अनेक ताजा महाघोटालों में नामजद नेताओं, बाबुओं और पूर्व सैन्य अधिकारियों के खिलाफ गुस्सा सारे देश में महामारी बनकर फैलता जा रहा है, पर सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिए राष्ट्रकुल खेलों के वक्त पूरी दुनिया में हमारी किरकिरी करवा गया भ्रष्टाचार का मुद्दा ओबामा की अगवानी या वन्यजीव संरक्षण से अधिक महत्वपूर्ण नहीं बन पाया।
इसलिए प्रधानमंत्री की चार देशों की यात्रा से वापसी के बाद जब अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक हुई, तो इस बीच कई संगीन घोटालों में कई बड़े नाम मीडिया में उछल चुकने के बाद भी भ्रष्टाचार पर दल की नीति का कोई जिक्र नहीं उठा।
कांग्रेस के स्वघोषित अनुशासित सिपाहियों की इस बैठक में तो किसी की मजाल नहीं थी कि शीर्ष नेताओं की मौजूदगी में इस चूक पर ध्यान आकर्षित करता, लेकिन दल के बाहर आम मतदाताओं के बीच जनता की अमानत में खयानत को लेकर जो आक्रोश फनफना रहा है, उसकी अनदेखी करना पार्टी के लिए अब मुश्किल है।
देश के प्रधानमंत्री बहुत सज्जन व्यक्ति भले हों, पर आज देश में अपने गठजोड़ के कलंकित सदस्यों के प्रति उनकी विदेह राजा जनक जैसी उदासीनता (काठ की मिथिला जल भी जाए तो मेरा क्या?) को उनकी दार्शनिक गहराई का प्रमाण मानकर संतुष्ट होने वाले बहुत लोग नहीं मिलेंगे।
हमारी तरक्की के फोब्र्स सूची से लेकर जिनेवा तक अमीरों की दुनिया में भले ही कितने चर्चे क्यों न हो रहे हों, नेतृत्व में भ्रष्टाचारनिरोध की इच्छा या क्षमता को लेकर आज एक घोर निराशा पूरे देश में व्याप्त है। जनता को लग रहा है कि फिलहाल स्वयं उसके लिए परिस्थिति को खुद बदलने के सब रास्ते बंद हैं।
मजबूत विकल्प के अभाव में कांग्रेस को ठुकराकर देश मध्यावधि चुनाव से नई पार्टी को नहीं चुन सकता और कांग्रेस स्पष्टत: मझधार में अपने गठजोड़ के घोड़े बदलने की इच्छुक नहीं दीखती, अश्वमेध तो दूर की बात है। लोकतांत्रिक राजनीति के दायरे के बाहर हर समय लुआठी लिए अरुंधती राय या गिलानी सरीखे लोगों के घरफूंक विकल्प भी कोई समझदार लोकतंत्र स्वीकार नहीं कर सकता।
क्योंकि सारे रास्ते बंद हैं और अगला आम चुनाव, हनोज दूर अस्त। घूम-फिरकर इस उम्मीद पर भारत की जनता कायम है कि मनमोहन सिंह की सरकार ही कुछ कठोर फैसले लेगी। दलीय प्रवक्ताओं, समीक्षकों को तो पार्टी अध्यक्षा द्वारा सादगी और त्याग के गुणों को कांग्रेस द्वारा अपनाने के ताजा आग्रह में एक किस्म की दृढ़ता के संकेत मिल भी रहे हैं, जो सरकार की चिरपरिचित विनम्रता को कड़े फैसले लेते वक्त सतर रीढ़ का सहारा आदि दे सकती है। खैर, यह तो बातें हैं बातों का क्या?
