा मंजूर हुआ, प्रिंट लाइन से नाम हटा। बनवारी कुछ दिन बेरोजगार रहे। फिर गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़ गए। वहीं प्रभाष जोशी से भेंट हुई। जनसत्ता की जब बात शुरू हुई तो जोशी जी बनवारी को भी ले आए। बनवारी ने कामधाम भी ठीक से संभाला। और दिलचस्प यह कि एक जमाने में दिनमान में बनवारी का विरोध करने वाले लोगों में से कई लोग अब जनसत्ता में उन्हीं से नौकरी मांग रहे थे। बल्कि कतार में थे। पर जोशी जी के बनाए एक बैरियर में तब लोग फंस गए। जोशी जी का मानना था कि जनसत्ता में युवा ही लिए जाएंगे। पैंतीस साल से ऊपर के लोग हरगिज़ नहीं। हालां कि तीन चार लोग अपवाद के तौर पर रखे भी गए। यथा मंगलेश डबराल, राम बहादुर राय, मनमोहन तल्ख़।
जोशी जी की समझ यह थी कि युवा लोगों को अपने अनुरूप ढालने में आसानी होती है। ज़्यादा अनुभवी और पुराने लोग बात-बात पर यह तो ऐसे होता है, हम तो ऐसे ही करेंगे का खटराग होता है। लेकिन एकदम अनुभवहीन लोगों से भी अख़बार नहीं निकल सकता था। सो बाइस-पचीस से तीस-पैंतीस साल के लोगों को उन्हों ने रखा। अकसर अपनी यह मंशा वह मीटिंग में भी बताते रहते। और अंततः बाद के दिनों में हुआ भी यही कि जो कोई सहयोगी जोशी जी की सोच से ज़रा भी इधर-उधर होता, उन के कोप का शिकार हो जाता। इस फेर में कई सारे प्रिय उन की अप्रिय की सूची में जाते रहे। हालां कि अब तो कमोवेश हर जगह का प्रबंधन अपने मातहतों को रोबोट में ही तब्दील कर देता है। और जो भी कोई रोबोट से आदमी बनने की कोशिश करता है, अपनी हैसियत, अपना अस्तित्व हेरने की कोशिश करता है, प्रबंधन उस का अस्तित्व, उस की हैसियत को डस लेता है, सिस्टम से बाहर कर पैदल कर देता है। अब यह तथ्य अपनी पूरी प्रखरता में है, गोया दस्तूर बन गया है। पर तब के दिनों में यह अजीबोगरीब लगता था। खास कर प्रभाष जोशी के अर्थ में। वह प्रभाष जोशी जो सर्वोदयी था, जो कभी जे.पी. के साथ चंबल के डाकुओं का आत्मसमर्पण जैसे बड़े काम में लगा था। और फिर वह प्रभाष जोशी जो इमरजेंसी के दिनों में जे.पी. की अगुवाई में लोकतंत्र की बहाली के लिए लड़ाई लड़ा था, वही अब अपने संपादकीय सहयोगियों के साथ लोकतांत्रिक नहीं रह गया था। मैं क्या बहुतेरे सहयोगी देख रहे थे कि जनसत्ता छपने के पहले का प्रभाष जोशी कोई और था, जनसत्ता छपने के बाद, सफलता के शिखर छूने के बाद का प्रभाष जोशी कोई और था। वह प्रभाष जोशी जो जनसत्ता छपने के पहले संपादकीय सहयोगियों के कंधे पर हाथ रख कर बतियाने लगते थे, कभी पीठ पर, कमर पर हाथ रख देेते थे, कहीं गुम हो रहे थे। उन दिनों वह अमूमन पैंट बुशर्ट पहनते थे। वह अब कभी-कभार जनसत्ता संपादकीय विभाग में आते तो पैंट की जेब में हाथ डाले फर्श देखते हुए आते और फिर छत देखते हुए लौट जाते थे। उन की तानाशाही की यह कौन सी इबारत थी, कौन सी आहट थी, कौन सी कुलबुलाहट थी, समझना बहुत कठिन था। क्या संपादक नाम की संस्था इतनी ही क्रूर, इतनी ही तानाशाह होती है। इस के पहले धर्मयुग में अपने सहयोगियों के साथ धर्मवीर भारती की तानाशाही के क़िस्से सुनता था। रही सही कसर रवींद्र कालिया ने काला रजिस्टर कहानी लिख कर पूरी कर दी थी। उन की तानाशाही की बखिया उधेड़ दी थी। बाद में तो रवींद्र कालिया ने गालिब छुटी शराब में भी धर्मवीर भारती की तानाशाही के क़िस्से बयान किए। और लिखा कि धर्मयुग में धर्मवीर भारती के बाद बाक़ी सहयोगियों की हैसियत प्रूफ़ रीडर से अधिक की नहीं थी। कन्हैयालाल नंदन की यातना के भी कई तार उन्हों ने छुए हैं गालिब छुटी शराब में। पर यह तो बाद की बात है। उन दिनों तो मैं देखता कि कन्हैयालाल नंदन के पास भी सहयोगियों के लिए ज़्यादा समय या ज़्यादा मान नहीं होता था। मिलने जाने वालों के लिए भी उन के पास कम ही समय होता था। आते ही वह कहीं जाने की तैयारी में बताए जाते थे। कई बार लोग उन के पी.ए. नेगी से ही मिल कर काम चला लेते थे।
और रघुवीर सहाय!
विचारों से लोहियावादी। पर व्यवहार में उतने ही सामंतवादी। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसों तक से भी उन का व्यवहार सामान्य नहीं था। सत्ता निरंकुश होती है। पर संपादक नाम की सत्ता भी निरंकुश हो जाए तो तकलीफदेह होती है। पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि दूसरों को लोकतांत्रिक होने का पाठ पढ़ाने वाले तमाम संपादक आंतरिक तौर पर अपने सहयोगियों के साथ लोकतांत्रिक नहीं थे। उन की इस हिप्पोक्रेसी ने ही संपादक नाम की संस्था का ह्रास किया। बाद में बात इतनी बढ़ी कि संपादक की हैसियत पी.आर.ओ. या लायजनर्स की हो गई और अंततः कम से कम अख़बारों में अब संपादक नाम की संस्था ही समाप्त हो चली है। तो यह तब के समय के संपादकों की हिप्पोक्रेसी ने ही इस बबूल को बोया था। और क्षमा करें, कहते हुए तकलीफ भी होती है कि अपने आदरणीय प्रभाष जोशी जी भी इस हिप्पोक्रेसी के शिकार थे।
उन की हिप्पोक्रेसी के एक नहीं अनेक वाकए हैं, कथाएं हैं। यहां ज़्यादा नहीं दो तीन घटनाओं का हवाला दे रहा हूं। जनसत्ता के शुरुआती दिनों में प्रभाष जोशी की आदत थी ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से मिलने की, लिखने की। विविध लोगों से वह मिलते थे, विविध विषयों पर लिखते थे। कुछ लोगों को बाक़ायदा चिट्ठी लिख कर समय तय कर के वह अपने दफ़्तर में बुलाते थे। लोग आते भी थे। एक बार हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक रामदरश मिश्र को भी उन्हों ने बुलाया। रामदरश जी उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते भी थे। तय समय पर वह जनसत्ता के दफ़्तर आए। पर जोशी जी के पी.ए. राम बाबू ने उन्हें यह कह कर बैठा दिया कि, ‘जोशी जी अभी व्यस्त हैं और कि अंदर मीटिंग चल रही है।’ रामदरश जी सरल प्रकृति के आदमी हैं, बैठ गए। इसी बीच किसी काम से मैं जोशी जी के कमरे में गया। थोड़ी देर में कमरे से बाहर निकला तो रामदरश जी को अनमनस्क ढंग से बैठे पाया। जा कर उन्हें नमस्कार किया। औपचारिक बातचीत के बाद उन्हों ने पूछा कि, ‘क्या अंदर कोई बड़ी मीटिंग चल रही है?’
‘नहीं तो!’ मैं ने बताया।
‘अरे फिर?’ रामदरश जी ने पूछा। तो मैं ने पूछा, ‘बात क्या है?’ उन्हों ने जोशी जी की चिट्ठी दिखाते हुए धीरे से कहा कि, ‘खुद मिलने के लिए बुलाया है, मैं समय से आ भी गया। पर आधे घंटे से बैठा हूं। पी.ए. बता रहा है कि मीटिंग चल रही है।’
मैं ने उन्हें फिर बताया कि कोई मीटिंग फ़िलहाल नहीं चल रही है।’
‘अंदर कौन-कौन है?’
‘जोशी जी हैं और उन के साथ शरद जोशी हैं। बस!’
‘ओह!’ कह कर रामदरश मिश्र उठे और जोशी जी के पी.ए. राम बाबू को कुपित नज़र से देखा और बोले, ‘मैं जा रहा हूं। कह दीजिएगा जोशी जी से वह अपने दोस्त के साथ खूब गप्पें मारें।’ तब तक जोशी जी के कमरे से शरद जोशी का ठहाका भी सुनाई दिया। रामदरश जी ने राम बाबू को हाथ जोड़ा और चल दिए। राम बाबू भाग कर जोशी जी के कमरे में गए और उन्हें रामदरश जी के नाराज हो कर जाने की सूचना दी। जोशी जी तुरंत कमरे से बाहर आए। पर रामदरश जी जा चुके थे। उन्हों ने राम बाबू से कहा, ‘दौड़ कर देखिए और उन्हें मना कर ले आइए।’ राम बाबू दौड़ कर गए भी। रामदरश जी एक्सप्रेस बिल्डिंग की सीढ़ियों से उतर रहे थे। राम बाबू ने उन्हें हाथ जोड़ कर रोका पर रामदरश जी अब तक पूरे परशुराम बन चुके थे। नहीं आए तो नहीं आए। रामदरश मिश्र मेरी वजह से भड़के यह जान कर जोशी जी मुझ पर भी कुपित हुए पर मुझ से कुछ कहा नहीं। बस घूर कर रह गए।
अशोक वाजपेयी उन दिनों मध्य प्रदेश शासन में संस्कृति सचिव थे। भारत भवन का काम भी उन के ज़िम्मे था। जाने क्यों प्रभाष जोशी सर्वदा अशोक वाजपेयी के पीछे पड़े रहते थे। कोई न कोई रिपोर्ट उन के खिलाफ छापते रहते थे। एकाधिक बार मुहिम की तरह। पूरी टीम लगा देते। भोपाल से जनसत्ता के संवाददाता महेश पांडेय, इंडियन एक्सप्रेेस के संवाददाता एन.के. सिंह और दिल्ली से आलोक तोमर लगातार एक साथ लिखते रहते। खोज-खोज कर, खोद-खोद कर लिखते। प्रभाष जोशी खुद भी लिखते। हालां कि अशोक वाजपेयी की कोई प्रतिक्रिया नहीं आती। लेकिन जब एक बार बहुत हो गया तो एक लंबा प्रतिवाद भेजा अशोक वाजपेयी ने। हम भी मुंह में जुबां रखते हैं लेकिन.....! शीर्षक से। प्रभाष जोशी ने अशोक वाजपेयी के इस प्रतिवाद को बिना किसी काट-छांट के छापा भी जनसत्ता के पूरे आधे पेज में। बिलकुल ऊपर। बाक़ी के आधे पेज पर नीचे अशोक वाजपेयी के प्रतिवाद पर प्रतिवाद छपा था। जिसे तीन लोगों ने लिखा था। प्रभाष जोशी, आलोक तोमर और एन.के. सिंह ने। किसी मसले पर किसी दैनिक अख़बार ने इस के पहले या बाद में भी इस तरह पूरे पेज़ पर प्रतिवाद छापा हो, वह भी किसी अफसर की ओर से, मुझे नहीं याद आता। इस प्रतिवाद में भी कई दिलचस्प प्रसंग थे। जैसे कि एक जगह अशोक वाजपेयी ने लिखा था कि आप कुछ लाख रुपयों के पीछे पड़े हैं और यहां मेरी कलम से हर साल करोड़ो रुपए खर्च होते हैं। फिर उन्हों ने एकाउंट से संबंधित किसी शब्द का ज़िक्र करते हुए लिखा था कि उस शब्द का हिंदी अनुवाद भी आप को ठीक से नहीं मालूम तो किस हैसियत से किसी लेखा-जोखा का आप हिसाब-किताब करेंगे?
जोशी जी ने अशोक वाजपेयी का जवाब कुछ इस तरह से तब दिया था कि- चूक हुई। क्यों कि यह रिपोर्ट कलकत्ता से पटना की फ़्लाइट में लिखी गई। पटना से फिर दिल्ली की फ़्लाइट में देखी गई। दिल्ली आ कर रिपोर्ट आफ़िस में दे कर जल्दी में चला गया क्यों कि बंबई की फ़्लाइट पकड़नी थी। इस लिए चूक हुई।
गरज यह कि ग़लती भी इस मठाधीशी से स्वीकारी जोशी जी ने कि अगर आप करोड़ों रुपए का बजट खर्च करते हैं तो हम भी कोई ऐरे-ग़ैरे नहीं हैं। एक दिन में तीन-तीन फ़्लाइट पकड़ते हैं। और कि फ़्लाइट में भी काम करते रहते हैं। जो हो अशोक वाजपेयी का पीछा जोशी जी ने फिर भी नहीं छोड़ा। लगातार वार पर वार करते रहे। बाद के दिनों में प्रभाष जोशी जनसत्ता के संपादक पद से विश्राम ले बैठे। अशोक वाजपेयी भी दिल्ली आ गए। तो भी जोशी जी ने एक बार कागद कारे में अशोक वाजपेयी की चर्चा करते हुए लिखा कि इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बार में अब हिंदी गालियां भी सुनाई देती हैं।
जनसत्ता के शुरुआती दिनों में जोशी जी एक बार लखनऊ गए। लखनऊ में जनसत्ता के तब के संवाददाता जय प्रकाश शाही ने राजकीय अतिथि गृह में जोशी जी के रहने की व्यवस्था करवाई। और सूचना विभाग से कह कर एक सरकारी कार उन की सेवा में ले कर अमौसी एयरपोर्ट पहुंचे। जोशी जी ने सरकारी कार एयरपोर्ट से ही वापस कर दी। एक टैक्सी ली और राजकीय अतिथिगृह में ठहरने के बजाय तब के एक सब से बड़े होटल में ठहरे। जयप्रकाश शाही को समझाया भी कि अच्छा पत्रकार बनने के लिए ज़रूरी है कि सरकारी सुविधाएं न ली जाएं। बाद के दिनों में कभी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे मोती लाल वोरा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बन कर लखनऊ आ गए। फिर दुर्भाग्य से उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया। शासन प्रशासन का काम काज बतौर राज्यपाल मोती लाल वोरा देखने लगे। प्रभाष जोशी को उन्हों ने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की गांधी समिति का सदस्य नामित करवा दिया। फिर वोरा जी ने हिंदी संस्थान का एक लखटकिया पुरस्कार भी जोशी जी को दिलवा दिया। जल्दी ही उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन ख़त्म हो गया। मायावती मुख्यमंत्री बनीं। और गांधी को शैतान की औलाद कहने लगीं। बहुत बवाल मचा पर मायावती टस से मस न हुईं। उन्हीं दिनों हिंदी संस्थान का पुरस्कार वितरित किया गया। प्रभाष जोशी भी अपना लखटकिया पुरस्कार लेने आए। राजकीय अतिथि बन कर राजकीय विमान से। सपरिवार आए और राजभवन में ठहर कर मोती लाल वोरा का आतिथ्य स्वीकार किया। मायावती से लखटकिया पुरस्कार ले कर राजकीय विमान से ही वापस दिल्ली लौटे। वापस लौटने पर हफ़्ते भर के भीतर ही उन्हों ने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की गांधी समिति की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया। क्या तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती महात्मा गांधी को शैतान की औलाद कह रही हैं। ऐसे में गांधी समिति का सदस्य बने रहना उन के लिए संभव नहीं है। और कि वह इस का विरोध करते हैं।
यह क्या था?
पुरस्कार लेने के पहले भी आप विरोध कर सकते थे, पुरस्कार ठुकरा भी सकते थे आप। पर पुरस्कार ले लेने, राजकीय अतिथि का भोग लगा लेने के बाद ही आप को यह सूझा? जब कि यह विवाद पहले ही से गरम था। इधर के दिनों में उन पर ब्राह्मणवादी होने का आरोप गहरा गया था। हालां कि जब मैं मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि प्रभाष जोशी और तो बहुत कुछ थे पर ब्राह्मणवादी हरगिज नहीं थे। इस पर कागद कारे में उन्होंने सफाई भी दी थी। गो कि इस की ज़रूरत थी नहीं।
ख़ैर। तो बात बनवारी की हो रही थी। बनवारी जनसत्ता टीम में जाहिर है प्रभाष जोशी की पहली पसंद थे। सती प्रथा के समर्थन का जो दाग लगा प्रभाष जोशी पर उस के मूल में बनवारी का लिखा संपादकीय ही था। बनवारी का लिखा यह संपादकीय चर्चा में आ गया और प्रभाष जोशी समेत जनसत्ता भी। तब इस का खूब विरोध हुआ था। पर जोशी जी नहीं झुके तो नहीं झुके। कई लेखकों ने तब बाक़ायदा हस्ताक्षर अभियान चला कर जनसत्ता का न सिर्फ़ बहिष्कार करने का आह्वान किया बल्कि जनसत्ता में नहीं लिखने का भी फ़ैसला किया। जोशी जी तब भी नहीं डिगे तो इस लिए भी शायद कि इस नाते अख़बार खूब चर्चा में बना रहा था बहुत दिनों तक। जोशी जी के न झुकने का मिजाज तो बहुतेरे लोग जानते थे। पर एक सामाजिक कुप्रथा को ले कर अड़ जाने पर लोग अचरज में थे। पर मैं नहीं था। क्यों कि मुझे याद था कि जनसत्ता के शुरुआती दिनों की मीटिंग में जोशी जी राजस्थान पत्रिका के अचानक उछाल पाने की चर्चा करते नहीं अघाते थे। और बताते थे कि राजस्थान पत्रिका ने अपने शुरुआती दिनों में एक चर्चा चलाई कि परिवार नियोजन के चलते तमाम लोग जो मनुष्य योनि में पैदा नहीं हो पा रहे हैं और ऊपर ही लटके पड़े हैं, उन का क्या होगा? यह चर्चा ज़ोर पकड़ गई। खुली बहस में पाठकों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और राजस्थान पत्रिका अख़बार न सिर्फ़ चल पड़ा बल्कि छा गया राजस्थान में तब। तो शायद जोशी जी के मन में यह मनोविज्ञान भी कहीं गहरे बैठा रहा होगा और सती प्रथा जैसी कुप्रथा के भी महिमामंडन में लगे रहे।
तो क्या यह सिर्फ़ राजस्थान पत्रिका द्वारा चलाई गई बहस कि परिवार नियोजन के चलते जो लोग मनुष्य योनि में नहीं पैदा हो पा रहे हैं, उन का क्या होगा? वाली बहस का मनोविज्ञान भर ही था? शायद पूरी तरह नहीं। बहुत कम लोग जानते हैं कि जनसत्ता छपने के साल भर के भीतर ही बनवारी प्रभाष जोशी से रूठ गए थे। बुरी तरह रूठ गए थे। हुआ यह कि बनवारी की लिखी एक संपादकीय में जोशी जी ने कुछ बदलाव कर दिए। दूसरे दिन बनवारी दफ़्तर नहीं आए। उन का इस्तीफ़ा आया। जोशी जी हिल गए। उन को यह कतई अंदाज़ा नहीं था कि उन का एक सहायक संपादक जिस को कि वह चाहते भी बहुत थे, एक संपादकीय में बदलाव को ले कर इतना खफा हो जाएगा कि इस्तीफ़ा दे जाएगा। उन्हों ने बहुत मनाया, समझाया बनवारी को। पर वह हरगिज़ तैयार नहीं हुए दफ़्तर आने को। बनवारी का कहना था कि अगर मेरी लिखी संपादकीय आप को पसंद नहीं थी तो आप संपादक थे, आप उसे रोक सकते थे। पर आप ने तो उस को बदल दिया। बात ही बदल दी और मुझे सूचित तक नहीं किया। जोशी जी सपत्नीक बनवारी के घर गए। उन को मनाने। बनवारी फिर भी नहीं माने। वे दिन बड़ी मुश्किल के थे। इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी। देश में और दिल्ली में भी दंगे बढ़ते जा रहे थे। दिल्ली में कर्फ्यू था। और बनवारी जो तब न सिर्फ़ प्रभाष जोशी के दिल के क़रीब रहते थे, जनसत्ता दफ़्तर से भी सब से क़रीब रहते थे, मिंटो रोड पर, वह ही नहीं आ रहे थे। कर्फ्यू और दंगे के चक्कर में डेस्क के कुछ सहयोगी दफ़्तर नहीं आ पा रहे थे। दिल्ली सेना के हवाले थी। सेना के लोग प्रेस का मतलब समझना ही नहीं चाह रहे थे। एक रात दफ़्तर से घर लौट रहे कुछ सहयोगियों को सेना के जवानों ने पकड़ लिया। दफ़्तर की जिस कार से सहयोगी जा रहे थे, उस कार के नाम तो कर्फ्यू पास था, पर कुछ सहयोगियों के पास नहीं। बस इतना काफी था। जवान किसी की बात सुनने को तैयार नहीं थे। सभी धर लिए गए। तब मोबाइल का ज़माना भी नहीं था। बहुत दौड़ धूप के बाद दूसरे दिन लोग छूट पाए थे। तब जोशी जी खुद जनरल डेस्क पर घंटों जमे रहते थे। किसी सब एडीटर की तरह ख़बरें छांटते, बीनते, बनाते हुए। ख़ैर, दंगा बीत गया, कर्फ्यू बीत गया पर बनवारी नहीं आए। पर जोशी जी उन को मनाना नहीं भूले। अंततः बनवारी मान गए। दफ़्तर आने लगे। जोशी जी की पुलक तब देखने लायक़ थी।
यह प्रभाष जोशी का बड़प्पन भी था। मैं ने कई संपादकों के साथ काम किया है। जिन में अरविंद कुमार, प्रभाष जोशी और वीरेंद्र सिंह को मैं दुर्लभतम संपादकों में गिनता हूं। कुछ मूर्ख, जाहिल, साक्षर, गधे और दलाल टाइप रीढ़हीन संपादकों के साथ भी काम करने का दुर्भाग्य मिला है। तमाम और भी अच्छे संपादकों से भी लगातार बाबस्ता रहा हूं। जैसे रघुवीर सहाय, कमलेष्वर, मनोहर श्याम जोशी, कन्हैयालाल नंदन, रवींद्र कालिया। अरविंद कुमार जो टाइम्स आफ इंडिया की हिंदी फ़िल्म पत्रिका माधुरी के संस्थापक संपादक हैं, 16 साल तक माधुरी निकालने के बाद सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के भी संस्थापक संपादक वह हुए। सर्वोत्तम में ही उन के साथ काम किया। बाद में वह हिंदी थिसारस के लिए जाने गए। अरविंद जी को मैं उन की विद्वता, सरलता और काम सिखाने की विह्वलता में उदारता के लिए याद करता हूं। वीरेंद्र सिंह स्वतंत्र भारत लखनऊ के संपादक थे। रीढ़ के पक्के थे। प्रबंधन या सत्ता के आगे कभी झुके नहीं। और ऐसा कोई विषय नहीं था जिस के बारे में उन्हें जानकारी न हो, खेल, फ़िल्म, साहित्य, राजनीति से ले कर खगोलशास्त्र तक में वह निपुण थे। लेकिन प्रभाष जोशी अकेले मिले जो अपने आप में एक चलता फिरता अख़बार थे। एक साथ क्रिकेट से शास्त्रीय संगीत तक पर लिखते थे। दूसरे, जब ज़्यादातर संपादक रिपोर्टरों को दोयम दर्जे का मानते रहे तब भी प्रभाष जोशी रिपोर्टरों को अव्वल दर्जे का मानते थे। वह कहते थे कि रिपोर्टर हमारी भुजा हैं। हमारी भुजा जो कमजोर होगी, तो हम भी कमजोर होंगे। अख़बार कमजोर होगा। इस लिए रिपोर्टर को मज़बूत करिए, आप मज़बूत होंगे, अख़बार मज़बूत होगा। ऐसा डेस्क पर आ कर वह अकसर कहा करते। आलोक तोमर तब यों ही नहीं स्टार हो गए थे। प्रभाष जोशी अकेले ऐसे संपादक मिले मुझे जिन्हें मैं ने देखा कि जब वह दफ़्तर आते तो बाक़ायदा पीली पर्ची पर लिख कर डेस्क को भेजते कि फला ख़बर पर बाइलाइन क्यों नहीं है? वह तो कहते कि अगर रुटीन ख़बर भी रिपोर्टर ने ट्रीट की है तो उसे बाइलाइन दी जानी चाहिए। भले वह प्रेस कांफ्रेंस भी क्यों न हो? एक दिन में दो ख़बर पर भी जो बाइलाइन देनी पड़े तो दीजिए! रिपोर्टरों से भी वह कहते कि आप अपने को रुटीन ख़बरों में मत उलझाइए। वह तो एजेंसी से मिल जाएगी। आप एक्सक्लूसिव ख़बर भेजिए। उन के पास जो कोई यह शिकायत भी ले कर आता कि आप का फला रिपोर्टर मुझे ब्लैकमेल कर रहा है! तो वह छूटते ही पूछते कि वह तो ग़लत कर ही रहा है, पर आप बताइए कि आप ब्लैकमेल हो क्यों रहे हैं? और जो रिपोर्टर के खि़लाफ ज़रा भी कुछ मिल जाता तो वह उसे भी बख्शते नहीं थे। वह चाहे आलोक तोमर रहे हों या राकेश कोहरवाल। रास्ता दिखा दिया। अब तो तमाम संपादकों को अख़बार मालिकों और उन के बच्चों के चरण चूमते-चाटते देखता हूं। पर मैं ने ही क्या बहुतों ने विवेक गोयनका को बार-बार प्रभाष जोशी के पीछे-पीछे चलते देखा है जब कि रामनाथ गोयनका के वह बगल में चलते थे। और जी हूजूरी भी करते किसी ने नहीं देखा उन को। उलटे विवेक गोयनका को मैं ने जोशी जी की मनुहार करते भी देखा है। और जोशी जी हर बार मान ही गए हों ऐसा भी नहीं था।
शुरू के दिनों में जोशी जी जब जनसत्ता संपादकीय विभाग में आते तो सहयोगियों से लगभग आह्वान करते हुए आते, ‘ख़बर छोटी, ख़बर ज़्यादा।’ पर लाख कोशिश के बावजूद ख़बर तो ज़्यादा ज़रूर हो जाती थी, छोटी नहीं हो पाती थी। कारण यह था और अख़बारों की अपेक्षा जनसत्ता अख़बार का पेट कहीं ज़्यादा बड़ा था। ख़बरें ज़्यादा खाता था यह अख़बार। क्यों कि अख़बार में विज्ञापन नाम मात्र का होता। कई बार नहीं भी होता। यह एक बड़ी प्रबंधकीय चूक थी। पर खामियाजा लांग रन में अंततः जनसत्ता को उठाना पड़ा। हुआ यह कि जनसत्ता का संपादकीय स्टाफ़ तो जैसे और जितना जोशी जी ने चाहा रखा। पर बाक़ी विज्ञापन, प्रसार तथा अन्य कार्यों के लिए वह इंडियन एक्सप्रेस के स्टाफ पर निर्भर हो गए। दिक़्क़त यह थी कि इंडियन एक्सप्रेस कुल मिला कर एक अंगरेजी सेट-अप वाला संस्थान था। वहां हिंदी की बढ़ती खुशबू को अंगरेजी सेट-अप में जीने वालों ने बर्दाश्त नहीं किया। पता नहीं सब कुछ देखने और समझने वाले प्रभाष जोशी इस चूक और इस छेद को क्यों नहीं देख पाए। विज्ञापन के लिए इंडियन एक्सप्रेस की अंगरेजीदां लड़कियां फ़ील्ड में जातीं तो इंडियन एक्सप्रेस के लिए तो विज्ञापन लातीं साथ में फाइनेंसियल एक्सप्रेस के लिए भी। पर वह हिंदी अख़बार जनसत्ता के लिए भूल जातीं। सरकारी विज्ञापनों में भी मैनेजर लोग जनसत्ता के लिए कुछ ख़ास मैनेज नहीं कर पाते थे। हां, अख़बार का सरकुलेशन इस सब के बावजूद अपनी शान और रफ़्तार पर था। क्यों कि उस में जनता की धड़कन थी। एक रिश्ता था। सरोकार का रिश्ता। पर यह शान और रफ़्तार भी ज़्यादा दिनों तक बरकरार नहीं रह पाई। तो भी उन दिनों जोश था हिंदी पट्टी में जनसत्ता पढ़ने का, गुनने का और बुनने का।

