Friday, August 13, 2010
Tuesday, August 3, 2010
टीवी जर्नलिस्ट ने लड़की का एमएमएस बनाया!
: लड़की ने ब्लैकमेल करने का आरोप लगाया : नोएडा के सेक्टर 58 थाने में मुकदमा दर्ज : नवभारत टाइम्स में आज एक खबर प्रकाशित हुई है. शीर्षक है 'एमएमएस बनाकर ब्लैकमेल करने का आरोप'. इस खबर को पढ़ने के बाद आज मीडिया जगत के लोग सुबह से ही कई तरह की चर्चाएं कर रहे हैं. पता चला है कि जिस टीवी जर्नलिस्ट के बारे में यह खबर है, वह दो महीने पहले तक सीएनईबी में हुआ करते थे. जिस लड़की ने आरोप लगाया है, वह भी सीएनईबी में बतौर इंटर्न कार्यरत थी. नवभारत टाइम्स में प्रकाशित खबर में जो कुछ कहा गया है, वह इस प्रकार है-
''सेक्टर 63 स्थित एक प्राइवेट न्यूज चैनल की कर्मचारी ने अपने सहयोगी पर अश्लील एमएमएस बनाकर ब्लैकमेलिंग करने का आरोप लगाया है। मामला कोतवाली सेक्टर 58 में दर्ज कराया गया है। पीड़िता ने आरोप लगाया है कि उसे नशीली दवा खिलाकर आरोपी ने अश्लील एमएमएस बना लिया था। दो साल से उसे ब्लैकमेल कर रहा था। पहले उसकी सैलरी में से 5 हजार रुपये लेता था। लेकिन अब 2 लाख रुपये की मांग कर रहा है। कोतवाली सेक्टर 58 पुलिस ने बताया है कि पूजा (बदला हुआ नाम) सेक्टर 63 स्थित एक न्यूज चैनल में 2008 से काम करती है। पूजा को नशीली दवा खिलाकर उसके सहयोगी मुकेश सिन्हा (बदला हुआ नाम) ने अश्लील एमएमएस बना लिया। मुकेश और पूजा असाइनमेंट डेस्क पर काम करते हैं। विडियो को सार्वजनिक करने की धमकी देकर मुकेश पूजा से उसकी सैलरी से 5000 रुपये ले रहा था। पूजा मूल रूप से गुजरात की रहने वाली है। इसी बीच पूजा की शादी उसके घरवालों ने पक्की कर दी। पूजा ने अपनी शादी की बात सभी ऑफिस सहयोगियों को बताई। इस पर मुकेश ने उसे जॉब न छोड़ने की सलाह दी। पूजा नहीं मानी तो उसके मोबाइल फोन से मुकेश ने होने वाले पति का मोबाइल नंबर और ईमेल ले लिया। पति को अश्लील एसएमएस सेंट करने की धमकी देने लगा। इसके बाद मुकेश ने पूजा पर दबाव बनाते हुए जॉब छोड़कर जाने पर 2 लाख रुपये देने की मांग की। इससे परेशान होकर पूजा ने अपने घरवालों का पूरी बात बता दी।''
इस खबर की सच्चाई की तहकीकात के बाद पता चला कि जिस न्यूज चैनल का उल्लेख किया गया है वह सीएनईबी है. जिस कर्मचारी का उल्लेख किया गया है उसका नाम अभिजीत सिन्हा है जो असिस्टेंट प्रोड्यूसर के पद पर कार्यरत थे. जिस लड़की का जिक्र किया गया है वह अवैतनिक इंटर्नशिप करने आई थी और अभिजीत के साथ लिव इन रिलेशन में रहने लगी थी. बाद में दोनों अलग अलग हो गए. लड़की के पिता पुलिस में रहे हैं.
यह भी सूत्रों ने बताया कि लड़की अभिजीत के घर जा चुकी है और अभिजीत भी लड़की के घर हो चुका है. अभिजीत द्वारा प्यार में जुनूनी हो जाने और ओवर रिएक्ट करने की वजह से लड़की और उसके घर वाले बिगड़ गए. मामला इतना बिगड़ गया कि अब मुकदमा दर्ज करा दिया गया है. जो आरोप लगाए गए हैं, उसमें कितनी सच्चाई है, यह तो पुलिस की छानबीन से पता चलेगा लेकिन सीएनईबी से जुड़े सूत्रों का कहना है कि इस प्रकरण से सीएनईबी का कोई लेना देना नहीं है क्योंकि अभिजीत दो महीने पहले ही सीएनईबी से कार्यमुक्त किए जा चुके हैं. कार्यमुक्ति की वजह यही प्रकरण है जिसकी चर्चा फैलने के बाद प्रबंधन ने उन्हें कार्यमुक्त कर दिया.
