Friday, October 16, 2015

बीफ पर बहस करने से पहले पढ़ें इससे जुड़े वैज्ञानिक तथ्य

गोमांस के कारण बीफ का मुद्दा देश में गर्माया हुआ है। राजनेता अपनी राजनीतिक रोटियां सेक रहे हैं और उनके गुर्गे आम जनता के बीच एक दूसरे के प्रति जहर घोलने का काम कर रहे हैं। और वैज्ञानिक रिसर्च कर रहे हैं कि बीफ के मानव शरीर या पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ते हैं। इन सबके बीच संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम की रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने बीफ नहीं खाने की सलाह दी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। आप चौंक जरूर गये होंगे, लेकिन यह सच है। चलिये पर्यावरण से जोड़ कर बीफ से जुड़े कुछ रोचक तथ्यों से हम आपको रू-ब-रू करवाते हैं। ये तथ्य यूएनईपी और येल यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट के हवाले से हैं। दिल्ली से आगरा तक कार से जाते हैं, तब जितना कार्बन एमिशन होता है, उतना एक किलोग्राम बीफ से होता है। बीफ के बढ़ते व्यापार के कारण पशुपालन भी बढ़ा यानी पर्यावरण कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा बढ़ी जो उनके पाद से निकलती है। भारत में ज्यादातर पशुओं का पालन-पोषण उन्हें काटने के लिये नहीं दूध और खेती के लिये किया जाता है। दुनिया में उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैसों की 18 प्रतिशत तो पशु मांस से ही होती है। जबकि यातायात की वजह से 15%। यूएन कहता है कि बीफ खाने वाले लोग पर्यावरण प्रेमी नहीं होते हैं, लेकिन बीफ खाने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। गाय या भैंस का 
मीट पर्यावरण के लिये नुकसानदायक होता है। मीट की वजह से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित होती हैं।

मोहन भागवत कैसे बनें मोदी के 'कृष्ण'?

देश के सबसे ताकतवर हस्ती हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. लोकसभा चुनाव में जीत के बाद से ही राजनीतिक के आसमान पर सबसे चमकदार चेहरा बन कर चमक रहे हैं नरेंद्र मोदी. लेकिन क्या आप जानते हैं कि राजनीति की दुनिया से अलग देश में दूसरा सबसे ताकतवर शख्स कौन हैं? दरअसल मोहन भागवत वो शख्स भी है जिन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में सबसे अहम रोल निभाया है.

 
देश के सबसे बड़े संगठन, राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ को चलाते हैं. उनका संगठन, आरएसएस यूं तो जाहिरी तौर पर राजनीतिक गतिविधियों से परहेज करता है लेकिन बीजेपी को चुनावी जंग जिताने में पर्दे के पीछे आऱएसएस औऱ उसके प्रमुख मोहन भागवत का सबसे अहम योगदान माना जाता है. मोहन भागवत का नाम यूं तो मीडिया में कभी-कभार ही चमकता है लेकिन केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने के बाद से वो अक्सर अपने बयानों को लेकर विवादों में घिरते रहे हैं. पिछले दिनों आरक्षण के मुद्दे पर उनके ताजा बयान ने एक बार फिर देश में राजनीतिक माहौल गर्म कर दिया है
राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ यानी आरएसएस को देश के सबसे बड़े संगठनों में से एक माना जाता है. आरएसएस की कमान संघ प्रमुख मोहन भागवत के हाथों में हैं. भागवत साल 2009 में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रमुख बने थे लेकिन संघ प्रमुख बनने के बाद से ही वो अपने बयानों को लेकर ही ज्यादा चर्चा में रहे हैं. केंद्र में बीजेपी सरकार बनने के बाद हिंदुत्व पर दिए उनके बयान को लेकर भी हंगामा खड़ा हो गया था और अब आरक्षण के मुद्दे पर उनके बयान ने देश की राजनीति को गर्मा दिया है. 

गुजरात में पटेल समुदाय को आरक्षण देने के लिए शुरु हुए आंदोलन का नाम लिए बगैर भागवत ने आरक्षण नीति की समीक्षा की मांग उठाई है. आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर को इंटरव्यू देते हुए मोहन भागवत ने कहा है कि आरक्षण को हमेशा राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया गया है. लोग अपनी सुविधा के मुताबिक अपने समुदाय या वर्ग का ग्रुप बनाते हैं और आरक्षण की मांग करने लगते हैं. लोकतंत्र में कई नेता उनका समर्थन भी करते हैं. एक गैर राजनीतिक समिति का गठन होना चाहिए जो समीक्षा करे कि किसे आरक्षण की ज़रूरत है और कब तक?