मुझे याद है जोशी जी ने एक बार मीटिंग में सभी सहयोगियों से जनसत्ता के लिए एक-एक स्लोगन लिखने के लिए कहा। कहा कि कवितामय होना चाहिए। सभी ने बड़े उत्साह से लिखा। पर जनसत्ता का स्लोगन बना कुमार आनंद का लिखा हुआ स्लोगन ‘सब की ख़बर ले, सब को ख़बर दे!’ जोशी जी को सब से ज़्यादा यही पंसद आया। और दिल्ली शहर सहित देश में भी तमाम होर्डिंग्स पर या विज्ञापनों में यही स्लोगन फहराया। सचमुच जनसत्ता तब सब की ख़बर ले, सब को ख़बर दे का पर्याय बन गया था। तब के दिनों में देश का हर खासो-आम जनसत्ता में अपनी आवाज़, अपना अक्स देखता था। और माफ कीजिए जनसत्ता मतलब तब रामनाथ गोयनका का या एक्सप्रेस ग्रुप का अख़बार भर नहीं, प्रभाष जोशी के अख़बार के रूप में लोग जानते थे। यह बहुत बड़ी परिघटना थी हिंदी पत्रकारिता में। किसी अंगरेजी संस्थान में हिंदी की तूती इस तरह बजी कि न भूतो न भविष्यति। वो जो कहते हैं न कि आंख अपना मजा चाहे है, दिल अपना मज़ा! तो खासियत यह भी थी कि जनसत्ता एक साथ अख़बार और पत्रिका दोनों का मज़ा एक साथ देता था तब। ख़ास ख़बर और खोज ख़बर पन्ने के मार्फ़त देश भर की जनपदीय पत्रकारिता से जुड़ने का यह दुर्लभ संयोग था। जिस में संवाददाता के अलावा भी कोई कैसी भी लेकिन प्रामाणिक ख़बर लिख कर छप सकता था। छपते ही थे लोग। दरअसल सचाई यह थी कि कलकत्ता से छपने वाली पत्रिका रविवार ने हिंदी पत्रकारिता में जो तेवर; जो रवानी रोपी थी, उसी रवानी और उसी तेवर को जनसत्ता ने परवान चढ़ाया।
बहुत कम लोग इस बात को संजो कर याद कर पाते हैं कि हिंदी पत्रकारिता में दरअसल अंगरेजी के एम.जे. अकबर का बहुत बड़ा योगदान है। तब के दिनों वह भारतीय पत्रकारिता में सब से यंगेस्ट एडीटर कहलाए थे। आनंद बाज़ार पत्रिका ग्रुप के अंगरेजी साप्ताहिक संडे का एडीटर बन कर। हिंदी में रविवार भी एम.जे. अकबर की ही परिकल्पना थी। वह खुद इलस्ट्रेटेड वीकली से गए थे। तो जब रविवार की बात हुई तो वह धर्मयुग से सुरेंद्र प्रताप सिंह, उदयन शर्मा सरीखों को भी ले गए। मेला के लिए धर्मयुग से योगेंद्र कुमार लल्ला को। हिंदी में तब दिनमान पत्रिका थी ज़रूर पर अंगरेजी अनुवाद के जूठन से अटी और रघुवीर सहाय के ठसपने से सटी पड़ी थी। रविवार ने अंगरेजी अनुवाद और ठसपने से हिंदी पत्रकारिता को लगभग मुक्त करने की पहल की थी। और जनसत्ता ने प्रभाष जोशी के नेतृत्व में इस को ले कर हल्ला बोल दिया। चिंगारी शोला बन गई और हिंदी पत्रकारिता में एक नया बिरवा रोप गई। प्रभाष जोशी के संपादन और उन की भाषा ने एक नई चमक उपस्थित की हिंदी पत्रकारिता में। जिसे अभी तक फिर से दुहराया नहीं जा सका। हिंदी पत्रकारिता में भाषा और समाज को बदलने का वह उफान, वह इबारत प्रभाष जोशी के बाद फिर कोई नहीं रच पाया वह उफान, नहीं लिख पाया कोई नई इबारत! प्रभाष जोशी इसी लिए हमारे लिए सैल्यूटिंग हो जाते हैं। और सिर्फ़ इसी लिए भर नहीं कारण और भी बहुतेरे हैं कि प्रभाष जोशी को हम सदा-सर्वदा सैल्यूट करते रहें। उन की कुछ ज़िद, कुछ तानाशाही, कुछ हिप्पोक्रेसी और कुछ नापसंदगी को दरकिनार कर दें तो प्रभाष जोशी के पास इतने सारे प्लस हैं, इतने सारे अवयव हैं, इतने सारे काम हैं कि उन्हें सिर्फ़ हिंदी पत्रकारिता में ही नहीं, भारतीय पत्रकारिता में भी बार-बार याद किया जाएगा। मैं पाता हूं कि जीते जी तो वह किसी खोह में नहीं ही थे, मरने के बाद भी किसी खोह में नहीं जाएंगे। वह जब जीवित थे तब अकसर कबीर को कोट करते हुए कहते थे, ‘जंह बैठे तंह, छांव!’ और सच ही कहते थे।
उन का कालम कागद कारे संभवतः इकलौता कालम है जो इतने लंबे समय तक कोई 17 साल तक लगभग अविराम लिखा गया। बाई पास के बावजूद अस्पताल से भी वह कागद कारे लिखते ही रहे। इतनी संलग्नता, इतनी जीवटता मैं ने किसी और कालमिस्ट में नहीं देखी, नहीं पाई। ख़ास कर ऐसे समय में जब अपने देश का एक प्रधानमंत्री बाई पास के लिए गणतंत्र की परेड छोड़ देता है। पर प्रभाष जोशी मरते हुए भी अपना कालम नहीं छोड़ते। सच कहना नहीं छोड़ते। सोचिए कि प्राण त्यागने की घड़ी आ पहुंची है और वह कागद कारे भेज रहे हैं इस की सूचना जनसत्ता में भेजना नहीं भूलते। यह प्रभाष जोशी ही कर सकते थे। बीच में उन के कागद कारे में जब उन की माता जी, भेन जी यानी पत्नी ज़्यादा आने लगीं, या क्रिकेट ज़्यादा छाने लगा तो लोग उबने लगे कागद कारे से। पर जल्दी ही वह पारिवारिक प्रसंगों और क्रिकेट के ताप को बिसार कर कारे कागद को तोप मुकाबिल बना बैठे। कागद कारे पढ़ना अनिवार्यता बन गया लोगों के लिए। कभी प्रभाष जोशी हिंदी में शब्दों के दुरुपयोग और अज्ञानता के बोझ से उबारने के लिए ‘सावधान पुलिया संकीर्ण है’ जैसे लेख लिखा करते थे। राजनीति और समाज के चौखटे तो उन के नियमित लेखन के हिस्से थे। कई बार वह लामबंद भी हुए। पर इधर पत्रकारिता में बढ़ते नरक को ले कर, व्यूरो को नीलाम होने से ले कर, विज्ञापन को ख़बर बना कर छापने को ले कर जिस तरह और जिस कदर टूट पड़े थे, हल्ला बोल रहे थे, किसी एक्टिविस्ट की तरह वह हैरतंगेज भी था, लोमहर्षक भी। इस उम्र और तमाम बीमारियों के बावजूद उन के जीवट होने का तर्क भी। कभी विनोबा के साथ मिल कर जमींदारों से भूदान करवाया था, कभी चंबल के डाकुओं का आत्मसमर्पण कराने में उन्होंने जे.पी. का सहयोग किया था, इमरजेंसी में लोकतंत्र बहाली का आंदोलन चलाया था, अब वह पत्रकारिता के डाकुओं का आत्मसमर्पण करवाने की मुहिम में लग गए थे। मीडिया में लोकतंत्र बहाली की लड़ाई लड़ रहे थे, कि देश में लोकतंत्र तभी बचेगा जब मीडिया बचेगा। वह जल रहे थे और पूरा देश घूम-घूम कर एक किए थे इस ख़ातिर। अख़बारों में उन के इन भाषणों की रिपोर्ट नहीं छपती थी। तो भी वह अलख जगा रहे थे जिस की गूंज उन के कागद कारे के साथ ही इंटरनेट के तमाम पोर्टलों और ब्लागों पर लगातार सुनाई देती थी।
एक समय प्रभाष जोशी पंजाब में भिंडरांवाला की करतूतों के खि़लाफ सिलसिलेवार लिख रहे थे। तकरीबन हर हफ़्ते। पहले पेज से ले कर संपादकीय और रविवारीय पेज तक पर। तब कुछ सहयोगी उन्हें दबी जबान हिंदू भिंडरांवाला कहते। पर वह इस सब की परवाह किए बिना जैसे भिंडरांवाला और उस के आततायियों की गोलियों का जवाब अपनी कलम से ताबड़तोड़ देते रहते थे। और इन दिनों जब वह ख़बरों को बेचने के खि़लाफ ताबड़तोड़ हल्ला बोल रहे थे तो भी उन ताकतों पर कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ रहा था तो मुझे जाने क्यों कई बार लगा कि इस महाभारत में प्रभाष जोशी विदुर की भूमिका में आ गए हैं। कोई कौरव उनकी सुन नहीं रहा था, पांडव अद्भुत रूप से अनुपस्थित थे और वह लगातार ख़बरों की पवित्रता का आलाप लगा रहे थे, अजान कर रहे थे, घंटा-घड़ियाल बजा रहे थे। लेकिन उन की नमाज, या पूजा में कोई कौरव शामिल होने के लिए उन की आवाज़ सुनने को भी तैयार नहीं दिखा, शामिल होना तो बड़ी दूर की कौड़ी थी। तो भी जोशी जी के जोश में कभी कमी नहीं दिखी।
बीते साल 26 नवंबर को लोगी टी.वी. पर क्रिकेट मैच देख रहे थे और मुंबई में समुद्री रास्ते से आतंकवादी घुस आए थे और मुंबई में कई जगह सिलसिलेवार हमला बोल दिया था। कागद कारे में प्रभाष जोशी ने उस क्रिकेट मैच को कोसा था। क्यों कि समुद्र किनारे किसी मजदूर बस्ती की एक औरत ने बयान दिया था न्यूज़ चैनलों पर कि पूरी बस्ती में लोग अपने-अपने घरों में क्रिकेट मैच देख रहे थे इस लिए आतंकवादियों को जाते किसी ने नहीं देखा। प्रभाष जोशी को पहली बार क्रिकेट मैच को कोसते पाया था। तब भला क्या जानता था कि क्रिकेट मैच के हार के ग़म में ही वह विदा भी हो जाएंगे। पूछना चाहता हूं उन से कि हे प्रभाष जोशी, देश में क्या और समस्याएं कम थीं आप को मारने के लिए या आप को हिलाने के लिए, आप के पेस मेकर को बंद करने के लिए जो आप क्रिकेट जैसे टुच्चे खेल की हार की ग़म में निसार हो गए! अगर यह सच है तो! अरे जाना ही था तो इस ख़बर बेचने की पूंजीपतियों की रवायत पर जाते, मंहगाई पर जाते, किसानों की आत्महत्या पर जाते सरकार और समाज के लगातार अमरीकापरस्त होते जाने के विरोध में जाते, जातीयता या क्षेत्रीयता के बढ़ते दबाव के प्रतिरोध में जाते! पर आप भी! आप का आत्म वृत्तांत ओटत रहे कपास अब कौन लिखेगा?
जाने क्यों कई बार लगता है कि जैसे उन्हें अपने जाने का एहसास हो गया था। जैसे अब वह अपने सभी कामों को समेट रहे थे। एक इंटरव्यू में कागद कारे का जिक्र करते हुए उन्हों ने कहा था कि 75 की उम्र तक सब निपटा दूंगा। 75 के बाद कोई लिखना नहीं।
इसी लिए मैं ने शुरू में लिखा कि नर्मदा के किनारे प्रभाष जोशी की देह नहीं जली है, मैं ही जल गया हूं। मेरी कलम में उन के हाथ सांस ले रहे हैं। तो यह यों ही नहीं लिख दिया है भावुकता में बह कर। महात्मा गांधी ने कहीं लिखा है कि, ‘महापुरुषों का सर्वश्रेष्ठ सम्मान हम उन का अनुकरण कर के ही कर सकते हैं।’ तो प्रभाष जोशी भारतीय पत्रकारिता के महापुरुष थे, इस में कोई शक नहीं। हम उन का अनुकरण कर अपनी कलम में उन के हाथों की सांस भर सकते हैं। मैं ही क्यों तमाम-तमाम लोग जो उन के चाहने वाले हैं कर सकते हैं। कहते हैं कि हर बाप की मौत में बेटे की मौत होती। बेटा परंपरा है, सफर करता रहता है! इसी लिए फिर दुहरा रहा हूं कि प्रभाष जोशी नहीं जले नर्मदा किनारे, हम जले हैं, प्रभाष जोशी तो हम जैसे बहुतेरों में ज़िंदा हैं, ज़िंदा रहेंगे। क्यों कि प्रभाष जोशी तो न भूतो, न भविष्यति!
प्रभाष जोशी और रामनाथ गायेनका के संबंध हमेशा अपरिभाषित ही रहे। तो भी जैसे आज की तारीख़ में कोई प्रभाष जोशी को कोई कुछ कहे तो मैं समझता हूं कि सब से पहले कोई अगर कूद कर उन के बचाव में खड़ा होगा तो वह आलोक तोमर दीखते हैं। लाख किंतु परंतु के आलोक तोमर की प्रभाष जोशी के प्रति निष्ठा अतुलनीय है। और किसी से तुलना करनी ही पड़ जाए तो मैं हनुमान से करना चाहूंगा। प्रभाष जोशी की पसंदगी-नापसंदगी अपनी जगह आलोक तोमर की प्रभाष जोशी के प्रति हनुमान की तरह निष्ठा अपनी जगह। मुझे लगता है कि कुछ-कुछ प्रभाष जोशी भी रामनाथ गोयनका के प्रति आलोक तोमर की तरह ही निष्ठावान थे। गोयनका के खि़लाफ जोशी जी ने कभी चूं तक नहीं की। बल्कि कई बार वह राणा के चेतक की तरह गोयनका के इशारों को भाप लेते थे। गोयनका की इंदिरा गांधी से लड़ाई विख्यात थी। पर एक्सप्रेस बिल्डिंग के एक्सटेंशन मसले पर उन्हों ने राजीव गांधी से निगोशिएट किया यह भी छुपा नहीं है। फिर तो राजीव गांधी के लिए जो कसीदे लिखे जोशी जी ने वह कैसे भूला जा सकता है? राजीव लोंगोवाल समझौते से जो वह शुरू हुए तो बाद में राजीव गांधी के नाक-नक्श पर भी लिखने में गुरेज नहीं किए। पर बाद में जब बोफ़ोर्स को ले कर वी.पी. सिंह ख़ातिर लामबंदी में गोयनका उतरे तो प्रभाष जोशी के कलम की तलवार भी वी.पी. सिंह के पक्ष में खूब चमकी। वह वी.पी. सिंह के साथ गलबहियां डाले भी बार-बार देखे गए। चंद्रशेखर के दिनों में भी प्रभाष जोशी उन के साथ बार-बार देखे गए। वैसे भी गोयनका और चंद्रशेखर के संबंध जे.पी. के समय से ही फलीभूत थे। गरज यह कि गोयनका के चेतक थे ही थे जोशी जी। इतना कि उन के खि़लाफ वह एक शब्द भी नहीं सुन सकते थे।
एक बार एक मीटिंग में वह रामनाथ गोयनका की यशगाथा सुना रहे थे। मेरे मुंह से बरबस निकल गया कि, ‘चाहे जो हो, गोयनका भी अंततः बनिया ही हैं, पूंजीपति ही हैं।’ सुन कर जोशी जी व्यथित हो गए। और बड़ी देर तक वह मुझे समझाते रहे कि गोयनका कैसे बनिया नहीं है, कैसे पूंजीपति नहीं हैं। वह बताते रहे कि कैसे ब्रिटिश के खि़लाफ वह अख़बार निकालते थे मद्रास से। खुद ख़बर लिख कर कंपोज करते थे, खुद मशीन चला कर छापते थे, अंबेस्डर में लाद कर खुद बेचते थे। और कि इमरजेंसी में इंदिरा गांधी से कैसे तो उन्हों ने मोर्चा लिया और उन्हें नाको चने चबवा दिए। लोहे के चने। रामनाथ गोयनका के प्रति उन के मन में बहुत श्रद्धा थी। प्रभाष जोशी अपने प्रियजनों के निधन पर श्रद्धांजलि ही सही पर ज़रूर कुछ न कुछ लिखते ही थे। पर रामनाथ गोयनका के निधन पर उन्हों ने नहीं लिखा। आलोक तोमर ने एक बार उन से इस बारे में पूछा तो वह बोले, ‘आर.एम.जी मर गए हैं यह मैं आज तक स्वीकार ही नहीं पाया।’ तो क्या प्रभाष जोशी तभी मर गए थे? रामनाथ गोयनका उन में जीते थे? वैसे ही जैसे प्रभाष जोशी हम में से कइयों में जीते हैं और कि हम मर गए हैं कि जल गए हैं? पूछता हूं अपने आप से। कोई उत्तर नहीं मिलता। उम्मीद थी कि अपनी आत्मकथा ओटत रहे कपास में जोशी जी रामनाथ गोयनका की विस्तार से चर्चा करेंगे। पर अब यह बात भी जोशी जी की देह की तरह हम से बिला गई है। लेकिन हिंदी की पृथ्वी में प्रभाष जोशी नाम का सूर्य जो अपनी रोशनी में हमें नहला गया है वह रोशनी, वह सूर्य हिंदी की पृथ्वी में चमकता रहेगा। कोई बाज़ार, कोई सौदागर उसे लील नहीं पाएगा, हम से छीन नहीं पाएगा। जोशी जी अपन का भी आप से यह वादा है। और इस वादे में हम कोई अकेले नहीं हैं, हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे हैं। उस सूर्य की रोशनी, ऊष्मा और उस की सुन्दरता को सहेजने के लिए।

मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर आवारा पूंजी की स्वतंत्रता?



-अमलेन्दु उपाध्याय-

जब से जस्टिस मार्कण्डेय काटजू भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष बने हैं तभी से ‘मीडिया की स्वतंत्रता’ खतरे में है’ जैसे नारे जोर-शोर से सुनने में आ रहे हैं। इस नारे से ठीक वैसी ही प्रतिध्वनि का आभास होता है जैसा ‘हिंदुत्व खतरे में है’ या ‘इस्लाम खतरे में है’ जैसे नारों से होता है। पिछले रविवार ‘नेशनल ब्राॅडकास्टर्स एडिटर्स एसोसिएशन’ (एनबीईए) के महासचिव और जाने माने टेलिविजन पत्रकार एन.के. सिंह दिल्ली में प्रभाष परंपरा न्यास द्वारा आयोजित ”मीडिया पर मंडराता खतरा“ विषय पर आयोजित संवाद में मुख्य वक्ता के तौर पर उपस्थित थे जिसमें मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला।

बहुत मजबूती के साथ श्री सिंह ने अपनी बात रखी। राखी सावंत और नाग-नागिन का नाच दिखाने के लिए और जनपक्षधर खबरें न दिखाने के लिए मीडिया की आलोचना भी उन्होंने की। उन्होंने यह भी माना कि टीआरपी के दबाव में दूरदराज के क्षेत्रों और असली भारत की खबरों की मीडिया अनदेखी करता है। साफ शब्दों में उन्होंने यह भी माना कि संपादकों की तनख्वाहें लाखों रूपये महीना हैं इसीलिए सुख सुविधाओं की चाह और नौकरी जाने के भय में वे मालिकों के दबाव में रहते हैं और असली खबरों से मुंह मोड़ लेते हैं। इस सबके बावजूद उनका मानना था कि मीडिया खास तौर पर इलैक्ट्रोनिक मीडिया पवित्र गाय है और उस पर किसी भी तरह का बंधन या दबाव नहीं होना चाहिए और उसे आत्मनियमन का अधिकार होना चाहिए।

एन के सिंह ने बताया कि 1951 से आठ कानून ऐसे बने हुए हैं जिनके तहत कभी भी मीडिया की नकेल सरकार कस सकती है। उन्होंने चिंता जताई कि संसद में सभी राजनीतिक दल इस बात पर सहमत हैं कि मीडिया की नकेल कसी जाए, अदालतों का रुख मीडिया विरोधी होता जा रहा है और सबज्यूडिस मामलों पर रिपोर्टिंग को अदालतें बर्दाश्त नहीं कर रही हैं जबकि भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस मार्कण्डेय काटजू कांग्रेस को खुश करने के लिए मीडिया पर हमले कर रहे हैं।

हालांकि जब सवाल जबाव का दौर शुरू हुआ तो मौजूद पत्रकार साथियों के तीखे सवालों पर एन के सिंह निरुत्तर नज़र आए। अब यहां कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। सबसे पहला तो यही कि अगर जस्टिस काटजू कांग्रेस को खुश करने के लिए मीडिया (यहां मीडिया का अर्थ इलैक्ट्रोनिक मीडिया ही समझा जाए क्योंकि बहस उसी पर केंद्रित थी) पर नियंत्रण की बात कर रहे हैं तो औसत बुद्धि का व्यक्ति भी यह सहज प्रश्न कर सकता है कि एन के सिंह या इलैक्ट्रोनिक मीडिया के साथी गंभीर सवालों को दरकिनार कर कांग्रेस को केंद्र में लाकर किसको खुश करने का एजेण्डा चला रहे हैं?