सीएनईबी से जुड़े लोगों का कहना है कि सीएनईबी प्रबंधन नवभारत टाइम्स समेत उन तमाम मीडिया हाउसों को लीगल नोटिस भेजने की तैयारी कर रहा है जिन्होंने अपने यहां प्रकाशित खबर में आरोपी कर्मचारी (अभिजीत सिन्हा) को न्यूज चैनल में कार्यरत बताया है. सूत्रों के मुताबिक अभिजीत पटना में अपने घर पर हैं. लड़की के दलित तबके से होने के कारण अभिजीत पर कई धाराओं के साथ एससी एसटी एक्ट भी लगाया गया है.
जो भी हो, लेकिन इस पूरे प्रकरण को लेकर सीएनईबी में पूरे दिन अफरातफरी मची रही. दूसरे न्यूज चैनलों से भड़ास4मीडिया के पास ढेरों फोन आए. लोगों ने सच्चाई जानने की कोशिश की. कई ने अपने स्तर पर नई सूचनाएं भी दीं. लेकिन सीएनईबी प्रबंधन का कहना है कि यह दो लोगों के बीच का मामला है. आरोप सही हैं या गलत, यह तो पुलिस की जांच और कोर्ट के फैसले से पता चलेगा पर इतना तो तय है कि सीएनईबी का नाम बेवजह घसीटा जा रहा है. इससे न्यूज चैनल की छवि को धक्का लगा है और जिन लोगों ने ऐसा किया है, उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की तैयारी की जा रही है.
: लड़की ने ब्लैकमेल करने का आरोप लगाया : नोएडा के सेक्टर 58 थाने में मुकदमा दर्ज : नवभारत टाइम्स में आज एक खबर प्रकाशित हुई है. शीर्षक है 'एमएमएस बनाकर ब्लैकमेल करने का आरोप'. इस खबर को पढ़ने के बाद आज मीडिया जगत के लोग सुबह से ही कई तरह की चर्चाएं कर रहे हैं. पता चला है कि जिस टीवी जर्नलिस्ट के बारे में यह खबर है, वह दो महीने पहले तक सीएनईबी में हुआ करते थे. जिस लड़की ने आरोप लगाया है, वह भी सीएनईबी में बतौर इंटर्न कार्यरत थी. नवभारत टाइम्स में प्रकाशित खबर में जो कुछ कहा गया है, वह इस प्रकार है-
''सेक्टर 63 स्थित एक प्राइवेट न्यूज चैनल की कर्मचारी ने अपने सहयोगी पर अश्लील एमएमएस बनाकर ब्लैकमेलिंग करने का आरोप लगाया है। मामला कोतवाली सेक्टर 58 में दर्ज कराया गया है। पीड़िता ने आरोप लगाया है कि उसे नशीली दवा खिलाकर आरोपी ने अश्लील एमएमएस बना लिया था। दो साल से उसे ब्लैकमेल कर रहा था। पहले उसकी सैलरी में से 5 हजार रुपये लेता था। लेकिन अब 2 लाख रुपये की मांग कर रहा है। कोतवाली सेक्टर 58 पुलिस ने बताया है कि पूजा (बदला हुआ नाम) सेक्टर 63 स्थित एक न्यूज चैनल में 2008 से काम करती है। पूजा को नशीली दवा खिलाकर उसके सहयोगी मुकेश सिन्हा (बदला हुआ नाम) ने अश्लील एमएमएस बना लिया। मुकेश और पूजा असाइनमेंट डेस्क पर काम करते हैं। विडियो को सार्वजनिक करने की धमकी देकर मुकेश पूजा से उसकी सैलरी से 5000 रुपये ले रहा था। पूजा मूल रूप से गुजरात की रहने वाली है। इसी बीच पूजा की शादी उसके घरवालों ने पक्की कर दी। पूजा ने अपनी शादी की बात सभी ऑफिस सहयोगियों को बताई। इस पर मुकेश ने उसे जॉब न छोड़ने की सलाह दी। पूजा नहीं मानी तो उसके मोबाइल फोन से मुकेश ने होने वाले पति का मोबाइल नंबर और ईमेल ले लिया। पति को अश्लील एसएमएस सेंट करने की धमकी देने लगा। इसके बाद मुकेश ने पूजा पर दबाव बनाते हुए जॉब छोड़कर जाने पर 2 लाख रुपये देने की मांग की। इससे परेशान होकर पूजा ने अपने घरवालों का पूरी बात बता दी।''
इस खबर की सच्चाई की तहकीकात के बाद पता चला कि जिस न्यूज चैनल का उल्लेख किया गया है वह सीएनईबी है. जिस कर्मचारी का उल्लेख किया गया है उसका नाम अभिजीत सिन्हा है जो असिस्टेंट प्रोड्यूसर के पद पर कार्यरत थे. जिस लड़की का जिक्र किया गया है वह अवैतनिक इंटर्नशिप करने आई थी और अभिजीत के साथ लिव इन रिलेशन में रहने लगी थी. बाद में दोनों अलग अलग हो गए. लड़की के पिता पुलिस में रहे हैं.
