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Sunday, November 28, 2010

सरकारी माफिया और माफिया की सरकार



प्रसंगवश . सरकार और माफिया में क्या अंतर होता है? अगर गौर से देखें तो हमें इन दोनों के बीच अंतर से ज्यादा समानताएं नजर आएंगी। दोनों ही सुरक्षा मुहैया कराने के ऐवज में पैसा लेते हैं। फर्क इतना ही है कि सरकार इस तरह की वसूली को ‘करवसूली’ कहती है। यदि भुगतान न किया जाए तो दोनों चेतावनी देने में कोताही नहीं बरतते।

लेकिन अगर थोड़ा और गौर से देखें तो एक बुनियादी फर्क नजर आएगा। सरकार द्वारा की जाने वाली वसूली कानूनी प्रक्रिया के तहत होती है, जबकि माफिया का अपना कानून होता है। चोरों के भी अपने उसूल होते हैं। ये कानून आम तौर पर माफिया ‘बॉस’ द्वारा बनाए जाते हैं। हालांकि इन कानूनों के लिए सफाई देने की जरूरत नहीं महसूस की जाती, लेकिन फिर भी कुछ ऐसा कर सकते हैं।

सरकार और माफिया के बीच का फासला तब कम होने लगता है, जब सुरक्षा टैक्स लेने वाली सरकार सुरक्षा करने में नाकाम साबित होने लगती है। ऐसे ही अवसरों पर माफिया सरकार से ज्यादा कानूनसंगत नजर आने लगता है। इसीलिए मुसीबत की घड़ी में झुग्गी झोपड़ी वाले अक्सर पुलिस के बजाय झुग्गी के दादा या ‘भाई’ के पास मदद मांगने जाते हैं।

वे उनके परिवार की रक्षा करते हैं। इस तरह के लोग उस वर्ग के प्रतिनिधि हैं, जिन्हें सरकार सामान्यत: ‘संगठित अपराधी’ कहती है। यह अजीब लगता है कि ‘संगठित अपराधियों’ की कमाई का जरिया है : रियल एस्टेट, जुआ, वेश्यावृत्ति और सुरक्षा। लेकिन वे कभी भी उन लोगों को तकलीफ नहीं पहुंचाते, तो उनके संरक्षण में हैं।

शायद इसी कारण लोग उनमें भरोसा करते हैं। संगठित अपराधियों पर इन लोगों की निर्भरता इस हद तक होती है कि यदि वे चुनाव में खड़े हो जाएं तो उन्हें उस विशेष तबके के वोट हमेशा मिलेंगे, चाहे उन पर कितने ही मामले क्यों न दर्ज हों। यदि समर्थकों का तादाद ज्यादा रही, तो उनके द्वारा चुनाव जीत जाना भी कोई बड़ी बात नहीं।

लेकिन झुग्गी बस्तियों के दादा का सत्ता तक सफर आसान नहीं होता। उसे पता होता है कि सत्ताधारी लोगों को सरकार और राज्यतंत्र का समर्थन हासिल है, जबकि उसके पास हिंसा के अलावा और कोई ताकत नहीं है। जाहिर है, खून-खराबे की धमकी दिए जाने पर उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई जा सकती है।

अक्सर यह देखा जाता है कि किसी गुंडे द्वारा संरक्षित लोगों की संख्या जितनी ज्यादा होती है, उस पर दर्ज पुलिस मामलों की तादाद भी उतनी ही अधिक होती है। उसे पता होता है कि वह अपने समर्थक समुदाय में इजाफा करके ही अपनी ताकत बढ़ा सकता है। हिंसा और दादागिरी बढ़ती जाती है और साथ ही उसके द्वारा संरक्षित बस्तियों की संख्या भी।

इसी तरह एक अपराधी राजनीति के क्षेत्र में पदार्पण करता है और जनता का प्रतिनिधि बन जाता है। लेकिन राजनीति में आने के बावजूद वह कभी अदालत की तरफ नहीं जाता, क्योंकि उसे पता है अदालत में सालों तक सुनवाई चलती रहेगी। हमारी न्याय प्रक्रिया में जितनी सुस्ती रहेगी, उतना ही लोगों का भरोसा न्याय के वैकल्पिक साधनों पर बढ़ता जाएगा। साथ ही सरकार और माफिया के बीच होने वाले संघर्षो में भी इजाफा होता रहेगा।