बहस के दौरान श्री एन के सिंह के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था कि उन्हें मीडिया पर असल खतरा किससे है? जस्टिस काटजू से, कांग्रेस से, संसद से, न्यायपालिका से या जनता से? यहीं सवाल खड़ा होता है कि जब 1951 से आठ कड़े कानून अस्तित्व में हैं जिनसे मीडिया का गला घोंटा जा सकता है तो मीडिया पर खतरा अचानक कहां से आ गया, यह खतरा तो 1951 से मौजूद है? जाहिर सी बात है कि इलैक्ट्राॅनिक मीडिया अपनी हदें लांघ रहा है और पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों की धज्जियां उड़ा रहा है इसलिए आम जनमानस में उसके खिलाफ माहौल भी बन रहा है। फिर इन कानूनों ने अब तक प्रेस का कितना गला घोंटा है ? आपातकाल में भी जब प्रेस पर सेंसरशिप लगाई गई तब भी यह आठ कानून कहां खतरा बने?

एन के सिंह जी चाहते हैं कि कोई ऐसी गवर्निंग बाॅडी बने जो स्वायत्त हो और उसमें सरकार का हस्तक्षेप न हो बल्कि इलैक्ट्राॅनिक मीडिया के लोग ही उस संस्था में हों यानी वे ‘आत्मनियमन’ करें। यहां दो प्रश्न उभरते हैं। जब प्रिन्ट मीडिया के लिए प्रेस काउन्सिल आॅफ इण्डिया जैसी संस्था है तो इलैक्ट्राॅनिक मीडिया को कैसे खुली छूट दे दी जाए? एक तरफ श्री सिंह यह स्वीकार करते हैं कि संपादकों के ऊपर टीआरपी और मोटी तनख्वाहों के कारण दबाव रहता है ऐसे में अगर ‘आत्मनियमन’ का अधिकार उनके पास रहेगा तो इस बात की क्या गारंटी है कि टीआरपी और मालिकों के दबाव में इस आत्मनियमन की धज्जियां नहीं उड़ाई जाएंगी? यह चिंता इसलिए भी जायज है क्योंकि पिछले एक दशक में बहुत तेजी के साथ मीडिया के क्षेत्र में आवारापूंजी का दखल बढ़ा है, माफिया, बिल्डर और चिटफण्डिए किस्म के लोग मीडिया में पदार्पण कर रहे हैं। क्या ये लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के सही नुमाइंदे हैं?

आश्चर्य की बात यह है कि तर्क दिया जा रहा है कि स्टिंग आॅपरेशंस के लिए चैनलों को खुली छूट दे दी जाए और ‘मानहानि’ के आपराधिक मुकदमों से छूट दे दी जाए। पहली बात तो यही है कि स्टिंग को पत्रकारिता नहीं कहा जा सकता, वह तकनीक का खेल है और शुद्ध जासूसी है। फिर मानहानि के आपराधिक मुकदमों से छूट दे दी जाए तब तो उमा खुराना जैसे केस रोज होंगे। यानी इलैक्ट्राॅनिक मीडिया कुछ भी करता रहे उसे खुली छूट हो?

संवाद के दौरान ही जब यह सवाल उठा कि मीडिया के अंदर जबर्दस्त शोषण है और नेशनल ब्राॅडकास्टर्स एडिटर्स एसोसिएश्न इसके लिए क्या कदम उठा रही है, तो महासचिव महोदय निरुत्तर हो गए। मीडिया में स्ट्रिंगर्स का भयानक शोषण है, संपादक जी की तनख्वाह दो से तीन करोड़ रुपये सालाना है जबकि स्ट्रिंगर को मिलते हैं कुल 500 रुपये महीना बल्कि कई चैनल तो स्ट्रिंगर्स से कैमरा आदि के नाम पर जमानत राशि भी लेते हैं। डेस्क पर काम करने वाले पत्रकार साथी बौद्धिक मजदूर की श्रेणी में आते हैं जिनसे श्रम कानूनों के तहत दिन में छह घंटे ही काम लिया जा सकता है और उनसे काम लिया जा रहा है दस से बारह घंटे। लेकिन मीडिया की स्वतंत्रता का राग अलापने वाले एनबीईए के संपादकगणों ने कितने चैनलों में श्रम कानूनों का पालन करवाना सुनिश्चित किया है? ऐसे गंभीर प्रश्नों का बहुत ही मासूम सा उत्तर एन के सिंह ने दिया कि एनबीईए ट्रेड यूनियन नहीं है। यानी पत्रकारों का शोषण और उनकी स्वतंत्रता का मुद्दा मीडिया की स्वतंत्रता का प्रश्न नहीं है। जाहिर है ऐसे में मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर संपादकगण मीडिया घरानों की आवारा पूंजी की स्वतंत्रता चाहते हैं और उनका मीडिया की आजादी से कोई सरोकार नहीं है।

मीडिया तो अब काले धन की गोद में बैठ गई- ( बात निकली तो हर एक बात पर रोना आया कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया )


मीडिया के बाबत कुछ कहते हुए अब हिचक होती है। अब कुछ कहते हुए कलेजा कांपता है। पर सच है तो कहना भी ज़रुरी है। इस की तफ़सील बहुत सारी हैं पर जो एक लाइन में कहना हो तो कहूंगा कि मीडिया अब काले धन की गोद में बैठी है। मीडिया मतलब अखबार, चैनल, सिनेमा सभी। काले धन की जैसे हर जगह बाढ आ गई सी है। धरती बदली, पानी बदला, वायुमंडल बदला और यह मीडिया भी। पर्यावरण संतुलन सब का ही बिगड़ा है। पर इन सब की तुलना में मीडिया का पर्यावरण संतुलन बेहिसाब बिगड़ा है। कार्बन इतना इकट्ठा हो गया है कि मीडिया की सांस बची भी है कि नहीं कहना मुश्किल है। आक्सीजन समाप्त है यह भी तय है। इसी लिए मीडिया के सरोकार भी समाप्त हैं। सामाजिक सरोकार की जगह अब सिनेमाई सरोकार मीडिया में घर कर गए हैं। मीडिया में अब क्रिकेट, अपराध और राजनीति की छौंक के साथ सिनेमाई सरोकार की जुगलबंदी अपने चरम पर है।

हद तो यह है कि जो काम मीडिया को करना चाहिए था, अखबारों और खबरिया चैनलों को व्यापक तौर पर करना चाहिए था, वह काम अब मनोरंजन की दुनिया के आमिर खान कर रहे हैं, बरास्ता सत्यमेव जयते। हालां कि वह भी अंगुली कटवा कर शहीद बनने का ही उपक्रम कर रहे हैं। एक नई दुकान चला रहे हैं। लोग भूल गए हैं कि कि कभी यही काम दूरदर्शन पर एक समय कमलेश्वर अपने परिक्रमा कार्यक्रम के तहत बडी शिद्दत और तल्खी से कर गए हैं। लेकिन तब दूरदर्शन की या चैनलों की इतनी पैठ और पहुंच नहीं थी। फिर इसी काम को एक समय दूरदर्शन पर ही मन्नू भंडारी की स्क्रिप्ट पर बासु चटर्जी ने रजनी धारावाहिक नाम से किया। जिस में विजय तेंदुलकर की बेटी प्रिया तेंदुलकर आमिर खान वाली भूमिका में कहीं ज़्यादा तल्ख ढंग से समस्याओं को ले कर उपस्थित होती थीं। बाद के दिनों में मेट्रो दूरदर्शन पर एक समय विनोद दुआ परख पर ऐसे ही विषयों को ले कर थोडी मुलायमियत के साथ आते रहे थे। खबरिया चैनलों का तब न ज़माना था, न ऐसा आतंक। पर अपनी सीमाओं में सही लोग सरोकार से मुठभेड़ करते दिखते थे। हां, यह ज़रूर है कि आमिर खान की तरह कार्यक्रमों की इस तरह पैकेजिंग या मार्केटिंग कर करोड़ों रुपए कमाने की ललक में शायद नहीं ही थे यह लोग। आप जानते ही हैं कि प्रति एपिसोड आमिर खान तीन करोड़ लेते हैं सत्यमेव जयते कहने के लिए। अभी तक सब को करोड़पति बनने का सपना बेचने के लिए अमिताभ बच्चन प्रति एपीसोड डेढ़ करोड़ रुपया लेते रहे हैं। खैर। कुछ दूसरे मसलों पर ही सही एन. डी. टी.वी पर कभी-कभार रवीश कुमार भी जब-तब एक रिपोर्ट ले कर उपस्थित होते रहते हैं। जिस में कभी-कभार सरोकार झलक जाता है।

समूचे देश में शिक्षा और चिकित्सा आम आदमी से कैसे तो दूर हो गए हैं कि एक ईमानदार आदमी न तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकता है न अच्छी चिकित्सा पा सकता है। शिक्षा के नाम पर स्कूल और कालेज तथा चिकित्सा के नाम पर बडे या छोटे अस्पताल लूट के सब से बडे अड्डे बन गए हैं। पर किसी मीडिया या सरकार के पास इस की कोई कैफ़ियत या विरोध है भला? बल्कि इस लूट के अड्डों को यह सब मिल कर सुरक्षा देने में लग गए हैं।

एक समय मीडिया को प्रेस नाम से जाना जाता था। यह शब्द अंग्रेजी से आया था। हुआ यह कि पहले छपाई की जो प्रक्रिया थी वह दबा कर ही होती थी। मतलब प्रेस कर के। तो मान लिया गया कि प्रेस का काम दबाव बनाना है। और फिर प्रेस नाम देखते ही देखते लोकप्रिय हो गया। अंगरेजी, हिंदी हर कहीं प्रेस शब्द पॉपुलर हो गया। लेकिन बाद के दिनों मे मीडियम बढ़ते गए। लेखन, थिएटर, संगीत, पेंटिंग आदि माध्यम तो पहले ही से थे पर यह प्रेस के लिए नहीं वरन कला आदि के नाम पर जीवित थे। खैर, अखबार से बात आगे बढ़ी। रेडियो आ गया। सिनेमा आ गया। फिर टी.वी आ गया। अब वेब मीडिया भी आ गया है। इस वेब मीडिया के भी कई-कई रुप हो गए हैं। पोर्टल, वेबसाइट, ब्लाग, आर्कुट, फ़ेसबुक, ट्विटर आदि-इत्यादि। किस्सा कोताह यह कि अब प्रेस मीडिया के रुप में हमारे सामने उपस्थित है। और उस के 'प्रेस' का मिजाज और रंग अब उलटा हो चला है। पहले मीडिया लोगों पर दबाव बनाने के लिए जाना जाता था, अब मीडिया को हम विभिन्न दबाव में काम करते हुए देखते हैं। और उस के काम का जो हासिल है वह भी अब किस खाते में रखा जाए यह भी एक यक्ष प्रश्न है। अखबारों और चैनलों में काम करने की नित नई तकनीक ईजाद होती जा रही हैं। काम बहुत आसान होता जा रहा है। पर सामाजिक सरोकार शून्य हो गया है।

हमारे देश में एक-दो बहुत बड़े भ्रम हैं। जैसे कि हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है। जब कि नहीं है। कम से कम संवैधानिक हिसाब से तो बिलकुल नहीं। हमारे पास खेल से लगायत, पशु-पक्षी तक राष्ट्रीय हैं पर कोई एक राष्ट्रीय भाषा नहीं है। जाने कैसे कभी मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर या सोहनलाल द्विवेदी तक को राष्ट्रकवि का दर्जा दिया गया था। खैर इसी तरह का एक और बहुत बड़ा भ्रम है कि प्रेस हमारा चौथा स्तंभ है। जब कि सच यही है कि हमारे संविधान में किसी चौथा स्तंभ की कल्पना तक नहीं है। सिर्फ़ तीन ही स्तंभ हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। बस। चौथा खंभा तो बस एक कल्पना भर है। और सचाई यह है कि प्रेस हमारे यहां चौथा खंभा के नाम पर पहले भी पूंजीपतियों का खंभा था और आज भी पूंजीपतियों का ही खंभा है। हां, पहले कम से कम यह ज़रुर था कि जैसे आज प्रेस के नाम पर अखबार या चैनल दुकान बन गए हैं, कारपोरेट हाऊस या उस के प्रवक्ता बन गए हैं, यह पहले के दिनों में नहीं था। पहले भी अखबार पूंजीपति ही निकालते थे पर कुछ सरोकार, कुछ नैतिकता आदि के पाठ हाथी के दांत के तौर पर ही सही थे। पहले भी पूंजीपति अखबार को अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए ही निकालते थे, धर्मखाते में नहीं। पर आज?

आज तो हालत यह है कि एक से एक लुच्चे, गिरहकट, माफ़िया, बिल्डर आदि भी अखबार निकाल रहे हैं, चैनल चला रहे हैं और एक से एक मेधावी पत्रकार वहां कहांरों की तरह पानी भर रहे हैं या उन के लायजनिंग की डोली उठा रहे हैं। और सेबी से लगायत, चुनाव आयोग और प्रेस कौंसिल तक पेड न्यूज़ की बरसात पर नख-दंत-विहीन चिंता की झड़ी लगा चुके हैं। पर हालात मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की सरीखी हो गई है। नौबत यह आ गई है कि अखबार या चैनल अब काला धन को सफ़ेद करने के सब से बड़े औज़ार के रुप में हमारे समाज में उपस्थित हुए हैं। और इन काले धन के सौदागरों के सामने पत्रकार कहे जाने पालतू बन गए हैं। पालतू बन कर कुत्तों की वफ़ादारी को भी मात दिए हुए हैं यह पत्रकार कहे जाने वाले लोग। संपादक नाम की संस्था समाप्त हो चुकी है। सब से बुरी स्थिति तो पत्रकारिता पढ़ रहे विद्यार्थियों की है। पाठ्यक्रम में उन्हें गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी, पराड़कर, रघुवीर सहाय, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर आदि सरीखों की बात पढ़ाई जाती है और जब वह पत्रकारिता करने आते हैं तो गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी या पराड़कर, जोशी या माथुर जैसों की जगह राजीव शुक्ला, रजत शर्मा, बरखा दत्त, प्रभु चावला आदि जैसों से मुलाकात होती है और उन के जैसे बनने की तमन्ना दिल में जागने लगती है। अंतत: ज़्यादातर फ़्रस्ट्रेशन के शिकार होते है। बिलकुल फ़िल्मों की तरह। कि बनने जाते हैं हीरो और एक्स्ट्रा बन कर रह जाते हैं। सो इन में भी ज़्यादातर पत्रकारिता छोड़ कर किसी और रोजगार में जाने को विवश हो जाते हैं।

सोचिए कि नोएडा में देश के ज़्यादातर न्यूज़ चैनलों के दफ़्तर-स्टूडियो हैं। ढेर सारे अखबारों के दफ़्तर भी। पर एक समय इसी नोएडा में निठारी कांड हुआ था। लगातार दो साल तक बच्चे गायब होते रहे। अखबारों में, पुलिस में केस दर्ज होने के बाद छिटपुट छोटी-छोटी खबरें भी यदा- कदा उन की गुमशुदगी की छपती रहीं। पर लगातार बच्चे गायब होने के बावजूद किसी अखबार या चैनल ने इस खबर की पड़ताल करने की ज़रुरत नहीं समझी। इस लिए कि यहां से गरीबों के बच्चे गायब हो रहे थे और इन्हें पकी-पकाई खबर कोई फ़ीड नहीं कर रहा था। जब बच्चों के कंकाल मिलने शुरु हुए तब इस सो काल्ड मीडिया की नींद टूटी और यह बात खबर बनी। लेकिन तब तक जाने कितने घरों के चिराग और लाज उजड़ चुके थे। सोचिए कि समय रहते यह मीडिया अगर जाग गया होता तो कितने लाडले और बेटियां बच गई होतीं।

अभी बहुत दिन नहीं हुए कामनवेल्थ गेम में घपलों की फ़ेहरिस्त जाने हम लोगों को। ऐन दिल्ली की नाक के नीचे यह सब होता रहा, पर मीडिया के कान में जूं नहीं रेंगा। देश की लाज जाते-जाते बची। लेकिन यह घपले क्या समय रहते सामने आए? नहीं और बिलकुल नहीं। वह तो टाइम्स आफ़ इंडिया के व्यावसायिक हित सामने आ गए और सुरेश कलमाडी के हितों से टकरा गए। टाइम्स ग्रुप को कामनवेल्थ गेम की पब्लिसिटी का ठेका चाहिए था। कलमाडी ने आदतन सुविधा शुल्क मांग लिया और कुछ ज़्यादा ही मांग लिया। बात नहीं बनी। और टाइम्स ग्रुप नहा धो कर कलमाडी के पीछे पड़ गया। तो धीरे-धीरे सभी मीडिया को आना पड़ा। कलई खुल गई। नहीं अगर कलमाडी जो टाइम्स ग्रुप से बिना सुविधा शुल्क लिए उसे पब्लिसिटी का ठेका जो दे ही दिए होते तो क्या तब भी कामनवेल्थ घोटाला सामने आ पाया होता भला? कहना कठिन है। तिस पर तुर्रा देखिए कि अब कलमाडी ज़मानत पर जेल से बाहर हैं और ओलंपिक में जाने की दहाड़ ही नहीं मार रहे, खेल मंत्री की टोका-टाकी से भड़क कर अदालत की अवमानना की दुहाई दे कर खेल मंत्री माकन का इस्तीफ़ा भी मांग रहे हैं। और यह बेशर्म मीडिया उन का यह बयान तो दिखाता है पर कलमाडी से प्रति-प्रश्न करने की हैसियत में भी नहीं है। यह कौन सा मीडिया है?