यह भी सूत्रों ने बताया कि लड़की अभिजीत के घर जा चुकी है और अभिजीत भी लड़की के घर हो चुका है. अभिजीत द्वारा प्यार में जुनूनी हो जाने और ओवर रिएक्ट करने की वजह से लड़की और उसके घर वाले बिगड़ गए. मामला इतना बिगड़ गया कि अब मुकदमा दर्ज करा दिया गया है. जो आरोप लगाए गए हैं, उसमें कितनी सच्चाई है, यह तो पुलिस की छानबीन से पता चलेगा लेकिन सीएनईबी से जुड़े सूत्रों का कहना है कि इस प्रकरण से सीएनईबी का कोई लेना देना नहीं है क्योंकि अभिजीत दो महीने पहले ही सीएनईबी से कार्यमुक्त किए जा चुके हैं. कार्यमुक्ति की वजह यही प्रकरण है जिसकी चर्चा फैलने के बाद प्रबंधन ने उन्हें कार्यमुक्त कर दिया.
सीएनईबी से जुड़े लोगों का कहना है कि सीएनईबी प्रबंधन नवभारत टाइम्स समेत उन तमाम मीडिया हाउसों को लीगल नोटिस भेजने की तैयारी कर रहा है जिन्होंने अपने यहां प्रकाशित खबर में आरोपी कर्मचारी (अभिजीत सिन्हा) को न्यूज चैनल में कार्यरत बताया है. सूत्रों के मुताबिक अभिजीत पटना में अपने घर पर हैं. लड़की के दलित तबके से होने के कारण अभिजीत पर कई धाराओं के साथ एससी एसटी एक्ट भी लगाया गया है.
जो भी हो, लेकिन इस पूरे प्रकरण को लेकर सीएनईबी में पूरे दिन अफरातफरी मची रही. दूसरे न्यूज चैनलों से भड़ास4मीडिया के पास ढेरों फोन आए. लोगों ने सच्चाई जानने की कोशिश की. कई ने अपने स्तर पर नई सूचनाएं भी दीं. लेकिन सीएनईबी प्रबंधन का कहना है कि यह दो लोगों के बीच का मामला है. आरोप सही हैं या गलत, यह तो पुलिस की जांच और कोर्ट के फैसले से पता चलेगा पर इतना तो तय है कि सीएनईबी का नाम बेवजह घसीटा जा रहा है. इससे न्यूज चैनल की छवि को धक्का लगा है और जिन लोगों ने ऐसा किया है, उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की तैयारी की जा रही है.
भाजपा का असली एनकाउंटर
भाजपा की दो समस्याएं हैं। एक, वह लंबे समय तक विपक्ष में रही है, इसलिए उसके तेवर हमेशा ही विपक्षी पार्टी वाले ही रहते हैं। वह भूल जाती है कि केंद्र में उसकी सरकार छह साल रह चुकी है। दो, उसकी विचारधारा आरएसएस की विचारधारा है। इस वजह से जब भी उस पर कोई राजनीतिक हमला होता है तो उसे वह अपने मूल, यानी विचारधारा पर हमला मान लेती है और वह एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी होने के नाते अपने और आरएसएस के बीच के फर्क को मिटा देती है। उसके नेता यह भूल जाते हैं कि जब वे सत्ता में आएंगे तो संविधान, लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा करना उनका धर्म होगा।
सोहराबुद्दीन मामले में भाजपा की यह कमजोरी एक बार फिर खुल कर सामने आई है। कठघरे में भाजपा के तीन बड़े नेता हैं। अमित शाह जेल में हैं और राजस्थान के पूर्व गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया और ओम माथुर पर शक है। नरंेद्र मोदी से भी पूछताछ की तैयारी है। ऐसे मंे भाजपा का तिलमिलाना स्वाभाविक है। और यह भी कि वह सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप कांग्रेस पर मढ़े। लेकिन इसकी आड़ में सुप्रीम कोर्ट पर चढ़ाई हो, यह ठीक नहीं है। पार्टी प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी ने बिना नाम लिए सुप्रीम कोर्ट के उन जज की मंशा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया, जिन्होंने रिटायरमेंट के ठीक पहले सीबीआई जांच के आदेश दिए थे।