बिहार चुनाव से पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान को लेकर आरोप प्रत्यारोप का एक नया दौर शुरु हो गया है. आरक्षण के मुद्दे पर राजनीतिक दलों में तलवारें खिंचती रही हैं और आरक्षण की ये बहस आजादी के वक्त से ही चलती रही है. दरअसल आजादी के बाद जब भारत का संविधान बना तो दलितों और आदिवासियों को मुख्य धारा में लाने के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी.

आजाद भारत का संविधान लागू होते ही एससी यानि अनुसूचित जाति के लिए 15 फीसदी और एसटी यानि अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई थी. 1990 में मंडल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग यानि ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई. इस हिसाब से देश में आरक्षण 49.5 फीसदी हो गया और सामान्य वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में 50.5 का हिस्सा रह गया.

लेकिन आजादी के 60 साल बाद आज भी देश में अलग-अलग समुदाय के लोग आरक्षण की मांग का झंडा बुलंद किए हुए हैं. इन दिनों आरक्षण की ताजा आग गुजरात में लगी है जहां हार्दिक पटेल की अगुवाई में पाटीदार समाज खुद को ओबीसी वर्ग में शामिल कराना चाहता है ताकि कॉलेज और सरकारी नौकरियों में उन्हें कोटा मिल सके.


गुजरात में पटेल तो राजस्थान में गुर्जर भी लंबे वक्त से आरक्षण की मांग करते रहे हैं. राजस्थान में बीजेपी की सरकार ने पिछले दिनों गुर्जरों को 5 फीसदी और अगड़ों में आर्थिक रूप से पिछड़ों को 14 फीसदी का आरक्षण देने के लिए दो बिल भी पास कर दिए हैं. खास बात ये है कि इन बिलों के पास होने के बाद अब राजस्थान में 68 फीसदी आऱक्षण हो गया है. जो सुप्रीम कोर्ट की 50 फीसदी आरक्षण देने की सीमा को पार कर गया है और यही वजह है कि देश में आरक्षण के मुद्दे पर बहस एक बार फिर तेज हो गई है.


गुजरात में पटेल समाज से पहले भी आरक्षण की मांग पर आंदोलन होते रहे हैं और सरकारें इन मांगों के सामने झुकती भी रही हैं. महाराष्ट्र में शिक्षा और सरकारी नौकरियों में मराठा समुदाय को 16 फीसदी आरक्षण देने का फैसला हुआ था लेकिन हाईकोर्ट ने मराठों को आरक्षण के फैसले पर रोक लगा रखी है. सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार के उस फैसले को निरस्त कर दिया था जिसमें जाट समुदाय को ओबीसी में शामिल किया जाना था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “जाति एक महत्वपूर्ण वजह है लेकिन सिर्फ जाति पिछड़ापन तय करने का मानक नहीं हो सकती. पिछड़ापन सामाजिक होना चाहिए, सिर्फ शैक्षिक और आर्थिक नहीं.“लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दखल और फैसले के बाद भी आरक्षण का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ चुका है और आरक्षण नीति की समीक्षा की बात कह कर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने इस मुद्दे को एक बार फिर हवा दे दी है.

कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला नरेंद्र मोद जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे. उस समय गुजरता के अंदर एक नई आरक्षण की नीति लाए जहां आरक्षण को जिला स्तर तक उन्होंने सीमित कर दिया. और उन पदों को इंटरचेंजजेबल बनाने से इंकार कर दिया. और यहां तक कि गुजरात में ग्राम पंचायतों में भी अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्गों के लोगों को उन्होने आरक्षण से महरुम कर दिया. तो जो देश के भाजपा के सबसे अग्रिम नेता हैं अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गो को जिस पक्ष का वो होने का दम भरते हैं. ये उनका रवैया था. और शायद आज भी है. और यही रवैया उनके मार्गदर्शक आरएसएस के सरसंघचालक का भी है.

आरक्षण के मुद्दे पर संघ प्रमुख मोहन भागवत विवादों में है लेकिन उनको लेकर विवाद पहली बार नहीं छिड़ा है उनके विवादों की ये कहानी भी हम आपको सुनाएंगे आपको आगे लेकिन उससे पहले देखिए देश की मौजूदा राजनीति में मोहन भागवत होने का क्या है मतलब.

राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है. जिससे करीब तीन दर्जन छोटे बडे संगठन जुड़े हुए हैं इन संगठनों का दायरा पूरे देश में फैला हुआ है. देश के सबसे बड़े ट्रेड यूनियन में से एक भारतीय मजदूर संघ, जिसके करीब दस लाख सदस्य हैं. देश का सबसे बडा विद्यार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और देश की रूलिंग पार्टी भारतीय जनता पार्टी जैसे संघ के कई और संगठन है. जिन्हें संघ परिवार कहा जाता है. संघ परिवार देश भर में शिक्षा, जनकल्याण और हिंदू धर्म से जुड़े कार्यक्रमों समेत कई क्षेत्रों में हजारों प्रोजेक्ट चला रहा है. और संघ परिवार के इन सारे कार्यक्रमों औऱ उद्देश्यों के लिए दिशा निर्देश देना और उनका वैचारिक मार्गदर्शन करने का काम राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के सरसंघचालक का होता है.


मोहन भागवत साल 2009 में जब सरसंघचालक बने थे उस वक्त बीजेपी लोकसभा चुनाव हार चुकी थी. लेकिन भागवत ने हार नहीं मानी वो ना सिर्फ बीजेपी में जबरदस्त बदलाए लाए बल्कि उन्होंने संघ परिवार को चुनावी जंग में बीजेपी की मदद के लिए तैयार भी किया गया. मोहन भागवत कैसे बने संघ के सरताज और कैसे उन्होंने हारी और थकी हुई बीजेपी में फूंक दी एक नई जान?

दरअसल मोहन भागवत ने भारत को हिंदू राष्ट्र बोल कर नए विवाद को जन्म दे दिया था. उन्होंने कहा कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और हिंदुत्व उसकी पहचान है और यह अन्य (धर्मों) को स्वंय में समाहित कर सकता है. पिछले साल अगस्त 2014 में मोहन भागवत ने कटक में कथित तौर पर कहा था कि सभी भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान हिंदुत्व है और देश के वर्तमान निवासी इसी महान संस्कृति की संतान हैं. उन्होंने सवाल किया था कि यदि इंगलैंड के लोग इंग्लिश हैं, जर्मनी के लोग जर्मन हैं, अमेरिका के लोग अमेरिकी हैं तो हिंदुस्तान के सभी लोग हिंदू के रुप में क्यों नहीं जाने जाते? हिंदू राष्ट्र, राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ का सबसे बडा एजेंडा रहा है. ऐसे में हिंदुत्व पर संघ प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान पर भी घमासान मच गया था. 

राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ का प्रमुख बनने के बाद से ही भागवत अपने बयानों को लेकर विवादों में घिरते रहे हैं लेकिन 2014 के चुनाव से पहले जब उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए खुद मोर्चा संभाला तो वो और ज्यादा लाइमलाइट में आ गए थे.

ये धुआं उगलती चिमनियों का शहर है जो महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा बिजली पैदा करने के लिए भी पहचाना जाता है और ये शहर चंद्रपुर, संघ प्रमुख मोहन भागवत का भी शहर है. मोहन भागवत का जन्म तो 11 सितंबर 1950 को महाराष्ट्र के सांगली में हुआ था लेकिन चंद्रपुर की गलियों में ही खेलते- कूदते हुए उनका बचपन गुजरा है. क्योंकि मोहन भागवत के दादा नारायण भागवत महाराष्ट्र के सतारा से चंद्रपुर में आकर बस गए थे. मोहन भागवत के दादा नारायण भागवत राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार के स्कूल के दिनों के दोस्त भी थे यही वजह है कि मोहन भागवत का संघ से पुराना नाता रहा है. उनका संघ से ये तीन पीढ़ियों पुराना कनेक्शन है.

चंद्रपुर के लोकमान्य तिलक विद्यालय से मोहन भागवत ने स्कूल की पढाई पूरी की थी. स्कूल के उनके टीचर आज भी उन्हें एक ऐसे विद्यार्थी के तौर पर याद करते हैं जिससे इतनी कामयाबी की उम्मीद उन्हें भी नहीं थी.

चंद्रपुर से स्कूल की पढाई पास करने के बाद उन्हें शहर के ही जनता कॉलेज में बीएससी में एडमीशन ले लिया था लेकिन उन्होंने ग्रेजुएशन की ये पढाई बीच में ही छोड दी और एक साल बाद ही मोहन भागवत ने चंद्रपुर शहर को भी छोड़ दिया. उनकी जिंदगी का पहला अहम पड़ाव बना महाराष्ट्र का शहर आकोला.