हो सकता है कि प्रधानमंत्री सबकी सुनकर अपने मन की ही करते हों, लेकिन बहुत अधिक समय तक चुपचाप सबकी सुनते रहने से कई बार मन पर भी असर पड़ सकता है। और तब जर्राही का हुनर पास में हो तब भी हाथ काम नहीं करते।
संकल्प की शुभ घड़ी खाली बीतने के बाद बार-बार लीपापोती से ही काम चलाया जाए, तो सरकारें लगातार नई मुसीबतों को न्योतती हैं। सालों से समझौतावादी सरकारों के पसीने छुड़ा रहे बाबरी ध्वंस, चारा तथा ताज गलियारा प्रकरण और 2जी घोटाले सरीखे अनसुलझे मामलों के फिजा में मंडराते बैताल इसका प्रमाण हैं।
मनमोहन सिंह की निजी ईमानदारी या न्यायप्रियता में किसी को अविश्वास नहीं है, लेकिन जिस समय देश उनसे ए राजा या गेम्स घोटाले के अपराधियों को लेकर दो टूक फैसले की उम्मीद कर रहा था, उन्होंने भी औसत कांग्रेसी की तरह भाजपा की तरफ तर्जनी उठाकर अश्वत्थामा हत: ही कह दिया।
राजा को जांच कमेटी रूपी फूल की छड़ी से थपकाना यदि नैतिक संकल्प की कमी दिखाता है तो तीन-तीन कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को लपेटने वाला आदर्श सोसायटी घपला दशक भर से एक महत्वपूर्ण प्रांत के क्षत्रपों की निरंकुशता के प्रति सतत निगरानी का चिंताजनक अभाव दर्शा रहा है।
प्रभावशाली तो यह होता कि दोषियों का सरकारी हुक्कापानी बंद कर उनके खिलाफ और कुछ नहीं तो प्राप्त साक्ष्यों के बूते प्राथमिकी तो दर्ज करा ही दी जाती। पर अभी तो इनमें से कई के पूर्व घोटालों पर सी ए जी तथा सी वी सी की कई गंभीर रपटें उपेक्षित हैं। जिस तरह यह मामला सेवानिवृत्त बाबुओं की जांच कमेटियों को तथ्यों के आकलन के लिए सौंप दिया गया है, वह कार्रवाइर्को सिर्फ खींचेगा, भरोसा बहाल करने वाले दोटूक फैसले नहीं दिलवा सकता।
लंबी जांचों के पक्ष में सरकार के प्रवक्ता केवल एक ही लचर कारण पेश करते रहते हैं कि विपक्ष तथा मीडिया द्वारा लगाए जा रहे आरोप राजनीतिक दुर्भावना और सनसनी फैलाकर निजी लोकप्रियता बढ़वाने की इच्छा से प्रेरित हैं। लोग धीरज धरें और कानूनी कार्रवाई को अपनी राह चलने दें ताकि सही तथ्य सामने लाए जा सकें।
जल्दबाजी में किसी को दागी कैसे ठहराया जा सकता है? इस तर्क पर लोग कितनी दूर तक भरोसा करेंगे, कहना कठिन है। अधिकतर को तो यही लग रहा है कि चंद दीर्घसूत्री जांच समितियां बिठाकर इस बार भी बस एक रस्म अदायगी भर की जा रही है। पुरानी जांच समितियों की ही तरह यह नई समितियां भी सालों साल चलेंगी और सिर्फ लंबे-चौड़े कागजी दस्तावेज पैदा करेंगी, जिस दौरान नए घोटाले पुरानों की याद पर खाक डाल चुके होंगे।
गेम्स घोटाला और आदर्श सोसायटी प्रकरण वर्तमान शासन की दो बड़ी खामियों के प्रतीक हैं। जनता के बीच गेम्स घोटाले की जांच की अविश्वसनीयता साबित करती है कि जांच बिठाने वाले नेतृत्व का निजी तौर से ईमानदार होना ही काफी नहीं है। उसे अपने जांच तंत्र में भी पारदर्शी नैतिकता कायम रखने को प्रामाणिक तौर से दृढ़ और दबंग दिखना होगा।
आदर्श सोसायटी घोटाला बताता है कि सीमित चुनावी स्वार्थो के तहत राज्य में (हजारों किसानों की आत्महत्या, अनेक हाउसिंग सोसायटियों के घपलों तथा पुणो बेस्ट बेकरी से लेकर 26/ 11 की आतंकी वारदातों तक) हर घटना के बाद पुलिस व प्रशासन में उजागर भ्रष्टाचारियों की संगीन मिलीभगत के प्रमाणों की लगातार उपेक्षा हुई है।
लिहाजा आज लगभग पूरा तंत्र भ्रष्टाचारी नेताओं, बाबुओं तथा ठेकेदारों के गिरोहों के कब्जे में है और भ्रष्टाचार हटाने को कोई भी दूरगामी सुसंगत योजना बनाना और फिर उसे ईमानदारी से लागू करना नामुमकिन हो गया है। दोनों खामियां अलग-थलग भी नहीं हैं।
सरकार यदि युद्ध उपकरणों की खरीद के दर्जनों घोटालों अथवा सांसदों की खरीद-फरोख्त के सैकड़ों मामलों के बाद भी व्यवस्था को चुस्त तथा जवाबदेह बनाने में कोई नैतिक रुचि न दिखाए और मुख्यमंत्रियों तथा शीर्ष बाबुओं की नियुक्ति लोकप्रियता या कार्यकुशलता के पैमानों की बजाय दलीय राजनीति के गुप्त तकाजों के तहत होती रही तो आदर्श सोसायटी जैसे घपले लगातार सामने आएंगे।