दरअसल इस मीडिया को व्यावसायिकता के फ़न ने डस लिया है। चहुं ओर बस पैसा और पैकेज की होड़ मची है। मीडिया घरानों ने सामाजिक सरोकार की खबरों को जिस तरह रौंदा है और राजनीतिक और अफ़सरशाही के भ्रष्टाचार को जिस तरह परदेदारी की गिरह में बांधा है, वह किसी भी स्वस्थ समाज को अस्वस्थ बना देने, उसे मार डालने के लिए काफी है। यह जो चौतरफ़ा भ्रष्टाचार की विष-बेल लहलहा रही है तो यह आज की कारपोरेट मीडिया का ही कमाल है। नहीं इतने सारे अखबारों और चैनलों की भीड़ के बावजूद यह कैसे हो जाता है कि नीरा राडिया जैसी विष-कन्या न सिर्फ़ राजनीतिक हलकों, कारपोरेट हलकों में अपनी तूती बजाती फिरती है बल्कि मीडिया को भी कुत्ता बना कर लगातार पुचकारती फिरती है। प्रभा दत्त जैसी बहादुर पत्रकार की बेटी बरखा दत्त को भी दलाली की सिरमौर बना देती है। वह बरखा दत्त जिस की मां प्रभा दत्त खतरों से खेल कर 1971 के युद्ध में जा कर युद्ध की खबरें भेजती है। संपादक मना करता है युद्ध की रिपोर्ट पर जाने के लिए तो वह छुट्टी ले कर मोर्चे पर पहुंच जाती है रिपोर्ट करने। उसी प्रभा दत्त की बेटी बरखा भी कारगिल मोर्चे पर जा कर तोपों की गड़गड़ाहट के बीच बंकर में बैठ कर रिपोर्ट करती है और पद्मश्री का खिताब भी पाती है। पर जब नीरा राडिया के राडार पर बरखा दत्त आ जाती है तो बस मत पूछिए। वह शपथ के पहले ही मंत्रियों को उन का पोर्टफ़ोलियो भी बताने लग जाती है। इनकम टैक्स विभाग नीरा राडिया का फ़ोन टेप करता है देशद्रोह की शक में तो मामले कई और भी सामने आ जाते हैं। इनकम टैक्स विभाग बाकायदा प्रेस कांफ़्रेंस कर इस पूरे टेप के मायाजाल को अधिकृत रुप से जारी कर देता है। पर यह टेप किसी भी अखबार, किसी भी चैनल पर एक लाइन की खबर नहीं बनता। सब के सब जैसे आंख मूंद कर यह पूरी खबर पी जाते हैं। सब के अपने-अपने हित हैं। कोई अपने हितों से आखिर टकराए भी कैसे? तो यह क्या है? वेब मीडिया नीरा राडिया के टेप से भर जाता है पर मेन मीडिया कान में तेल डाले पड़ा रहता है। वो तो जब सुब्रमण्यम स्वामी इस मामले को ले कर सुप्रीम कोर्ट में सक्रिय होते हैं और सुप्रीम कोर्ट ए राजा आदि को जेल भेजती है तब मीडिया को लगता है कि कुछ हो गया है। कर्नाटक में, झारखंड में या कहीं भी लाखों करोड़ के घपले भी मीडिया को नहीं दिखते।

इन दिनों हो क्या गया है कि जब तक कोई अदालत या कोई जांच एजेंसी जब तक मीडिया को ब्रीफ़ न करे कोई घोटाला या मामला तब तक मीडिया के लिए कोई खबर नहीं होती। हालत यह है कि मीडिया अपने मालिकों के दबाव में है और मीडिया मालिक सरकारों के दबाव में हैं। जो मीडिया कभी सिस्टम पर दबाव बनाने के लिए मशहूर था, अब वही खुद सिस्टम के दबाव में है। नतीज़ा सामने है। राजनीति और पतित हो गई है, अदालतें बेलगाम हो गई हैं, अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और गरीब होता जाने के लिए दिन-ब-दिन अभिशप्त हो गया है। लगता ही नहीं कि हम किसी लोकतंत्रीय देश या संसदीय गरिमा के तहत जी रहे हैं। जिस की लाठी, उस की भैंस का माहौल बन गया है। लगता ही नहीं कि कानून और संविधान के राज में हम जी रहे हैं। संविधान और कानून तो अब जैसे सिर्फ़ मूर्खों और निर्बल के लिए ही रह गए हैं। देश अब चला रहे हैं माफ़िया, धनपशु और धर्म के ठेकेदार। अंबानी, मित्तल और टाटा की नीतियों से चल रहा यह देश जैसे उन और उन जैसों को और-और अमीर बनाने के लिए ही बना है। लोग भूखों मर रहे हैं तो उन की बला से, अनाज सड़ रहा है तो उन की बला से। मंहगाई बेलगाम हो गई है तो उन की बला से। उन को तो बस अपनी पूंजी और एकाधिपत्य के बढते जाने से ही मतलब है। और जो यह सब स्वच्छंद रुप से चल रहा है तो सिर्फ़ इस लिए कि मीडिया गुलाम हो गई है, माफ़िया की गोद में बैठ गई है। काले धन ने उसे डस लिया है। मीडिया में जो ज़रा भी रीढ़ शेष रही होती तो यह सब कुछ ऐसे और इस तरह तो नहीं ही होता।

मीडिया क्या है?


जैसे कोई हाथी हो और उस पर अंकुश हो। बस मीडिया व्यवस्था का वही अंकुश है। अंकुश है कि हाथी यानी व्यवस्था, यह सिस्टम मदमस्त न हो, अराजक न हो कि अपने ही लोगों को कुचल डाले। शीशा दिखाता रहे कि चेहरा काला है कि साफ। अब इसी भूमिका से मीडिया विरत है। इसी लिए अराजकता और दमन का माहौल हमारे सामने उपस्थित है। सिस्टम और सरकारों को मीडिया का यह रुप शूट करता है। कि उन के गलत को गलत न कहे मीडिया। इस बदलते दौर में शक्ति पुरुष कहिए, सत्ता पुरुष कहिए, ने मीडिया की भूमिका को राजा का बाजा बजा में सीमित कर दिया है। मीडिया की भूमिका अब बस राजा का बाजा बजाने, उन का गुण-गान करने तक सीमित कर दी गई है। वह चाहे उद्योग के राजा हों, राजनीति के राजा हों, क्रिकेट के राजा हों, सिनेमा के राजा हों, धर्म के राजा हों, योग के राजा हों, प्रशासन के राजा हों या किसी और फ़ील्ड के राजा। मीडिया को तो बस उन का गुण-गान करते हुए उन का बाजा बजाना ही है। वह चाहे दस-बीस लाख रुपया वेतन पा रहे हों, चाहे एक हज़ार रुपए वेतन पा रहे हों। काम सब का एक ही है। इसी लिए भ्रष्टाचार की खबरें दब जाती हैं। आती भी हैं कभी-कभार तो ऐसे जैसे कहीं दुर्घटना की खबर हो, दस मरे, बीस घायल के अंदाज़ में। बस बात खत्म। किसी दारोगा या एस.डी.एम के खिलाफ़ भी अब अखबारों में खबर छापने की कूवत नहीं रह गई है। अगर गलती से किसी खबर पर एक दारोगा भी सस्पेंड हो जाता है तो दिन भर ‘खबर का असर’ की पट्टी लहराती रहती है। अखबारों में भी यही आलम है। मंहगाई पर यह चैनल इस अंदाज़ में बात करते हैं गोया पिकनिक डिसकस कर रहे हों। अखबारों में भी मंहगाई की चर्चा ऐसे मिलती है गोया मोहल्ले की नाली जाम हो गई हो। कहीं भी मंहगाई के खिलाफ़ धावा या मुहिम नहीं दीखती। मंहगाई न हो गई हो लतीफ़ा हो गई हो। सरकार तो जब करेगी तब करेगी पर चैनल वाले साल भर पहले ही से पेट्रोल के सौ रुपए लीटर तक पहुंचने की हुंकार भर रहे हैं और अखबार वाले दुहरा रहे हैं। बताइए कि सात-आठ साल पहले भूसा आटा के दाम पर पहुंच गया, आटा दाल के दाम पर और दाल काजू-बादाम के भाव पहुंच गई। काजू-बादाम सोने के भाव पर और सोना हीरे के भाव पर पहुंच गया। सब्जियों में आग लग गई। प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री हर बार चार छ महीने में दाम के गिर जाने के अश्वासन पर आश्वासन देते रहे, पर दाम नीचे नहीं आए, ऊपर और ऊपर होते गए हैं। उलटे दूसरी तरफ़ कृषि मंत्री दूध से चीनी तक के दामों के बढ़ने से पहले ही अब इस के दाम बढ़ेंगे का ऐलान करते रहे। तो क्या कोई किसान या कोई दूधिया बहुत अमीर हो गया - इन अनाज, सब्जी, दूध के दाम बढ़ने से? हां, बिचौलिए ज़रुर अमीर हो गए। हां, किसानों की आत्महत्या की संख्या ज़रुर बढ़ती जा रही है। जनता टैक्स के बोझ से बेदम है और सरकार भ्रष्टाचार के बोझ से। और मीडिया है कि लाफ़्टर चैलेंज के बोझ से खिलखिला रहा है। लिखते रहें अदम गोंडवी जैसे शायर कि, 'सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं, दिल पर रख कर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है !........ पर यह न्यूज़ चैनल तो कामेडी सर्कस दिखा कर आप को हंसाएंगे ही। बताइए भला कि लाइसेंस है न्यूज़ चैनल का पर काम एंटरटेनमेंट चैनल का। न्यूज़ की जगह धारावाहिकों और फ़िल्मों का प्रमोशन, कैटरीना-सलमान के झगड़े, राखी सावंत के नखरे और बदतमीजियां दिखाने में, अमिताभ बच्चन या सचिन तेंदुलकर सरीखों के खांसने-छींकने की खबरों से लदे यह चैनल, सांप बिच्छू की शादी, कुत्ते और लड़की के फेरे, अपराध की खबरों का नाट्य रुपांतरण दिखाने वाले यह चैनल और अखबार समाज को कहां से कहां ले जा रहे हैं? क्यों नहीं इन चैनलों को लाइसेंस देने वाला सूचना प्रसारण मंत्रालय इस पर गौर करता? कि इन के पास न्यूज़ के अलावा सब कुछ है। पर नहीं है तो बस न्यूज़ नहीं है। आधी रात के बाद न्यूज़ के नाम पर फ़र्जी सामानों के अंध्विश्वासी विज्ञापन कथा के कलेवर में कैसे दिखाते हैं यह सारे के सारे चैनल? और जनता को कैसे तो लूटते हैं? कैसे तो रातो-रात निर्मल बाबा से लगायत, आसाराम बापू, स्वामी रामदेव जैसे लोगों की दुकान खडा कर इन्हें सेलीब्रेटी बना देते हैं? बताइए कि जब पूर्व राष्ट्रपति कलाम की तलाशी होती है अमरीकी एयरपोर्ट पर तो संक्षिप्त सी खबर आती है। लेकिन दो कौडी के एक एक्टर शाहरुख खान की वही तलाशी होती है तो जैसे चैनलों पर तूफ़ान बरपा हो जाता है। दिन भर वही खबर चलती रहती है। सचिन तेंदुलकर एक घर खरीदते हैं, उसे बनवाते हैं, अंबानी घर बनवाते हैं, अपनी पत्नी को जन्म-दिन पर जहाज भेंट करते हैं तो क्या यह आधा घंटा का कैप्सूल है इन न्यूज़ चैनलों को दिन भर दिखाने का? यह खबर है? सदी के महानायक बीमार हैं, या कहीं छीक-खांस रहे हैं, यह खबर है? दिन भर दिखाने के लिए? और यह जो ज्योतिष लोग बैठे हैं दुकान खोले? चैनलों के नाम पर जनता को छलते हुए? है किसी की नज़र इस पर?

अखबारों की गति और बुरी है। पैसा दे कर कोई कैसी भी न्यूज़ या विज्ञापन छपवा सकता है और जनता की आंख में धूल झोंक सकता है।

है कोई नीति नियंता? कोई नियामक?

प्रभाष जोशी पेड न्यूज़ के खिलाफ़ बोलते-बोलते पस्त हो गए। पर यह बेशर्म अखबार मालिकान पूरी बेशर्मी से उन की बात पर मुसकुराते रहे। अंतत: वह विदा हो गए। अब पेड न्यूज़ के खिलाफ़ कोई हल्ला बोलने वाला भी नहीं रहा। तमाम बयान आए, कमेटियां बनीं पर नतीज़ा वही ढाक के तीन पात। और अब तो पेड न्यूज़ बारहो महीने का खेल हो गया है। यह नहीं कि सिर्फ़ चुनाव के समय और सिर्फ़ राजनीतिक खबरों के ही बाबत। इस वक्त अगर किसी को कोई धोखाधड़ी करनी है तो वह मीडिया के कंधे पर ही बैठ कर करता है। वह चाहे धार्मिक धोखाधड़ी हो, राजनीतिक धोखाधड़ी या औद्योगिक धोखाधड़ी, सिनेमाई धोखाधड़ी या छोटी-मोटी धोखाधड़ी, सब कुछ मीडिया के ही कंधे पर बैठ कर संभव है। गोया मीडिया न हो धोखाधड़ी का प्लेटफ़ार्म हो, धोखाधड़ी का एयरपोर्ट हो, लाइसेंस हो धोखाधड़ी का। जिस की चौखट पर मत्था टेकते ही सारे काम हो जाते हैं। पब्लिसिटी से लगायत पर्देदारी तक के।

मीडिया का यह कौन सा चेहरा है?

गणेश शंकर विद्यार्थी जैसों की आहुति, शहादत क्या इन्हीं दिनों के लिए थी? ऐसा ही समाज रचने के लिए थी? कि काले धन की गोद में बैठ कर अपने सरोकार भूल जाएं? बताइए कि फ़ाइनेंशियल मामलों के दर्जनों चैनल और अखबार हैं। पर कंपनियां देश का कैसे और कितना गुड़-गोबर कर रही हैं है किसी के पास इस का हिसाब या रिपोर्ट? किस लिए छपते हैं यह फ़ाइनेंशियल अखबार और किस लिए चलते हैं यह फ़ाइनेंशियल चैनल? सिर्फ़ कंपनियों का गुड-गुड दिखाने के लिए? गरीब जनता का पैसा कंपनियों के शेयर और म्युचुअल फंड में डुबोने भर के लिए? क्या ये अखबार और चैनल सिर्फ़ चारा हैं इन कंपनियों की तरफ़ से और निवेशक सिर्फ़ फंसने वाली मछली? बताइए कि सत्यम जैसी कंपनियां रातों-रात डूब जाती हैं दीवालिया हो जाती हैं और इन फ़ाइनेंशियल कहे जाने वाले चैनल और अखबार में इस के पहले एक लाइन की खबर भी नहीं होती? सरकार कुछ नहीं जानती? एयर कंपनियां सरकारी हों या प्राइवेट रोज गोता खा रही हैं, इन अखबारों या चैनलों के पास है कोई रिपोर्ट कि क्यों गोता खा रही हैं? पेट्रोल के करोडों-करोड रुपए बकाया हैं सरकार पर। सरकार के पास है कोई ह्वाइट पेपर इस मसले पर? या कोई इस की मांग कर रहा है? तो किस लिए निकल रहे हैं यह अखबार, यह चैनल? समझना बहुत आसान है। पर कोई क्यों नहीं सोचना चाहता?