भाजपा को ऐसा नहीं करना चाहिए, पर उसने सुप्रीम कोर्ट का लिहाज नहीं किया। अदालत के फैसले की आलोचना अलग बात है, पर यह कहना कि रिटायरमेंट के बाद लाभ के मोह की वजह से जांच का आदेश जज महोदय ने दिया, गलत है। यह सुप्रीम कोर्ट की ईमानदारी पर सवाल खड़े करना है, दुर्भाग्य से गुजरात के संदर्भ मंे ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। ये आरोप मोदी पर लगते रहे हैं कि उनकी अगुवाई में दंगों के बाद संवैधानिक संस्थाओं को झुकाने, उन पर दबाव बनाने और मनमाफिक काम करवाने की कोशिश की गई और जिन्होंने बात नहीं मानी, उन पर बिना लागलपेट के हमला किया गया।
दंगों के फौरन बाद विधानसभा चुनाव करवाने के लिए चुनाव आयोग पर दबाव बनाया गया। मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह जब नहीं माने, तो चुनावी सभाओं में उनका पूरा नाम ‘जेम्स माइकल लिंगदोह’ लेकर खुलेआम मजाक उड़ाया गया, यह संदेश दिया गया कि एक ‘ईसाई’ उनके खिलाफ लगा हुआ है। मोदी उस वक्त यह भूल गए कि वे एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं और जब वे लिंगदोह का मजाक उड़ाते हैं, तो कहीं न कहीं चुनाव आयोग नामक संस्था की बेइज्जती करते हैं।
मोदी और भाजपा की दिक्कत यह थी कि लिंगदोह उनके रंग में नही रंगे, जैसे राज्य में पुलिस-प्रशासन के आला अफसर रंग गए, वकील रंग गए और न्यायपालिका को भी काफी हद तक प्रभावित करने का प्रयास किया गया। पुलिस प्रशासन ने दंगों के दौरान तो आंखें मूंदी ही रखीं, दंगों के बाद दंगाई न पकड़े जाएं, दंगा मामलों की ठीक से जांच न हो, सबूतों के अभाव में फाइलें बंद कर दी जाएं और जो मामले अदालतों तक पहुंचे, उनकी ठीक से सुनवाई न हो पाए और जो मुकदमे आगे बढ़े, वो कमजोर हो जाएं और अंत में किसी को सजा न हो, इस बात की पूरी कोशिश की गई।
गुजरात सरकार की ऐसी हरकतों से ही नाराज होकर 22 नवंबर,2006 को अदालत ने साफ कहा था कि गुजरात सरकार पूरी तरह से क्रिमिनल प्रोसीजर कोड को भूल गई है और अदालत क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को डीरेल होने नहीं दे सकती है। अदालत तब तक 2000 से ज्यादा दंगा मामलों की फाइल बंद करने की गुजरात सरकार की कारगुजारी पर नाराजगी जता चुकी थी।
17 अगस्त,2004 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के पुलिस महानिदेशक को आदेश दिया था कि वह इन मामलों की दुबारा समीक्षा करें। अदालत को गुजरात सरकार पर तनिक भी भरोसा नहीं था, इसलिए डीजीपी को यह भी कहा कि वो हर तीन महीने पर उन्हें इन मामलों की प्रगति के बारे में सीधे जानकारी दें। इसी तरह बेस्ट बेकरी मामले में सरकार द्वारा नियुक्त सरकारी वकील की हरकतों से सुप्रीम कोर्ट के जज अरिजीत पसायत आगबबूला हो गए थे।
राज्य सरकार के असहयोग से भड़क कर सुप्रीम कोर्ट ने बेस्ट बेकरी जैसे मामले की सुनवाई गुजरात के बाहर करने की सिफारिश की और मुख्यमंत्री को वाजपेयी के शब्दों की याद दिलाते हुए ‘राजधर्म’ निभाने की नसीहत मुख्य न्यायाधीश वीएन खरे ने दी थी। जस्टिस खरे यह नहीं समझ पा रहे थे कि 44 गवाहों में से 37 अपने बयान से मुकर जाएं और उनसे जवाबी जिरह तक न हो।
मुझे तो लगा था कि गुजरात दंगों से भाजपा ने कुछ सबक लिया होगा, लेकिन अफसोस सोहराबुद्दीन मामले में भी वही हुआ। शुरू से ही मामले को दबाने की कोशिश की गई। जब मामला नहीं दबा तो संवैधानिक संस्थाओं पर हमले किए जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के जज को घेरे में लाने से हो सकता है भाजपा को राजनीतिक लाभ हो, लेकिन संविधान को जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई कैसे होगी? भाजपा को यह सोचना होगा, साथ ही यह भी कि जब वह केंद्र मंे आएगी, तो फिर सुप्रीम कोर्ट का सामना कैसे करेगी?
