साठ साल के गणतंत्र में जब कानून का आदर्श कायम होना चाहिए था, तब घोटालों का आदर्श कायम होना बेचैन कर देता है। इस बेचैनी के बीच पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश का 31 मंजिला आदर्श सोसायटी को ढहाने का आदेश एक आश्वस्ति भी है। जयराम रमेश का आदेश यह उम्मीद जगाता है कि यूपीए सरकार के मंत्रिमंडल में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो ठोस कार्रवाई की हिम्मत रखते हैं। समुद्रतटीय और इमारत संबंधी कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए बनी इस इमारत के भीतर राजनीति व नौकरशाही की भ्रष्ट महत्वाकांक्षाओं की दुरभिसंधि है। इसीलिए इसमें रहने वालों को उम्मीद थी कि जब मुख्यमंत्री के रिश्तेदार तक मौजूद हैं तो किसकी हिम्मत है कि कानूनों को ताक पर रखकर उसे मंजूरी न दे।
उनके इसी भ्रष्ट आत्मविश्वास ने उन कम शक्तिशाली लोगों को भी झांसे में ले लिया, जिन्होंने रिटायर होने के बाद अपनी सारी कमाई इस सोसायटी में लगा दी थी। जाहिर है अब वहां गेहूं के साथ घुनों के भी पिसने की स्थिति पैदा हो गई है। इन विडंबनाओं के बावजूद उम्मीद इस बात से बनती है कि देश में अभी भी ऐसे लोग हैं, जो कुछ आदर्श कायम करने के लिए लड़ रहे हैं। सूचना अधिकार कानून ने उन्हें ताकत दी है और एनएपीएम से जुड़े सिमप्रीत सिंह और सामाजिक कार्यकर्ता योगानंद आचार्य के प्रयासों के चलते कानूनों के खुले उल्लंघन को पकड़े जाने में मदद मिली है। पर विकास के अंधे उत्साह में पर्यावरण और शहरी विकास कानूनों का उल्लंघन हो रहा है। दिल्ली में सरकार की नाक के नीचे अक्षरधाम मंदिर और खेल गांव खड़ा हो जाता है। इन पर स्वयं पर्यावरण मंत्री ने भी चिंता जताई है। सवाल यह है कि हम कानून का उल्लंघन करने वाली आदर्श इमारतें खड़ी करने के बजाय क्या विकास की आदर्श स्थितियां तैयार कर पाएंगे?