यह जो एक सेज़ की बीमारी चली है देश में उद्योगपतियों की सेहत को दिन दूना, रात चौगुना बनाने के लिए इस पर कुछ मेधा पाटकर टाइप एक्टिविस्टों को छोड दें तो इस की किसी मीडिया, किसी राजनीतिक दल या सरकार या किसी अदालत को है किसी किसिम की चिंता? नक्सलवादी हिंसा से निपटने में सरकार जितना पैसा खर्च करती है, उस का एक हिस्सा भी जो वहां के विकास पर खर्च कर देती सरकार तो वहां मासूम लोगों की खून की नदियां नहीं बहतीं। लेकिन इस बारे में भी हमारी मीडिया नि:शब्द है। यह और ऐसे तमाम मामलों में मीडिया गांधी के बंदर बन जाती है। न कुछ देखती है, न कुछ सुनती है, न कुछ बोलती है।

हां, इधर एक नए मीडिया का आगमन हुआ है। वेब मीडिया का। जिस की धड़कन में अभी सामाजिक सरोकार की हलकी सी ही सही धड़कन सुनाई देती है। कम से कम दो मामले अभी बिलकुल ताज़े हैं। जिन की लड़ाई लड़ कर इस वेब मीडिया ने फ़तह हासिल की है। वह भी सोशल साइट फ़ेसबुक के ज़रिए। एक अभिषेक मनु सिंघवी के मामले पर और दूसरे, निर्मल बाबा के मामले पर। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने न सिर्फ़ इन मामलों पर गांधी के बंदर की भूमिका निभाई बल्कि निर्मल बाबा को तो चैनलों ने ही पैदा किया। बरास्ता विज्ञापन। जैसे कभी आसाराम बापू और रामदेव या जाने किन-किन बाबाओं को खड़ा किया बरास्ता विज्ञापन। बताइए कि अब विज्ञापन तय कर रहे हैं कि हमारे सेलेब्रेटी कौन होंगे? अखबार और चैनल मालिकों की दलील है कि विज्ञापन ही उन का आक्सीजन हैं। विज्ञापन न हों तो उन का चलना मुश्किल है। यह कुतर्क उन का गले नहीं उतरता। पर उन से अब कोई सरकार या कोई एजेंसी या अदालत यह पूछ्ने वाली नहीं है कि ठीक है अगर विज्ञापन ही इतना ज़रुरी है तो बिना खबर के सिर्फ़ विज्ञापन ही छापें और दिखाएं। औकात मालूम हो जाएगी। हकीकत तो यही है कि लोग अखबार या कोई न्यूज़ चैनल खबर के लिए देखते-पढ़ते हैं, विज्ञापन के लिए नहीं। विज्ञापन भी एक ज़रुरी तत्व है, पर इतना भी ज़रुरी नहीं है कि आप पेड न्यूज़ पर उतर आएं, काले धन की गोद में बैठ जाएं। सरकार के पालतू कुत्ते बन जाएं। यह तो मुर्गी मार कर सोने के अंडे पाने वाली चालाकी हो गई। जो अंतत: मीडिया नाम की कोई चिड़िया भी थी के नाम से इसे इतिहास में दफ़न करने वाली कार्रवाई है। इसे जितनी जल्दी संभव बने सब को मिल कर इस बीमारी से छुट्टी लेनी ही होगी।

वास्तव में यह दौर मज़दूर विरोधी दौर है, लोकतंत्र के नाम पर हिप्पोक्रेसी का दौर है, ट्रेड यूनियन समाप्त हैं, पूंजीपतियों के मनमानेपन की कोई इंतिहा नहीं है। सब को वायस देने वाले पत्रकार अब खुद वायसलेस हैं। बताइए कि इतने सारे हाहाकारी चैनलों और अखबारों के बावजूद घोटालों पर घोटालों की जैसे बरसात है। पर किसी चैनल या अखबार में खबर जब मामला अदालत या सी.बी.आई जैसी किसी एजेंसी के ब्रीफ़िंग के बाद ही आधी-अधूरी सी क्यों आती है? पहले क्यों नहीं आ पाती? सलमान खान की माशूकाओं, उन की मारपीट की सुर्खियां बनाने वाले इस मीडिया जगत में आज भी कोयला घोटाले के बाबत एक भी खोजी खबर क्यों नहीं है?

मुझे याद है कि 1984 में हिंदुस्तान अखबार में बाज़ार भाव के पन्ने पर एक सिंगिल कालम खबर छपी थी सेना में जासूसी को ले कर। खबर दिल्ली के अखबार में छपी थी। पर लारकिंस बंधु की गिरफ़्तारी लखनऊ के लारेंस टैरेस से सुबह सात बजे तक उसी दिन हो गई थी। यह खबर लिखने वाले रिपोर्टर एस.पी. सिंह से इस बारे में जब पूछा गया कि खबर इतनी छोटी सी क्यों लिखी? तो वह तफ़सील में आ गए। और बताया कि पहले तो वह यह खबर लिखने को ही तैयार नहीं थे। पर सेना में उन के एक मित्र ने जब बहुत ज़ोर दिया तब उन्हों ने प्रमाण मांग कर खबर से कतराने की कोशिश की। लेकिन मित्र ने कहा कि चलो प्रमाण देने के लिए मुझे भी देशद्रोह करना पडे़गा, पर एक बडे़ देशद्रोह को रोकने के लिए मैं छोटा देशद्रोह करने को तैयार हूं। मित्र ने उन्हें सारे प्रमाण दे दिए। अब एस.पी. सिंह की आंखें चौधिया गईं। खैर बहुत सोच-समझ कर खबर लिखी। अब समाचार संपादक ने खबर रोक ली। खबर की संवेदनशीलता का तर्क दे कर। पर मित्र के दबाव के चलते वह समाचार संपादक के पीछे पडे़ रहे और बताया कि सारे प्रमाण उन के पास हैं। कोई पंद्रह-बीस दिन तक यह खबर इधर-उधर होती रही। और अंतत: कट-पिट कर वह खबर बाज़ार भाव के पन्ने पर उपेक्षित ढंग से एक पैरा ही छप पाई। पर यह एक पैरे की खबर भी आग लगा गई। और बड़े-बड़े लोग इस में झुलस गए। इंदिरा गांधी के बहुत करीबी रहे मुहम्मद युनूस तक लपेटे में आ गए। और उन्हें कोई राहत अंतत: मिली नहीं।

एस.पी.सिंह को इस का मलाल तो था कि खबर देर से, गलत जगह और बहुत छोटी छपी। पर वह इस बात से भी गदगद थे कि उन की खबर पर समाचार संपादक ने विश्वास किया और कि देश एक बडे़ खतरे से बच गया। मित्र की लाज भी रह गई। अब न एस.पी. सिंह जैसे रिपोर्टर हैं न वैसे अखबार। नहीं इसी हिंदुस्तान टाइम्स में जब खुशवंत सिंह संपादक बन कर आए तो के.के बिरला के साथ पहली मीटिंग में उन्हों ने कुछ मनपसंद लोगों को रखने और कुछ फ़ालतू लोगों को हटाने की बात कही। तो के.के. बिरला ने खुशवंत सिंह से साफ कहा कि रखने को आप चाहे जैसे और जितने लोग रख लीजिए पर हटाया एक नहीं जाएगा। यह बात खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में बड़ी साफगोई से लिखी है। और अब उसी हिंदुस्तान टाइम्स में क्या-क्या नहीं हो रहा है, लोगों को हटाने के लिए? हिंदुस्तान हो या कोई और जगह, हर कहीं अब एक जैसी स्थिति है। हर कहीं विसात ही बदल गई है। सरोकार ही सूख गए हैं।

एक समय मीडिया को वाच डाग कहा जाता था, अब यह वाच डाग कहां है? क्या सिर्फ़ डाग बन कर ही नहीं रह गया है? इस वाच डाग को आखिर डाग में तब्दील किया किस ने? आखिर डाग बनाया किस ने? स्पष्ट है कि संपादक नाम के प्राणी ने। मालिकों के आगे दुम हिलाने के क्रम में इतना पतन हो गया इस प्राणी का कि अब संपादक नाम की संस्था ही समाप्त हो गई। बताइए कि इंडियन एक्सप्रेस जैसा अखबार एक बे सिर पांव की खबर छाप देता है कि जनरल वी के सिंह दिल्ली पर कब्ज़ा करना चाहते थे और यह सारे चैनल बुद्धि-विवेक ताक पर रख कर दिन भर सेना की गश्त दिखा कर पूरे देश में पेनिक क्रिएट कर देते हैं। पर नीरा राडिया का टेप नहीं दिखा या सुना पाते! उत्तर प्रदेश जैसे कई और प्रदेशों में एनआरएचएम घोटाले के तहत करोड़ों की दवा खरीद कागज़ पर हो जाती है, आपरेशन थिएटर कागज़ पर ही बन जाते हैं, भुगतान हो जाता है, हत्याएं हो जाती हैं, पर इस बारे में कहीं कोई खबर पहले नहीं मिलती। मिलती है, जब सीबीआई या अदालत कुछ बताती या किसी को जेल भेजती है। यह क्या है?

तो जब आप देश की खबरों को, सरोकार की खबरों को व्यवस्था विरोध के खाने में डाल कर व्यवस्था के आगे दुम हिलाएंगे तो कोई एक एक्का-दुक्का खड़ा होगा इस के प्रतिरोध में और कि वह जो आप की तरह दुम नहीं हिलाएगा तो आप उस का गला दबा देंगे? हो तो यही गया है आज की तारीख में। पिछले दस-बारह वर्षों में जो भूत-प्रेत और कुत्तों-बिल्लियों, अंध विश्‍वास और अपराध की बेवकूफ़ी की खबरों से, दलाली की खबरों से समाज को जिस तरह बरगलाया गया है, जिस तरह समाज की प्राथमिकताओं को नष्ट किया गया है, खोखला किया गया है वह हैरतंगेज़ है। यकीन मानिए कि अगर मीडिया इस कदर भड़ुआ और दलाल न हुई होती तो इस कदर मंहगाई और भ्रष्टाचार से कराह नहीं रहा होता यह देश। राजनीतिक पार्टियां इतना पतित नहीं हुई होतीं। मीडिया के बदचलन होने से इस देश के अगुआ और उन का समाज बदचलनी की डगर पर चल पड़ा। जनता कीड़ा-मकोड़ा बन कर यह सब देखने और भुगतने के लिए अभिशप्त हो गई। अब बताइए कि एक औसत सी फ़िल्म आती है और मीडिया को पैसे खिला कर महान फ़िल्म बन जाती है। ऐसा इंद्रधनुष रच दिया जाता है गोया इस से अच्छी फ़िल्म न हुई, न होगी। अब लगभग हर महीने किसी न किसी फ़िल्म को यह तमगा मिल ही जाता है। विज्ञापनों का ऐसा कालाबाज़ार पहले मैं ने नहीं देखा।

यह मीडिया है कि भस्मासुर है?

नहीं बताइए कि मनरेगा से भी कम मज़दूरी में, एक रिक्शा वाले से भी कम मेहनताने में काम कर रहे मीडिया-जनों की वायस आखिर है कोई उठाने वाला भला? मणिसाना की सिफ़ारिशें तक लागू करवा पाने में सरकारी मशीनरी का तेल निकल जाता है और लागू नहीं हो पाता। किसानों के हित में भी न्यूनतम मूल्य सरकार निर्धारित करती है उन की उपज के लिए। पर मीडियाजनों के लिए न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं तय कर पाती यह सरकार या व्यवस्था। और ये मालिकान। मीडिया के नाम पर समाज के लिए जो लाक्षागृह रोज ही क्या हर क्षण बनाने में यह मीडिया अनवरत युद्धरत हैं। जो लगे हुए हैं फ़र्जी और अंधविश्वासी खबरों की खेप-दर-खेप ले कर, सांप और कुत्तों का व्याह आदि दिखा कर, अपराधों का नाट्य-रुपांतरण दिखा कर, अब यह देखिए और वह देखिए चिल्ला-चिल्ला कर, चीख-चीख कर, गोया दर्शक अंधे और बहरे हों, दो लाइन की खबर दो घंटे में किसी मदारी की तरह मजमा बांध कर खबरें दिखाने का जो टोटका इज़ाद किया है न और इस की आड़ में सरोकार की खबरों को मार दिया है, भ्रष्टाचार की खबरों को दफ़न किया है न, तिस पर फ़र्जी स्टिंग की खेती भी हरी की है न, इन सब अपराधों की ज़मानत इस मीडिया को कोई समाज कैसे और क्यों देगा? मीडिया का भी आखिर एक पर्यावरण होता है। क्या इस नष्ट होते जा रहे पर्यावरण को भी बचाने की ज़रुरत नहीं है? है और बिलकुल है। कारपोरेट और पूंजीवादी पत्रकारिता के खिलाफ़ पूरी ताकत से आज की तारीख में खडा होने की ज़रुरत है। प्रतिरोध की जो पत्रकारिता है उसे फिर से ज़िंदा करने की ज़रुरत है, डायल्यूट करने की नहीं।

अब तो हालत यहां तक आ गई है कि अखबार मालिक और उस का सो काल्ड प्रबंधन संपादकों और संवाददाताओं से अब खबर नहीं बिजनेस डिसकस करते हैं। सब को बिजनेस टारगेट देते हैं। मतलब विज्ञापन का टारगेट। अजीब गोरखधंधा है। विज्ञापन के नाम पर सरकारी खजाना लूट लेने की जैसे होड मची हुई है अखबारों और चैनलों के बीच। अखबार अब चुनावों में ही नहीं बाकी दिनों में भी खबरों का रेट कार्ड छाप कर खबरें वसूल रहे हैं। खबरों के नाम पर पैसे वसूल रहे हैं। बदनाम बेचारे छोटे-मोटे संवाददाता हो रहे हैं। चैनलों तक में यही हाल है। व्यूरो नीलाम हो रहे हैं। वेतन तो नहीं ही मिलता सेक्यूरिटी मनी लाखों में जमा होती है। तब परिचय पत्र जारी होता है। मौखिक संदेश होता है कि खुद भी खाओ और हमें भी खिलाओ। और खा पी कर मूस की तरह मुटा कर यह अखबार या चैनल कब फ़रार हो जाएं कोई नहीं जानता। तो पत्रकारिता ऐसे हो रही है। संवाद सूत्रों की हालत और पतली है। दलितों और बंधुआ मज़दूरों से भी ज़्यादा शोषण इन का इतनी तरह से होता है कि बयान करना मुश्किल है। यह सिक्योरिटी मनी भी जमा करने की हैसियत में नहीं होते तो इन्हें परिचय-पत्र भी नहीं मिलता। कोई विवादास्पद स्थिति आ जाती है तो संबंधित संस्थान पल्ला झाड लेता है और बता देता है कि उस से उस का कोई मतलब नहीं है। और वह फर्जी पत्रकार घोषित हो जाता है। अगर हाथ पांव मज़बूत नहीं हैं तो हवालात और जेल भी हो जाती है। इन दिनों ऐसी खबरों की भरमार है समूचे देश में। राजेश विद्रोही का एक शेर है कि, 'बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी/ खुद खबर है पर दूसरों की लिखता है।'

दरअसल पत्रकारिता के प्रोडक्ट में तब्दील होते जाने की यह यातना है। यह सब जो जल्दी नहीं रोका गया तो जानिए कि पानी नहीं मिलेगा। इस पतन को पाताल का पता भी नहीं मिलेगा। वास्तव में भड़ुआगिरी वाली पत्रकारिता की नींव इमरजेंसी में ही पड़ गई थी। बहुत कम कुलदीप नैय्यर तब खड़े हो पाए थे। पर सोचिए कि अगर रामनाथ गोयनका न चाहते तो कुलदीप नैय्यर क्या कर लेते? स्पष्ट है कि अगर अखबार या चैनल मालिक न चाहे तो सारी अभिव्यक्ति और उसके खतरे किसी पटवारी के खसरे खतौनी में बिला जाते हैं। जब जनता पार्टी की सरकार आई तो तबके सूचना प्रसारण मंत्री आडवाणी ने बयान दिया था कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में पत्रकारों से बैठने को कहा, पर वह तो लेट गए! पर दिक्कत यह थी कि जनता पार्टी सरकार भी पत्रकारों को लिटाने से बाज़ नहीं आई।