सोहराबुद्दीन मामले में भाजपा की यह कमजोरी एक बार फिर खुल कर सामने आई है। कठघरे में भाजपा के तीन बड़े नेता हैं। अमित शाह जेल में हैं और राजस्थान के पूर्व गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया और ओम माथुर पर शक है। नरंेद्र मोदी से भी पूछताछ की तैयारी है। ऐसे मंे भाजपा का तिलमिलाना स्वाभाविक है। और यह भी कि वह सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप कांग्रेस पर मढ़े। लेकिन इसकी आड़ में सुप्रीम कोर्ट पर चढ़ाई हो, यह ठीक नहीं है। पार्टी प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी ने बिना नाम लिए सुप्रीम कोर्ट के उन जज की मंशा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया, जिन्होंने रिटायरमेंट के ठीक पहले सीबीआई जांच के आदेश दिए थे।
भाजपा को ऐसा नहीं करना चाहिए, पर उसने सुप्रीम कोर्ट का लिहाज नहीं किया। अदालत के फैसले की आलोचना अलग बात है, पर यह कहना कि रिटायरमेंट के बाद लाभ के मोह की वजह से जांच का आदेश जज महोदय ने दिया, गलत है। यह सुप्रीम कोर्ट की ईमानदारी पर सवाल खड़े करना है, दुर्भाग्य से गुजरात के संदर्भ मंे ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। ये आरोप मोदी पर लगते रहे हैं कि उनकी अगुवाई में दंगों के बाद संवैधानिक संस्थाओं को झुकाने, उन पर दबाव बनाने और मनमाफिक काम करवाने की कोशिश की गई और जिन्होंने बात नहीं मानी, उन पर बिना लागलपेट के हमला किया गया।
दंगों के फौरन बाद विधानसभा चुनाव करवाने के लिए चुनाव आयोग पर दबाव बनाया गया। मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह जब नहीं माने, तो चुनावी सभाओं में उनका पूरा नाम ‘जेम्स माइकल लिंगदोह’ लेकर खुलेआम मजाक उड़ाया गया, यह संदेश दिया गया कि एक ‘ईसाई’ उनके खिलाफ लगा हुआ है। मोदी उस वक्त यह भूल गए कि वे एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं और जब वे लिंगदोह का मजाक उड़ाते हैं, तो कहीं न कहीं चुनाव आयोग नामक संस्था की बेइज्जती करते हैं।
मोदी और भाजपा की दिक्कत यह थी कि लिंगदोह उनके रंग में नही रंगे, जैसे राज्य में पुलिस-प्रशासन के आला अफसर रंग गए, वकील रंग गए और न्यायपालिका को भी काफी हद तक प्रभावित करने का प्रयास किया गया। पुलिस प्रशासन ने दंगों के दौरान तो आंखें मूंदी ही रखीं, दंगों के बाद दंगाई न पकड़े जाएं, दंगा मामलों की ठीक से जांच न हो, सबूतों के अभाव में फाइलें बंद कर दी जाएं और जो मामले अदालतों तक पहुंचे, उनकी ठीक से सुनवाई न हो पाए और जो मुकदमे आगे बढ़े, वो कमजोर हो जाएं और अंत में किसी को सजा न हो, इस बात की पूरी कोशिश की गई।
गुजरात सरकार की ऐसी हरकतों से ही नाराज होकर 22 नवंबर,2006 को अदालत ने साफ कहा था कि गुजरात सरकार पूरी तरह से क्रिमिनल प्रोसीजर कोड को भूल गई है और अदालत क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को डीरेल होने नहीं दे सकती है। अदालत तब तक 2000 से ज्यादा दंगा मामलों की फाइल बंद करने की गुजरात सरकार की कारगुजारी पर नाराजगी जता चुकी थी।
17 अगस्त,2004 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के पुलिस महानिदेशक को आदेश दिया था कि वह इन मामलों की दुबारा समीक्षा करें। अदालत को गुजरात सरकार पर तनिक भी भरोसा नहीं था, इसलिए डीजीपी को यह भी कहा कि वो हर तीन महीने पर उन्हें इन मामलों की प्रगति के बारे में सीधे जानकारी दें। इसी तरह बेस्ट बेकरी मामले में सरकार द्वारा नियुक्त सरकारी वकील की हरकतों से सुप्रीम कोर्ट के जज अरिजीत पसायत आगबबूला हो गए थे।
राज्य सरकार के असहयोग से भड़क कर सुप्रीम कोर्ट ने बेस्ट बेकरी जैसे मामले की सुनवाई गुजरात के बाहर करने की सिफारिश की और मुख्यमंत्री को वाजपेयी के शब्दों की याद दिलाते हुए ‘राजधर्म’ निभाने की नसीहत मुख्य न्यायाधीश वीएन खरे ने दी थी। जस्टिस खरे यह नहीं समझ पा रहे थे कि 44 गवाहों में से 37 अपने बयान से मुकर जाएं और उनसे जवाबी जिरह तक न हो।
मुझे तो लगा था कि गुजरात दंगों से भाजपा ने कुछ सबक लिया होगा, लेकिन अफसोस सोहराबुद्दीन मामले में भी वही हुआ। शुरू से ही मामले को दबाने की कोशिश की गई। जब मामला नहीं दबा तो संवैधानिक संस्थाओं पर हमले किए जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के जज को घेरे में लाने से हो सकता है भाजपा को राजनीतिक लाभ हो, लेकिन संविधान को जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई कैसे होगी? भाजपा को यह सोचना होगा, साथ ही यह भी कि जब वह केंद्र मंे आएगी, तो फिर सुप्रीम कोर्ट का सामना कैसे करेगी?
