हिंदुस्तान के तत्कालीन इतिहास में 1984 एक ऐसा वर्ष है, जिस पर कई दुखद घटनाओं के निशान हैं। operation blue star, प्रधानमंत्री की हत्या, सिख विरोधी दंगे और फिर भोपाल गैस त्रासदी, जिसमें तकरीबन 15,000 से 20,000 लोग मारे गए। दोनों ही मामलों में जनजीवन की भयानक क्षति हुई, लेकिन किसी प्रभावी और जिम्मेदार व्यक्ति को इसके लिए दोषी नहीं ठहराया गया और न ही दंडित किया गया। इस दौरान हममें से अधिकांश लोग न्याय की हत्या पर बस कभी-कभार कुछ शेखी बघारते या रिरियाते हुए मूकदर्शक बने रहे।
हाल ही में भोपाल गैस त्रासदी के मामले में हुए फैसले ने सहनशीलता की आखिरी हद भी लांघ दी है। इसके नतीजे में हमारी नाराजगी और विद्रोह का स्वर यह बताता है कि एक राष्ट्र, जनसमूह, सरकार और न्याय व्यवस्था के रूप में हममें कहीं-न-कहीं कुछ गलत तो है, जहां एक कॉरपोरेशन की लापरवाही के कारण असंख्य लोगों की जानें गईं, लेकिन उन्हें कोई सजा नहीं हुई, पूरे मामले को तोड़-मरोड़कर कालीन के नीचे दबा दिया गया, किसी को दोषी नहीं ठहराया गया, जुर्माने के रूप में मामूली सी रकम थमा दी गई और सबसे महत्वूपर्ण बात यह कि पीड़ितों के पुनर्वास और राहत के लिए बड़े दयनीय ढंग से मामूली सी मदद की गई।
हमारी सरकार व्यवस्था में कुछ है, जो बहुत परेशान करने वाला और दुखद है, जहां अपने ही लोगों के दुखों और तकलीफों के प्रति इतनी कम चिंता है। जो लोग कहते हैं कि इस पूरी बहस में बहुत भावुकता और आवेग है, उनसे मेरा कहना है कि इस मामले में यह भावुकता और आवेग बिलकुल उचित है। मृत्यु और इंसानी जिंदगी की क्षति ऐसे मुद्दे हैं, जिनके प्रति भावुक होना चाहिए।
अब जितनी बहसें और विचारों की जुगाली की जा रही है, मैं उम्मीद करता हूं कि एक बात को लेकर हम बिलकुल स्पष्ट हो सकें कि भोपाल त्रासदी के मामले में ठोस जिम्मेदारी तय करने और दोषियों को सजा दिलवाने के मामले में हम कोई समझौता न करें। हम जिस तरह के लोकतांत्रिक देश हैं, वह लोकतंत्र तभी काम कर सकता है, जबकि नियम-कानून एक आम नागरिक से लेकर धनी और कॉरपोरेटों तक सबके ऊपर समान रूप से लागू हों। हमारे देश में लोकतंत्र, सरकार और मीडिया पर पहले ही कॉरपोरेटों और धन का बहुत ज्यादा प्रभाव है।
राजनीति और राजनीतिक विमर्श में बड़े धन का प्रभाव लगातार बढ़ता ही जा रहा है। दुनिया के अन्य विकसित लोकतंत्रों की तरह भारत को भी सबको यह संदेश देना चाहिए, ‘हम नियम-कानून वाले राष्ट्र हैं, आप कानून तोड़िए और आपको उसके नतीजों का सामना करना पड़ेगा। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं।’ भोपाल त्रासदी के मामले में भी यही बात लागू होती है। हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि भोपाल भी ऐसा मामला नहीं है, जहां अपराध को कालीन के नीचे दबा दिया जाए। भोपाल के हजारों दुखी और टूटे हुए परिवारों को न्याय की दरकार है और हम उनके प्रति जिम्मेदार हैं, भले ही अपराधी कितना भी धनी और ताकतवर क्यों न हो।
देश की इस जागी हुई अंतरात्मा को सहलाने के कुछ-न-कुछ प्रयास तो होंगे ही। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसलिए जब मैंने मुंबई के फायनेंशियल आइकॉन दीपक पारेख का ऐसा ही एक वक्तव्य पढ़ा तो मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ, जिसमें वह कहते हैं, ‘मैं मानता हूं कि भोपाल सबसे भयानक त्रासदी थी, लेकिन हम उसे लेकर भावुक नहीं हो सकते। सिर्फ किसी चेअरमैन या सीईओ को जेल में डाल देने से समस्या का समाधान नहीं हो जाएगा।’
यह बहुत ही आश्चर्यजनक वक्तव्य है, जो बताता है कि हमारी व्यवस्था कितनी समझौतापरस्त और पक्षपाती है। श्री पारेख के अनुसार हमें यह भूल जाना चाहिए कि इस लापरवाही के लिए कोई दोषी और जिम्मेदार भी है, सिर्फ इसलिए क्योंकि वह कोई चेअरमैन या सीईओ है या किसी रसूखदार का मित्र है। श्री पारेख यहां गलत हैं। चेअरमैन या सीईओ को दोषी ठहराना कोई बहुत महान बात नहीं है। अगर कोई हमारे देश का कानून तोड़ता है तो चाहे वह चेअरमैन हो या सीईओ या श्री पारेख का मित्र हो, उस व्यक्ति को दोषी ठहराया जाना चाहिए और उसे हमारी व्यवस्था के अंतर्गत इसके नतीजों का भी सामना करना चाहिए।
जब एक आम आदमी पर कानून तोड़ने के लिए मुकदमा चलाया जाता है, तब तो मैं श्री पारेख को ऐसा कहते नहीं सुनता। दरअसल वे दोहरे कानूनों की बात कर रहे हैं। श्री पारेख, माफ करिए, मुमकिन है २६ सालों से ऐसा होता आया हो, लेकिन अब ऐसा बिलकुल नहीं होगा। हम कानून के मामले में इस दोहरेपन को अब बिलकुल चलने नहीं दे सकते। इसी तरीके से हमारी व्यवस्था कानून तोड़ने वालों को एक संदेश दे सकती है। कानून का उल्लंघन करो और तुम्हें इसकी सजा मिलेगी। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किसी फायनेंशियलन आइकॉन के मित्र हैं या नहीं हैं। हम भोपाल के हजारों बेघर दुखी परिवारों के लिए उत्तरदायी हैं।