टाइम्स आफ़ इंडिया की एक कहानी की पत्रिका थी 'सारिका'। कमलेश्वर जी उस के संपादक थे। सारिका कहानी की पत्रिका थी, राजनीति से उस का कोई सरोकार नहीं था। पर कहानियों का चूंकि समाज से सरोकार होता है और समाज बिना राजनीति के चलता नहीं सो, कमलेश्वर की 'सारिका' के भी सरोकार में तब राजनीति समा गई। इस राजनीति की कोख में भी कारण एक कहानी बनी। कहानी थी आलमशाह खान की 'किराए की कोख'। डा. सुब्रहमण्यम स्वामी ने इस का विरोध किया कि यह 'किराए की कोख' देने वाली औरत हिदू ही क्यों है? इस के पहले भी डा. स्वामी और कमलेश्वर की भिड़ंत हो चुकी थी एक बार। उपन्यास 'काली आंधी' को ले कर। स्वामी ने कमलेश्वर को बधाई दी थी कि 'काली आंधी' में उन्हों ने इंदिरा गांधी का बहुत अच्छा चरित्र चित्रण किया है। कमलेश्वर ने उन्हें सूचित किया कि उन के उपन्यास में वह जिसे इंदिरा गांधी समझ रहे हैं, दरअसल वह विजयाराजे सिंधिया हैं। स्वामी भड़क गए थे। फिर बात 'किराए की कोख' पर उलझी। बात बढ़ती गई। जनता पार्टी की सरकार आ गई। टकराव बढ़ता गया। मैनेजमेंट का दबाव भी। कमलेश्वर ने 'सारिका' के एक संपादकीय में साफ़ लिखा कि यह देश किसी एक मोरार जी देसाई, किसी एक चरण सिंह, किसी एक जगजीवन राम भर का नहीं है। सारिका छप गई। पर यह अंक बाज़ार में नहीं आया। सारिका बंबई से दिल्ली आ गई। बाद में कमलेश्वर की सारिका से भी विदाई हो गई। यह एक लंबी कथा है। पर कमलेश्वर तब नहीं झुके। यह भी एक तथ्य है।

कमलेश्वर को यह संपादकीय पढ़ाने के लिए एक नई पत्रिका निकालनी पड़ी।कथा-यात्रा। खैर, बात आगे बढ़ी। बाद के दिनों में इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। चुनाव में पूरे देश में इंदिरा लहर ही नहीं, आंधी चली। पर तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उन के मैनेजरों यथा अरूण नेहरू जैसों को फिर भी यकीन नहीं था अमेठी की जनता पर। बूथ कैपचरिंग पर यकीन था। करवाया भी। यह चुनाव कवर करने लखनऊ से भी कुछ पत्रकार गए थे। आज से अजय कुमार, जागरण से वीरेंद्र सक्सेना और पायनियर से विजय शर्मा। बूथ कैपचरिंग की रिपोर्ट करने के चक्कर में सभी पिटे। फ़ोटोग्राफ़र के कैमरे से रील निकाल ली गई। वगैरह-वगैरह। जो-जो होता है ऐसे मौकों पर वह सब हुआ। हालांकि फ़ोटोग्राफ़र ने पहले ही तड़ लिया था कि रील निकाली जा सकती है। कैमरा छीना जा सकता है। सो वह फ़ोटो खींचते जाते थे और रील झाड़ियों में फेंकते जाते थे। और अंतत: हुआ वही। पिटाई-सिटाई के बाद उन्हों ने रील बटोर लिया। आए सभी लखनऊ। पिटने का एहसास बड़ी खबर पा लेने के गुमान में धुल गया था। पर जब अपने-अपने आफ़िस पहुंचे ये पत्रकार सीना फ़ुलाए तो वहां भी उन की धुलाई हो गई। डांटा गया कि आप लोग वहां खबर कवर करने गए थे कि झगड़ा करने? असल में तब तक सभी अखबारों के दफ़्तर में अरूण नेहरू का धमकी भरा फ़ोन आ चुका था। सभी लोगों को कहा गया कि बूथ कैपचरिंग भूल जाइए, प्लेन-सी खबर लिखिए। 'आज' अखबार के अजय कुमार तब लगभग रोते हुए बताते थे कि अमेठी में पिटने का बिलकुल मलाल नहीं था। दिल में तसल्ली थी कि पिटे तो क्या, खबर तो है! पर जब दफ़्तर में भी आ कर डांट खानी पड़ी तो हम टूट गए।

बाद में जनसत्ता के तब के संवाददाता जयप्रकाश शाही को उस फ़ोटोग्राफ़र ने बताया कि उस के पास फ़ोटो है। शाही ने फ़ोटो ली और खबर लिखी। छपी भी तब जनसत्ता में। पर बाद में वह फ़ोटोग्राफ़र, साफ़ कहूं तो बिक गए। और बता दिया कि वह फ़ोटो फ़र्ज़ी है और ऐसी कोई फ़ोटो उन्हों ने नहीं खींची। खैर।

बोफ़ोर्स की याद है आप सब को? तब जिस तरह कुछ अखबार मालिकों ने लगभग पार्टी बंदी कर अखबारों का इस्तेमाल किया, यह भी याद है ना? फिर तो अखबारों को हथियार बना लिया गया। जब जिस की सत्ता तब तिस के अखबार।

2 जून 1995 को लखनऊ में मुलायम सिंह ने सुबह-सुबह जिस तरह अपने गुंडों को मायावती पर हमले के लिए भेजा था, मुख्यमंत्री रहते हुए भी, वह तो अश्लील था ही, अपने पत्रकारों ने उस से भी ज़्यादा अश्लीलता बरती। पी.टी.आई ने इतनी बड़ी घटना को सिर्फ़ दो टेक में निपटा दिया तो टाइम्स आफ़ इंडिया ने शार्ट डी.सी. अंडरप्ले कर के दिया। बाद में इस के कारणों की पड़ताल की तब के जनसत्ता के संवाददाता हेमंत शर्मा ने। तो पाया कि ऐसा इस लिए हुआ क्यों कि पी.टी.आई के व्यूरो चीफ़ खान और टाइम्स के तत्कालीन रेज़ीडेंट एडीटर अंबिकानंद सहाय ने मुलायम शासनकाल में विवेकाधीन कोष से लाखों रुपए खाए हुए थे। तमाम और पत्रकारों ने भी लाखों रुपए खाए थे। और वो जो कहते हैं कि राजा का बाजा बजा! तो भैय्या लोगों ने राजा का बाजा बजाया। आज भी बजा रहे हैं। खैर, हेमंत शर्मा ने जब इस बाबत खबर लिखी तो टाइम्स आफ़ इंडिया के तत्कालीन रेज़ीडेंट एडीटर अंबिकानंद सहाय ने हेमंत को नौकरी ले लेने की धमकी दी।

पर न हेमंत बदले न बाजा बजाने वाले। आज भी बजा रहे हैं। बस राजा बदलते रहते है, भय्या लोग बाजा बजाते रहते हैं।
सो राजा लोगों का दिमाग खराब हो जाता है। अब जैसे अखबार या चैनल प्रोड्क्ट में तब्दील हैं, वैसे ही अपने नेता भी राजा में तब्दील हैं। सामंती आचरण में लथ-पथ हैं। वो चाहे ममता बनर्जी ही क्यों न हों? ममता बनर्जी को कोई यह बताने वाला नहीं है कि सिर्फ़ हवाई चप्पल और सूती साड़ी पहनने या कुछ कविताएं या लेख लिखने, कुछ इंटेलेक्चुअल्स के साथ बैठ लेने भर से या गरीबों की बात या मुद्दे भर उठा लेने से कोई प्रजातांत्रिक नहीं हो जाता, जब तक वह व्यवहार में भी न दिखे। नहीं तो वज़ह क्या है कि दबे कुचलों की बात करने वाले तमाम नेता आज सरेआम तानाशाही और सामंती रौबदाब में आकंठ डूबते-उतराते दिखते हैं। वह चाहे ममता बनर्जी हों, मायावती हों, जयललिता हों, करूणानिधि हों, लालू या मुलायम, पासवान हों। शालीनता या शिष्टता से जैसे इन सबका कोई सरोकार ही नहीं दीखता!

तो शायद इसलिए कि भडुआगिरी में न्यस्त हमारी पत्रकारिता राजा का बाजा बजाने में न्यस्त भी है और ध्वस्त भी। हमारी एक समस्या यह भी है कि हम पैकेजिंग में सजी दुकानों में पत्रकारिता नाम के आदर्श का खिलौना ढूंढ रहे हैं। जब कि हम जानते हैं कि यह नहीं होना है अब किसी भी सूरत में। पर हमारी ज़िद है कि - मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों। किसी बंधु को मिले यह चंद्र खिलौना तो भैय्या हमें भी बताना। दूध भात लेकर आ जाऊंगा।

अभी और अभी तो बस राजा का बाजा बजा!

और कि इस आंच में पत्रकारों का जीते जी मर जाना, कैरियर का मर जाना, इस की यातना, इस की मार को हम में से बहुतेरे जानते हैं। कह नहीं पाते, कहते नहीं। दोनों बातें हैं। लेकिन हैं कौन लोग जो यह यातना की पोटली हमें थमा देते हैं कि लो और भुगतो। क्या सिर्फ़ अखबार मालिक और पूंजीपति? जी नहीं। यह दीमक हमारे भीतर से ही निकलते हैं। ये कुकुरमुत्ते हमारे ही घूरे से निकलते हैं और गुलाब बन कर इतराने लगते हैं। और अचानक एक दिन ये इतने बडे़ हो जाते हैं कि हमारे दैनंदिन जीवन में हमारे लिए रश्क का सबब बन बैठते हैं। हमारे भाग्य विधाता बन जाते हैं।

ज़्यादा नहीं एक दशक पहले अखबारों में डी.टी.पी. आपरेटर हुआ करते थे। कहां गए अब? अब सब-एडीटर कंपोज भी कर रहा है, पेज़ भी बना रहा है। अखबारों से भाषा का स्वाद बिसर गया तो क्या हुआ? गलतियां हो रही हैं, खबर कहीं से कहीं कट पेस्ट हुई जा रही है तो पूछता कौन है? अखबार मालिक का तो पैसा बच गया न ! चार आदमी के काम को एक आदमी कर रहा है। और क्या चाहिए? अखबार नष्ट हो रहा है तो क्या हुआ?

अखबार में विज्ञापन कम हो रहा था, तो यह ऐडवोटोरियल की बुद्धि अखबार मालिकों को किसने दी? फिर खुल्लमखुल्ला पैसे ले कर खबरें छापने का पैकेज भी किस ने बताया अखबार मालिकों को? मंदी नहीं थी अखबारों में फिर भी मंदी के नाम पर आप के पैसे कम करने, और जो आप भन्नाएं तो आप को ट्रांसफ़र करने या निकाल देने की बुद्धि भी किसने दी अखबार मालिकों को?

अरे भाई, अभी भी नहीं समझे आप? आप जान भी नहीं पाए? अच्छा जब हमारी सेलरी लाखों में पहुंची, लग्ज़री कारों में हम चलने लगे, आकाशीय उड़ानें भरने लगे बातों में भी और यात्राओं में भी। और ये देखिए आप तो हमारे पैर भी छूने लगे, हमारे तलवे भी चाटने लगे और फिर भी नहीं जान पाए? अभी भी नहीं जान पाए? अरे मेरे भाइयों, हमी ने दी। ये तमाम संवाद सूत्रों की फ़ौज़ भी हमीं ने खड़ी की। अब हम भी क्या करें, हमारे ऊपर भी प्रबंधन का दबाव था, है ही, लगातार। तो भैया हम बन गए बडे़ वाले अल्सेसियन और आप को बना दिया गलियों वाला कुता। बंधुआ कुत्ता। जो भूंक भी नहीं सकता। भूख लगने पर। खुद बधिया बने तो आप को भी बंधुआ बनाया।

बहुत हो गई भूल भूलैया। आइए कुछ वाकए भी याद कर लें। शुरुआती दिनों के।

अब तो स्वतंत्र भारत और पायनियर बरबाद अखबारों में शुमार हैं। और कि अलग-अलग हैं। पहले के दिनों में पायनियर लिमिटेड के अखबार थे ये दोनों। जयपुरिया परिवार का स्वामित्व था। और कि कहने में अच्छा लगता है कि तब यह दोनों अखबार उत्तर प्रदेश के सबसे बडे़ अखबार के रूप मे शुमार थे। हर लिहाज़ से। सर्कुलेशन में तो थे ही, बेस्ट पे मास्टर भी थे। पालेकर, बछावत लागू थे। बिना किसी इफ़-बट के। लखनऊ और बनारस से दोनों अखबार छपते थे। बाद में मुरादाबाद और कानपुर से भी छपे।

तो कानपुर स्वतंत्र भारत में सत्यप्रकाश त्रिपाठी आए। कानपुर के ही रहने वाले थे। कानपुर जागरण से जनसत्ता, दिल्ली गए थे। वाया जनसत्ता स्वतंत्र भारत कानपुर आए रेज़ीडेंट एडीटर बन कर। लखनऊ और बनारस में वेज़बोर्ड के हिसाब से सब को वेतन मिलता था। पर सत्यप्रकाश त्रिपाठी ने यहां नई कंपनी बनाने की तज़वीज़ दी जयपुरिया को। ज्ञानोदय प्रकाशन। और सहयोगियों को कंसोलिडेटेड वेतन पर रखा। किसी को वेतनमान नहीं। तब पालेकर का ज़माना था। तो जितना लखनऊ में एक सब एडीटर को मिलता था लगभग उसी के आस-पास वहां भी मिला। पर पी.एफ़, ग्रेच्युटी आदि सुविधाओं से वंचित। जल्दी ही बछावत लागू हो गया। अब कानपुर के सहयोगियों का हक मारा गया। बेचारे बहुत पीछे रह गए। औने-पौने में। खुद जयपुरिया को यह बुद्धि देने वाले सत्यप्रकाश त्रिपाठी भी लखनऊ के चीफ़ सब से भी कम वेतन पर हो गए। साथ में वह जनसत्ता से अमित प्रकाश सिंह को भी ले आए थे समाचार संपादक बना कर। सब से पहले उन का ही मोहभंग हुआ। वह जनसत्ता से अपना वेतन जोड़ते, नफ़ा नुकसान जोड़ते और सत्यप्रकाश त्रिपाठी की ऐसी तैसी करते। वह जल्दी ही वापस जनसत्ता चले गए। कुछ और साथी भी इधर उधर हो गए। बाद के दिनों में स्वतंत्र भारत पर थापर ग्रुप का स्वामित्व हो गया। अंतत: सत्यप्रकाश त्रिपाठी को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। हालांकि उन्हों ने प्रबंधन के आगे लेटने की इक्सरसाइज़ भी बहुत की। पर बात बनी नहीं।

जाते समय एक बार वह लखनऊ आए और वह भी अपना पी.एफ़ ग्रेच्युटी वगैरह अमित प्रकाश सिंह की तरह जनसत्ता से तुलनात्मक ढंग से जोड़ने लगे और कहने लगे कि मेरा तो इतना नुकसान हो गया। जब यह बात उन्हों ने कई बार दुहराई तो मुझ से रहा नहीं गया। उन से पूछा कि यह बताइए कि जयपुरिया को यह बुद्धि किस ने दी थी? और फिर आप सिर्फ़ अपने को ही क्यों जोड़ रहे हैं? अपने उन साथियों को क्यों भूल जा रहे है? आप ने तो संपादक बनने की साध पूरी कर ली, पर वह सब बिचारे? उन का क्या कुसूर था? उन सब को जिन को आप ने छला? और तो और एक गलत परंपरा की शुरुआत कर दी सो अलग !
वह चुप रह गए।

सत्यप्रकाश त्रिपाठी का अंतर्विरोध देखिए कि वह कई बार प्रभाष जोशी बनने का स्वांग करते। जोशी जी की ही तरह लिखने की कोशिश करते। फ्रंट पेज़ एडीटॊरियल लिखने का जैसे उन्हें मीनिया सा था। भले ही कानपुर रेलवे स्टेशन की गंदगी पर वह लिख रहे हों पर जोशी जी की तरह उस में 'अपन' शब्द ज़रूर ठोंक देते। जब कि कानपुर का 'अपन' शब्द से कोई लेना-देना नहीं था। वह तो जोशी जी के मध्य प्रदेश से आता है। उन के इस फ़्रंट पेज़ एडीटोरियल मीनिया पर लखनऊ के साक्षर संपादक राजनाथ सिंह जो तब लायजनिंग की काबिलियत पर संपादक बनवाए गए थे, एक जातिवादी मुख्यमंत्री की सिफ़ारिश पर, अक्सर उन्हें नोटिस भेज देते थे। अंतत: वह एडीटोरियल की जगह बाटम लिखने लगे। खैर, जोशी जी बनने का मीनिया पालने वाले सत्यप्रकाश त्रिपाठी जोशी जी की उदारता नहीं सीख पाए, न उन के जैसा कद बना पाए| पर हां, जयपुरिया की आंखों में चढ़ने के लिए अपने साथियों का अहित ज़रूर कर गए। अपना तो कर ही गए। जोशी जी ने गोयनका की आंखों में चढ़ने के लिए सहयोगियों का कभी वेतन नहीं कम किया। हां, एक बार अपना बढ़ा हुआ वेतन, सुनता हूं कि ज़रूर लेने से इंकार किया।
यहीं कमलेश्वर भी याद आ रहे हैं। एक संस्थान में एक महाप्रबंधक ने उन से कुछ सहयोगियों को हटाने के लिए कहा। पर कमलेश्वर जी टाल गए। पर जब दुबारा उस महाप्रबंधक ने सहयोगियों को फिर से हटाने के लिए कहा तो कमलेश्वर जी ने खुद इस्तीफ़ा दे दिया। पर सहयोगियों पर आंच नहीं आने दी। पर बाद में स्थितियां बद से बदतर हो गईं। रक्षक ही भक्षक बनने लगे।