कश्मीर में युवा आक्रोश को समझना होगा
कश्मीर में हालात काबू से बाहर जा रहे हैं और इस बार कारण सीमा-पार से भेजे गए आतंकियों की कलशनिकोव नहीं, घाटी के किशोरों के हाथों के पत्थर हैं। 11 जून को तुफैल मट्टू की मौत के बाद कश्मीर ऐसा सुलगा है कि सारी तदबीरें उलटी हो रही हैं। जो सेना अपने बैरकों में वापस जा चुकी थी, उसे फ्लैग मार्च करना पड़ा।
जब सरकारी कफ्यरू खत्म होता है तो स्थानीय गरमपंथी बंद का आह्वान कर देते हैं। इस जद्दोजहद में आम कश्मीरी का दो महीना निकल गया है। केंद्र सरकार यह तो स्वीकार करती है कि हालात नाजुक हैं, पर इसका हल क्या हो, इस पर कोई मतैक्य नहीं है।
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह की सरकार के आदेश लगभग अमान्य हो चुके हैं। इस सरकार में कांग्रेस भी शामिल है, जो केंद्र में भी सत्ता में है। घाटी की प्रमुख विपक्षी पार्टी इस आग को बुझाने के बजाय उसमें तेल डाल रही है क्योंकि कांग्रेस ने उसका साथ छोड़ अब्दुल्लाह का हाथ थामा है। राजनीतिकों की घाटी में एक नहीं चल रही। यहां तक कि हुर्रियत के धड़ों की भी बोलती बंद है।
पत्थरबाजी में शामिल युवकों और किशोरों ने कभी कश्मीर में सामान्य हालात नहीं देखे क्योंकि बीस साल से वहां हालात असामान्य रहे हैं। उनको राजनीतिक नेतृत्व में भरोसा नहीं है और यह सबसे बड़ा चिंता का विषय है। यह सच है कि कट्टरपंथी हुर्रियत अपने पाकिस्तानी आकाओं के इशारे पर युवाओं के गुस्से को हिंसक और विध्वंसक बना रही है, पर हुर्रियत को कोसने से जमीनी हकीकत नहीं बदलेगी। गलतियां गिनने की बजाय अभी उन्हें सुधारने की जरूरत है।
हालिया गुस्से के पीछे कारण है केंद्र और राज्य सरकारों का रवैया, जिसने मान लिया कि विकास दर को तेज करने भर से घाटी में खुशहाली छा जाएगी। मानवाधिकार के मुद्दों पर बातें बहुत की गईं, पर ठोस नतीजे में बहुत देर कर दी गई। युवाओं में धैर्य की स्वाभाविक कमी होती है। माछिल की नकली मुठभेड़ एक शर्मनाक घटना थी और दोषी अफसर पर कार्रवाई तुरंत होनी चाहिए थी।
अव्वल तो माछिल होता ही नहीं, बशर्ते पथरीबल के दोषियों को जल्द सजा दी जाती। सुरक्षाबल के एक अफसर ने मेडल और इनाम के लालच में युवकों को खरीदकर मार दिया और मुठभेड़ की संज्ञा दे दी। अगर उस अफसर पर जल्द और सख्त कार्रवाई होती तो युवक नहीं भड़कते। इससे सेना की इज्जत और बढ़ती और देश की भी। इंसाफ के बगैर विकास अर्थहीन है, यह सिर्फ कश्मीर में नहीं, पूरे देश का सच है।
जब सरकारी कफ्यरू खत्म होता है तो स्थानीय गरमपंथी बंद का आह्वान कर देते हैं। इस जद्दोजहद में आम कश्मीरी का दो महीना निकल गया है। केंद्र सरकार यह तो स्वीकार करती है कि हालात नाजुक हैं, पर इसका हल क्या हो, इस पर कोई मतैक्य नहीं है।
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह की सरकार के आदेश लगभग अमान्य हो चुके हैं। इस सरकार में कांग्रेस भी शामिल है, जो केंद्र में भी सत्ता में है। घाटी की प्रमुख विपक्षी पार्टी इस आग को बुझाने के बजाय उसमें तेल डाल रही है क्योंकि कांग्रेस ने उसका साथ छोड़ अब्दुल्लाह का हाथ थामा है। राजनीतिकों की घाटी में एक नहीं चल रही। यहां तक कि हुर्रियत के धड़ों की भी बोलती बंद है।
पत्थरबाजी में शामिल युवकों और किशोरों ने कभी कश्मीर में सामान्य हालात नहीं देखे क्योंकि बीस साल से वहां हालात असामान्य रहे हैं। उनको राजनीतिक नेतृत्व में भरोसा नहीं है और यह सबसे बड़ा चिंता का विषय है। यह सच है कि कट्टरपंथी हुर्रियत अपने पाकिस्तानी आकाओं के इशारे पर युवाओं के गुस्से को हिंसक और विध्वंसक बना रही है, पर हुर्रियत को कोसने से जमीनी हकीकत नहीं बदलेगी। गलतियां गिनने की बजाय अभी उन्हें सुधारने की जरूरत है।
