Thursday, June 26, 2014

मोदी सरकार का एक माह, कैसे आएंगे अच्छे दिन...

नई दिल्ली। अच्छे दिनों की उम्मीद के साथ जनता ने नरेन्द्र मोदी को पूर्ण बहुमत के साथ भारत का प्रधानमंत्री बनाया। उन्हें कामकाज संभाले एक माह हो गया है और लोग उन्हें अब भी आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। 


मोदी ने इस एक माह में अपने काम करने के तरीके से लोगों का दिल जीता है। उनकी सादगी ने जहां सबको प्रभावित किया है वहीं सख्ती से उन्होंने अपने मंत्रियों और सांसदों की फिजूलखर्ची पर भी लगाम लगाई है। 

पहले महीने में ही कामकाज की संस्कृति बदलने में कामयाब रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार की समीक्षा के लिए पूरे पांच साल का वक्त भले ही चाहते हों, लेकिन आकलन अभी से शुरू हो गया है।

यह भी सवाल उठने लगा है ‍कि मोदी राज में अच्छे दिन कैसे आएंगे। कुछ लोग यह मानते हैं कि अच्छे दिन 2019 में आएंगे तो कुछ का मानना है कि मोदी सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का असर छह माह में दिखाई देने लगेगा। 

हालांकि किसी भी सरकार के कार्यकाल की समीक्षा के लिए एक माह का समय कम है लेकिन जिस तरह के वादे मोदी ने जनता से किए थे उससे लोग मोदी राज में किसी चमत्कार की उम्मीद कर रहे थे। इस वजह से भी कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों को सरकार पर हमला करने का मौका मिल गया। 
यूपीए सरकार की तरह ही मोदी सरकार के लिए भी सबसे बड़ी चुनौती महंगाई ही है। एक और सरकार पर सब्सिडी का बोझ कम करने का दबाव है तो महंगाई की मार से आम आदमी का हाल बेहाल है।

रेल किराए और माल भाड़े में भारी वृद्धि से लोग तिलमिला गए हैं। जगह-जगह मोदी सरकार के इस फैसले का विरोध हो रहा है। किराए में वृद्धि के बाद भाजपा के सहयोगी ही नहीं कई भाजपा सांसदों में भी नाराजगी देखी गई। हालांकि सरकार ने इसमें आंशिक राहत देकर लोगों के गुस्से को कम करने का भी प्रयास किया। 

आलू, प्याज, चीनी, तेल जैसी आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ने से भी सरकार की परेशानियां बढ़ती दिखाई दे रही है। इस पर मोदी के मंत्री कह रहे हैं कि अगर बेहतर सुविधाएं चाहिए तो दाम बढ़ाना ही होंगे। 

गैस के दाम बढ़ाने के फैसला भी लगभग तय था लेकिन लोगों के विरोध के डर से सरकार ने अपने कदम वापस खेंच लिए। अगर मोदी सरकार को जनता के दिलों पर राज करना है तो महंगाई पर हर हाल में लगाम लगाना होगी।
मोदी सरकार को रोज नए-नए विवादों से दो चार होना पड़ रहा है। पहले दिल्ली के बिजली संकट ने सरकार को परेशान किया जैसे तैसे बिजली मंत्री ने लोगों को समझाया कि दिल्ली विश्वविद्यालय और यूजीसी के झगड़े ने हजारों छात्रों के भविष्य को दांव पर लगा दिया। 

जब रेल दुर्घटना हुई तो राहत कार्य ठीक से शुरू होने से पहले ही आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। रेल मंत्री और बिहार सरकार ने एक-दूसरे पर जिम्मेदारी ढोलने का प्रयास किया। 

कुछ राज्यपालों को हटाने की कथित कोशिश से विवाद हुआ। उत्तरप्रदेश और छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ने इस्तीफा दे दिया और कई ने इस्तीफे से इनकार कर विवाद को और हवा दी। 

इराक में अगवा किए गए भारतीयों की वापसी के मुद्दे पर भी सरकार को मुंह की खानी पड़ी।
* रेल यात्री किराये और माल भाड़े में क्रमश: 14.2 प्रतिशत एवं 6.5 प्रतिशत की वृद्धि।
* मंत्री समूह और अधिकार प्राप्त मंत्री समूह को खत्म किया।
* विदेशों में जमा काले धन का पता लगाने के लिए विशेष जांच दल गठित।
* मंत्रियों को पहले 100 दिनों का टाइमटेबल तैयार करने के लिए कहा।
* दस बड़ी प्राथमिक नीतियों का खाका बनाया।
* मोदी ने स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में अपनी जीवनी प्रकाशित करने से रोका।
* प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव के रूप में नृपेंद्र मिश्रा की नियुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाले अध्यादेश लाया।
* सरकार के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अधिकारियों में हिंदी भाषा के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए प्रपत्र जारी किया गया। हालांकि यह सिर्फ हिंदी-भाषी राज्यों के लिए है।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल के दौरान किसी भी मुद्दे पर बोलने से बचते थे। मनमोहन सिंह की चुप्पी इस चुनाव में एक बड़ा मुद्दा थी और अपने प्रचार में मोदी ने बड़े ही मुखर अंदाज में उनकी चुप्पी पर सवाल उठाए थे और जनता भी उनकी चुप्पी से नाखुश थी। 

प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी भी बहुत ज्यादा बोलते नजर नहीं आ रहे हैं। चुनाव से पहले हर छोटे-बड़े मुद्दे पर मनमोहन सरकार को आड़े हाथों लेने वाले मोदी की चुप्पी भी लोगों को खल रही है। महंगाई, बिजली, डीयू विवाद आदि पर न तो उन्होंने सोशल ‍मीडिया पर पहले जैसी सक्रियता दिखाई न ही सार्वजनिक रूप से कोई बयान दिया।

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