पत्रकारों के एक मसीहा हुए हैं सुरेंद्र प्रताप सिंह। रविवार के उन के कार्यकाल पर तो उन्हें जितना सलाम किया जाए, कम है। पर नवभारत टाइम्स में उन्हों ने क्या-क्या किया? विद्यानिवास मिश्र जैसे विद्वान को उन्हों ने सहयोगियों को भड़का-भड़का कर गालियां दिलवाईं। उन को वह प्रधान संपादक स्वीकार ही नहीं पाए। चलिए आगे सुनिए। समीर जैन को खुश करने के लिए उसी नवभारत टाइम्स में इन्हीं सुरेंद्र प्रताप सिंह ने पंद्रह सौ से दो हज़ार रुपए में स्ट्रिंगर रखे, खबर लिखने के लिए। तब जब वहां विशेष संवाददाता को उस समय दो हज़ार रुपए कनवेंस एलाऊंस मिलता था। वरिष्ठों की खबरें काट-काट कर फेंक देते, उन्हें अपमानित करते, इन स्ट्रिंगर्स की खबर उछाल कर छापते। इन्हीं उठापटक और राजनीति में नवभारत टाइम्स लखनऊ बंद हो गया। और भी ऐसे कई काम इन एस.पी. ने किए जो सहयोगियों के हित में नहीं थे। लेकिन वह लगातार करते रहे। और अंतत: जब अपने पर बन आई तो उसी टाइम्स प्रबंधन के खिलाफ संसद में सवाल उठवाने लग गए। यह वही सुरेंद्र प्रताप सिंह थे जिन का प्रताप उन दिनों इतना था कि वह अकसर दिल्ली से लखनऊ सिर्फ़ शराब पीने आते थे राजकीय विमान से। रात नौ बजे आते और बारह बजे तक लौट भी जाते। 45 मिनट की फ़्लाइट होती थी। और तब के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से दोस्ती भी निभ जाती थी। वे दिन मंडल की पैरोकारी के दिन थे उन के। सो चांदी कट रही थी। और गरीबों की बात भी हो रही थी। वाया राजकीय विमान और शराब। और कि देखिए न, उन के चेले भी आजकल क्या-क्या नहीं कर रहे हैं?

खैर, चाहे पत्रकारों के मसीहा एस.पी. हों या छुट्भैय्या सत्यप्रकाश त्रिपाठी हों, इन प्रजातियों की अखबार मालिकानों को सहयोगियों के हितों के खिलाफ बुद्धि देने वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। अनुपात वही यहां भी है जो देश में गरीबों और अमीरों के बीच है। जैसे देश के ज़्यादतर लोग बीस रुपए भी नहीं कमा पाते रोज और खरबपतियों की संख्या बढती जाती है। ठीक वैसे ही संवाद सूत्रों की संख्या बढ़ती जाती है और दूसरी तरफ अपने अल्सेसियंस की भी। नहीं समझे? अरे बुद्धि देने वालों की भाई!

और यह बेचारे संवाद सूत्र अपनी यातना कथा में भी कुछ अपने मसीहा टाइप लोगों के चरणों में गिरे पड़े रहते हैं। कि जाने कब उद्धार हो जाए। पर उद्धार नहीं होता, निकाल दिए जाते हैं। सो यातना, कर्ज़ और अपमान का ग्राफ़ ज़रुर बढ़ जाता है। यह संवाद सूत्र बेचारे नहीं जान पाते कि उन के यह सभी छुटभय्या मसीहा भी उन्हीं बुद्धि देने वालों की कतार में हैं। यहीं धूमिल याद आ रहे हैं:

एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी सेंकता है
एक तीसरा आदमी और है
जो इस रोटी से खेलता है
मैं पूछ्ता हूं
यह तीसरा आदमी कौन है
मेरे देश की संसद मौन है

तो ज़रूरत वास्तव में इस तीसरे आदमी के शिनाख्त की है। पलायन की नहीं। देखिए अब यहीं देवेंद्र कुमार भी याद आ रहे हैं। उन की एक लंबी कविता है- बहस ज़रूरी है। उस में एक जगह वह लिखते हैं...

रानी पद्मावती का इतिहास तुम ने सुना होगा
बीस हज़ार रानियों के साथ जल कर मरने के बजाय
जो वह लड़ कर मरी होती
तो शायद तुम्हारा और देश का इतिहास.
कुछ और होता

हम असल में इतिहास से सबक नही लेते, गलती हमारी है। नतीज़ा सामने है। कभी हम बता कर मरते हैं तो कभी खामोश। जैसे हम अभिशप्त हो गए हैं। बीवी-बच्चों को लावारिस छोड़ जाने के लिए। अपनी ज़िंदगी होम कर पूंजीपतियों और भडुओं की तिजोरी भर जाने के लिए। ये पद्मश्री, पद्मभूषण का खिताब ले कर भोगेंगे, हम गांव मे गोबर बटोरने चले जाएंगे। हमारे कुछ मित्र जब बहुत परेशान होते हैं तो कहने लगते हैं कि गांव चले जाएंगे। हमारे गांव में तो गोबर भी अब नहीं है, काछने के लिए। हल बैल की खेती ही खतम हुए ज़माना हो गया। किराए का ट्रैक्टर आ कर जोत देता है, किराए का ही कंबाइन आ कर काट देता है। तो गोबर कहां से रहेगा? हां गांव में गरीबी है, पट्टीदारी है और माफ़ करें दुरूपयोग की हद पार करते हुए हरिजन ऐक्ट भी है। गरज यह कि जितने फन उतनी फ़ुंफकारें ! इतने साल बधिया बन कर व्यर्थ की ही सही पत्रकारिता कर, शहर में रहने के बाद अब गांव में? कैसे रहेंगे गांव में भी ? बिजली के अभाव में, मच्छर के प्रभाव में। और फिर जो गांव वाले अज्ञेय जी की कविता में प्रतिप्रश्न कर बैठें -

सर्प तुम नगर में गए भी नहीं
न ही सीखा तुमने वहां बसना
फिर कहां से तुम ने विष पाया
और कहां से सीखा डंसना

और मेरे गांव में तो नहीं पर पास के एक गांव में दो साल पहले एक आदमी मुंबई में राज ठाकरे के गुंडों से पिट कर गांव की शरण में वापस आ गया। यहां भी गांव वालों ने उसे ताने दे दे कर आज़िज़ कर दिया। अपनों के ही ताने सुन-सुन कर वह बेचारा एक दिन, एक पेड़ से लटका मिला।

तो मेरे भाई ज़रा गांव भी बच कर जाइएगा। ठीक है कि आज की पत्रकारिता में कुछ नहीं धरा है। जो भी कुछ है, अब वह सिर्फ़ और सिर्फ़ भडुओं के लिए है। अब उन्हीं के लिए रह गई है पत्रकारिता। अब तो कोई गिरहकट भी अखबार या चैनल चला दे रहा है और एक से एक मेधावी, एक से एक जीनियस वहां पानी भर रहे हैं। एक मास्टर भी बेहतर है आज के किसी पत्रकार से। नौकरी के लिहाज़ से। मनरेगा मज़दूर भी।

कब किस की नौकरी चली जाए, कोई नहीं जानता। हर कोई अपनी-अपनी बचाने में लगा है। इसी यातना में जी रहा है। सुविधाओं और ज़रूरतों ने आदमी को कायर और नपुंसक बना दिया है। पत्रकारिता के ग्लैमर का अजगर बडे़-बडे़ प्रतिभावानों को डंस चुका है। किस्से एक नहीं, अनेक हैं।

एक हैं डा. चमनलाल। आज कल जे.एन. यू. में पढ़ाते हैं। हिंदी के आलोचक भी हैं। अनुवाद के लिए भी जाने जाते हैं। पहले मुंबई और तब की बंबई में एक बैंक में हिंदी अधिकारी थे। दिल्ली से जनसत्ता अखबार जब शुरू हुआ 1983 में तब वह भी लालायित हुए पत्रकार बनने के लिए। बडी चिट्ठियां लिखीं उन्हों ने प्रभाष जोशी जी को कि आप के साथ काम करना चाहता हूं। एक बार जोशी जी ने उन्हें जवाब में लिख दिया कि आइए बात करते हैं। चमनलाल इस चिट्ठी को ही आफ़र लेटर मान कर सर पर पांव रख कर दिल्ली आ गए। जोशी जी ने अपनी रवायत के मुताबिक उन का टेस्ट लिया। टेस्ट के बाद उन्हें बताया कि आप तो हमारे अखबार के लायक नहीं हैं। अब चमनलाल के पैर के नीचे की ज़मीन खिसक गई। बोले कि मैं तो बैंक की नौकरी से इस्तीफ़ा दे आया हूं। जोशी जी फिर भी नहीं पिघले। बोले, आप इस अखबार में चल ही नहीं सकते। बहुत हाय-तौबा और हाथ पैर-जोड़ने पर जोशी जी ने उन्हें अप्रेंटिस रख लिया और कहा कि जल्दी ही कहीं और नौकरी ढूंढ लीजिएगा। बैंक की नौकरी में चमनलाल तब ढाई हज़ार रुपए से अधिक पाते थे। जनसत्ता में छ सौ रुपए पर काम करने लगे। बस उन्हों ने आत्महत्या भर नहीं किया, बाकी सब करम हो गए उन के। उन दिनों को देख कर, उनकी यातना को देख कर डर लगता था। आखिर बाल-बच्चेदार आदमी थे। पढे़-लिखे थे। अपने को संभाल ले गए। जल्दी ही पंजाब यूनिवर्सिटी की वांट निकली। अप्लाई किया। खुशकिस्मत थे, नौकरी पा गए। हिंदी के लेक्चरर हो गए। पर सभी तो चमनलाल की तरह खुशकिस्मत नहीं होते न! जाने कितने चमनलाल पत्रकारिता की अनारकली बना कर दीवारों में चुन दिए गए पर अपने सलीम को, अपनी पत्रकारिता के सलीम को, अपनी पत्रकारिता की अनारकली को नहीं पाए तो नहीं पाए। कभी पत्रकारिता के द्रोणाचार्यों ने उन के अंगूठे काट लिए तो कभी शकुनियों ने उन्हें नंगा करवा दिया अपने दुर्योधनों, दुशासनों से। पत्रकारिता के भडुवों के बुलडोजरों ने तो जैसे संहार ही कर दिया। पहले देखता था कि किसी सरकारी दफ़्तर का कोई बाबू, कोई दारोगा या कोई और, रिश्वतखोरी या किसी और ज़ुर्म में नौकरी से हाथ धो बैठता था तो आ कर पत्रकार बन जाता था। फिर धीरे-धीरे पत्रकारों का बाप बन जाता था।

पर अब?

अब देखता हूं कि कोई कई कत्ल, कई अपहरण कर पैसे कमा कर बिल्डर बन जाता है, शराब माफ़िया बन जाता है, मंत्री-मुख्यमंत्री बन जाता है, और जब ज़्यादा अघा जाता है तो एक अखबार, एक चैनल भी खोल लेता है। और एक से एक मेधावी, एक से एक प्रतिभाशाली उनके चाकर बन जाते हैं, भडुवे बन जाते हैं। उन के पैर छूने लग जाते हैं। हमारा एक नया समाज रच जाते हैं। हमें समझाने लायक, हमें डिक्टेट करने लायक बन जाते हैं। बाज़ार की धुरी और समाज की धड़कन बनने बनाने के पितामह बन जाते हैं।

साहिर लुधियानवी के शब्दों में इन हालातों का रोना रोने का मन करता है :

बात निकली तो हर एक बात पर रोना आया
कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया

यहीं शकील बदायूंनी भी याद आ रहे हैं:

पायल के गमों का इल्म नहीं, झंकार की बातें करते हैं/ दो कदम कभी जो चले नहीं रफ़्तार की बातें करते हैं।

जानिए कि कोई पूंजीपति, कोई प्रबंधन आप को कुछ भी कहलवा-सुनवा सकता है क्यों कि उस के हाथ में बाज़ार है, बाज़ार की ताकत है। सो रास्ता बदल लेने में ही भलाई है क्यों कि अब कोई किसी को बचाने वाला नहीं है, बिखरने से बचा कर सहेजने-संवारने वाला नहीं है। समय रहते नींद टूट जाए तो अच्छा है। हम जैसे लोगों की नींद टूटी तो बहुत देर हो चुकी थी। प्रोड्क्ट की आंधी में बह-बिला गए। बाकी जो बचा भडुए-दलाल गड़प गए। आप बच सकें तो बचिए।

लखनऊ में एक पत्रकार थे, जयप्रकाश शाही। जीनियस थे। पत्रकारिता में उन के साथ ही हम भी बडे़ हुए थे। एक समय लखनऊ की रिपोर्टिंग उन के बिना अधूरी कही जाती थी। पर सिस्टम ने बाद में उन्हें भी बिगाड़ दिया। क्या से क्या बना दिया। एक अखबार में वह ब्यूरो चीफ़ थे। कहते हुए तकलीफ़ होती है कि बाद में उसी अखबार में वह लखनऊ में भी नहीं, गोरखपुर में जो उन का गृहनगर था स्ट्रिंगर बनने को भी अभिशप्त हुए और बाद के दिनों में अपनी ही टीम के जूनियरों का मातहत होने को भी वह मज़बूर किए गए। अब वह नहीं हैं इस दुनिया में पर तब वह टूट कर कहते थे कि यार अगर कथकली या भरतनाट्यम भी किए होते तो दस-बीस साल में देश में नाम कमा लिए होते। हमारे सामने ही एस.डी.एम. देखते देखते कलक्टर हो गया, चीफ़ सेक्रेट्री भी हो गया, सी.ओ. आज एस.पी. बन गया, डी.आई.जी. आई. जी. से आज डी.जी.पी. हो गया, फलनवा गिरहकटी करते-करते मिनिस्टर बन गया और हम देखिए ब्यूरो चीफ़ से स्ट्रिंगर हो गए।

बताऊं कि आज आलोक मेहता, मधुसुदन आनंद, रामकृपाल सिंह, कमर वहीद नकवी वगैरह को ज़्यादातर लोग जानते हैं। पर उन्हीं के बैच के लोग और उन से सीनियर लोग और भी हैं। उसी टाइम्स आफ़ इंडिया ट्रेनी स्कीम के जो आज भी मामूली वेतन पर काम कर रहे हैं।

क्यों?

क्यों कि वह बाज़ार को साधने में पारंगत नहीं हुए। एथिक्स और अपने काम के बल पर वह आगे बढ़ना चाहते थे। कुछ दिन बढे़ भी। पर कहा न कि प्रोडक्ट की आंधी आ गई। भडुओं का बुलडोज़र आ गया। वगैरह-वगैरह। तो वह लोग इस के मलबे में दब गए। बताना ज़रा क्या ज़्यादा तकलीफ़देह है कि लखनऊ में एक अखबार ऐसा भी है जहां लोग बीस साल पहले पांच सात हज़ार रुपए की नौकरी करते थे बडे़ ठाट से। और आज भी, बीस साल बाद भी वहीं नौकरी कर रहे हैं पांच हज़ार रुपए की, बहुत डर-डर कर, बंधुओं जैसी कि कहीं कल को निकाल न दिए जाएं?

और मैं जानता हूं कि देश में ऐसे और भी बहुतेरे अखबार हैं। हमारी दिल्ली में भी। अब इस के बाद भी कुछ कहना बाकी रह गया हो मित्रों तो बताइएगा, और भी कह दूंगा। पर कहानी खत्म नहीं होगी। वैसे भी बात बहुत लंबी हो गई है। सो अभी बात खत्म करते हैं। यह चर्चा फिर कभी फिर होगी। तब और आगे की बात होगी।अभी तो बतर्ज़ मुक्तिबोध यही कहूंगा कि, 'मर गया देश, जीवित रहे तुम !' आमीन!

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