हालिया गुस्से के पीछे कारण है केंद्र और राज्य सरकारों का रवैया, जिसने मान लिया कि विकास दर को तेज करने भर से घाटी में खुशहाली छा जाएगी। मानवाधिकार के मुद्दों पर बातें बहुत की गईं, पर ठोस नतीजे में बहुत देर कर दी गई। युवाओं में धैर्य की स्वाभाविक कमी होती है। माछिल की नकली मुठभेड़ एक शर्मनाक घटना थी और दोषी अफसर पर कार्रवाई तुरंत होनी चाहिए थी।
अव्वल तो माछिल होता ही नहीं, बशर्ते पथरीबल के दोषियों को जल्द सजा दी जाती। सुरक्षाबल के एक अफसर ने मेडल और इनाम के लालच में युवकों को खरीदकर मार दिया और मुठभेड़ की संज्ञा दे दी। अगर उस अफसर पर जल्द और सख्त कार्रवाई होती तो युवक नहीं भड़कते। इससे सेना की इज्जत और बढ़ती और देश की भी। इंसाफ के बगैर विकास अर्थहीन है, यह सिर्फ कश्मीर में नहीं, पूरे देश का सच है।
संसद में महंगाई पर चर्चा पीछे, अवैध खनन और कश्मीर मसले पर हंगामा
नई दिल्ली. लोकसभा में मंगलवार को भी अभी तक महंगाई पर चर्चा शुरू नहीं हो सकी है। सामाजिक विकास के लिए आवंटित पैसा राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर खर्च करने और अवैध खनन का मुद्दा उठा कर विपक्षी सांसदों ने हंगामा शुरू कर दिया। हंगामे के चलते सदन की कार्यवाही शुरू होने के कुछ देर के भीतर ही थोड़े समय के लिए प्रश्नकाल स्थगित करना पड़ा। दोबारा कार्यवाही शुरू होने के बाद भी यही स्थिति बनी रही।
राज्यसभा में भी राष्ट्रमंडल खेलों में कथित भ्रष्टाचार का मामला गूंजा। इस मुद्दे पर हंगामे के बाद सदन की कार्यवाही 12 बजे तक के लिए स्थगित कर दी गई।
नियम 342 का पता ही नहीं
महंगाई पर सदन में चर्चा को लेकर एक सप्ताह के गतिरोध के बाद सोमवार को सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच नियम 342 के तहत चर्चा कराने पर सहमति बनी थी। पर हैरानी की बात है कि ज्यादातर सांसदों को इस नियम के बारे में जानकारी ही नहीं है। मुख्य विपक्षी दल भाजपा सहित तमाम पार्टियों के सांसद लोकसभा की लाइब्रेरी में नियम 342 की जानकारी लेते दिखाई दिए। संसद के कई सदस्यों को याद नहीं है कि इसके पहले इस नियम के तहत कब चर्चा हुई थी। मंगलवार को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने प्रस्ताव पढ़ने के बाद अपनी बात रखते हुए चर्चा की शुरुआत की।
26 जुलाई को मानसून सत्र शुरू होते ही बीजेपी और तीसरे मोर्चे ने महंगाई पर चर्चा कराने की मांग की। सत्ता पक्ष को इसमें आपत्ति नहीं थी, मुद्दा केवल नियम का था। विपक्ष चाहता था कि चर्चा के बाद मत विभाजन हो, लेकिन सत्ता पक्ष इसके लिए तैयार नहीं था। और इसी विवाद में करीब एक सप्ताह तक सदन में कोई कामकाज नहीं हुआ।
सोमवार को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रणब मुखर्जी ने बीजेपी और तीसरे मोर्चे के नेताओं की बैठक बुलाई, जिसमें नियम 342 में चर्चा कराने पर सहमति बनी।
विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के अनुसार 2002 में विपक्ष के नेता मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में इसी तरह के दूसरे नियम 170 के तहत गुजरात दंगों पर चर्चा की मांग की थी। उन्होंने बताया कि 13वीं लोकसभा के गठन के बाद से इस नियम के तहत कभी कोई चर्चा नहीं हुई।
क्या है नियम 342 ?
इस नियम के तहत किसी भी नीति, परिस्थिति या फिर बयान पर संसद में चर्चा के बाद मतदान नहीं होगा। सदन, सदस्य द्वारा प्रस्ताव रखने और अपना भाषण पूरा करने के तत्काल बाद इस पर चर्चा शुरू कर देगा। बहस पूरी तरह इसी मुद्दे पर केंद्रित होगी। बहस के अंत तक इस मुद्दे से अलग कोई दूसरा प्रश्न या विषय नहीं उठाया जा सकेगा। कोई सदस्य नियम-प्रक्रिया का पूरी तरह अनुपालन करते हुए भी यदि कोई दूसरा विषय उठाता है तो इसके लिए स्पीकर और सदन दोनों की सहमति जरूरी होगी।
राज्यसभा में भी राष्ट्रमंडल खेलों में कथित भ्रष्टाचार का मामला गूंजा। इस मुद्दे पर हंगामे के बाद सदन की कार्यवाही 12 बजे तक के लिए स्थगित कर दी गई।
नियम 342 का पता ही नहीं
महंगाई पर सदन में चर्चा को लेकर एक सप्ताह के गतिरोध के बाद सोमवार को सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच नियम 342 के तहत चर्चा कराने पर सहमति बनी थी। पर हैरानी की बात है कि ज्यादातर सांसदों को इस नियम के बारे में जानकारी ही नहीं है। मुख्य विपक्षी दल भाजपा सहित तमाम पार्टियों के सांसद लोकसभा की लाइब्रेरी में नियम 342 की जानकारी लेते दिखाई दिए। संसद के कई सदस्यों को याद नहीं है कि इसके पहले इस नियम के तहत कब चर्चा हुई थी। मंगलवार को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने प्रस्ताव पढ़ने के बाद अपनी बात रखते हुए चर्चा की शुरुआत की।
26 जुलाई को मानसून सत्र शुरू होते ही बीजेपी और तीसरे मोर्चे ने महंगाई पर चर्चा कराने की मांग की। सत्ता पक्ष को इसमें आपत्ति नहीं थी, मुद्दा केवल नियम का था। विपक्ष चाहता था कि चर्चा के बाद मत विभाजन हो, लेकिन सत्ता पक्ष इसके लिए तैयार नहीं था। और इसी विवाद में करीब एक सप्ताह तक सदन में कोई कामकाज नहीं हुआ।
सोमवार को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रणब मुखर्जी ने बीजेपी और तीसरे मोर्चे के नेताओं की बैठक बुलाई, जिसमें नियम 342 में चर्चा कराने पर सहमति बनी।
विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के अनुसार 2002 में विपक्ष के नेता मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में इसी तरह के दूसरे नियम 170 के तहत गुजरात दंगों पर चर्चा की मांग की थी। उन्होंने बताया कि 13वीं लोकसभा के गठन के बाद से इस नियम के तहत कभी कोई चर्चा नहीं हुई।
क्या है नियम 342 ?
इस नियम के तहत किसी भी नीति, परिस्थिति या फिर बयान पर संसद में चर्चा के बाद मतदान नहीं होगा। सदन, सदस्य द्वारा प्रस्ताव रखने और अपना भाषण पूरा करने के तत्काल बाद इस पर चर्चा शुरू कर देगा। बहस पूरी तरह इसी मुद्दे पर केंद्रित होगी। बहस के अंत तक इस मुद्दे से अलग कोई दूसरा प्रश्न या विषय नहीं उठाया जा सकेगा। कोई सदस्य नियम-प्रक्रिया का पूरी तरह अनुपालन करते हुए भी यदि कोई दूसरा विषय उठाता है तो इसके लिए स्पीकर और सदन दोनों की सहमति जरूरी होगी।
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