मोहन भागवत ने बीएससी की पढाई छोड़कर अकोला के इसी पंजाबराव कृषि विद्यापीठ में वेटनिरी साइंसेज एंड एनीमल हस्जबेंडरी के कोर्स में दाखिला ले लिया था. स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने आगे पोस्ट ग्रेजुएशन की पढाई के लिए इसी कॉलेज में एडमीशन ले लिया था लेकिन 1975 में उन्होंने ये पढाई बीच में ही अधूरी छोड़ दी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दामन थाम लिया. 


मोहन भागवत की तीन पीढ़ियां संघ से जुडी रही है. मोहन भागवत के दादा नारायण भागवत संघ के स्वयं सेवक थे और उनके पिता मधुकर राव भागवत भी राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक रहें है उन्होंने गुजरात में प्रांत प्रचारक के तौर पर भी काम किया है. आम तौर पर संघ के प्रचारक शादी नहीं करते हैं लेकिन जब मधुकर राव भागवत ने शादी करने का फैसला किया तो वह वापस चंद्रपुर आ गए और चंद्रुपर क्षेत्र के कार्यवाह सचिव पद पर रहे. मोहन भागवत की मां मलातीबाई भी संघ की महिला शाखा सेविका समिति की सदस्य थी. खास बात ये भी है कि मुधकर राव भागवत ने ही बीजेपी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी को संघ में दीक्षित किया था. ये है मोहन भागवत की तीन पीढियों की राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से कनेक्शन की कहानी लेकिन अब सुनिए मोहन भागवत के नरेंद्र मोदी से कनेक्शन की ये कहानी. दरअसल जिन दिनों मोहन भागवत के पिता मुधकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक हुआ करते थे तब उनके संपर्क में पहली बार आए थे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.

आकोला कें पंजाबराव कृषि विद्यापीठ से एनीमल हसबेंड्री में ग्रेजुएशन करने के बाद मोहन भागवत ने कुछ महीनों के लिए चंद्रपुर में ही एनीमल हसबेंड्री डिपार्टमेंट में नौकरी कर ली थी. क्योंकि ग्रेजुएशन के बाद ये दो साल की इंटर्नशिप जरुरी होती थी. लेकिन जब मोहन भागवत एमएससी की पढ़ाई कर रहे थे तब 1975 में उन्होंने अचानक बीच में ही पढाई अधूरी छोड़ी दी. ये वो दौर था जब देश में आपातकाल लगाया गया. ऐसे हालात के बीच मोहन भागवत पढ़ाई छोड़ने के बाद फुल टाइम संघ के प्रचारक बन गए.

आपात काल के दौरान मोहन भागवत ने संघ के लिए भूमिग होकर काम किया. 1977 में उन्हें अकोला में ही संघ का प्रचारक बना दिया गया और बाद में उन्हें नागपुर और विदर्भ क्षेत्रों का प्रचारक भी बनाया गया.

1991 में मोहन भागवत संघ कार्यकर्ताओं के शारीरिक प्रशिक्षण के लिए अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख भी बनाए गए और वे इस पद पर 1999 तक रहे. इसी साल उन्हें सारे देश में पूर्णकालिक काम करने वाले संघ कार्यकर्ताओं का प्रभारी, अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख, बना दिया गया इस तरह मोहन भागवत संघ में तेजी से तरक्की की सीढ़ियां चढते गए.

मोहन भागवत संघ के प्रचारक है और संघ की परंपरा के मुताबिक उन्होनें शादी भी नहीं की है. साल 2000 में जब राजेंद्र सिंह ऊर्फ रज्जू भय्या और एच पी शेषाद्रि ने सरसंघचालक और संघ सरकार्यवाहक के पद से इस्तीफा दिया तो के एस सुदर्शन संघ के नए सरसंघचालक बने और मोहन भागवत सरकार्यवाहक. और आखिरकार साल 21 मार्च 2009 को भागवत संघ के सरसंघचालक बना दिए गए.

मोहन भागवत को करीब से जानने वाले उन्हें एक विनम्र औऱ व्यावहारिक शख्स के तौर पर पहचानते हैं जो संघ को राजनीति से दूर रखने का नजरिया रखता हैं लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह उन्होंने बीजेपी को जिताने और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए खुल कर बैटिंग की उसने संघ के राजनीति से दूर रहने के दावे को चर्चा में ला दिया है. भागवत ने कैसे दूर की मोदी के प्रधानमंत्री बनने की राह में आने वाली रुकावटें?

2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की बुरी हार हुई थी. हार से बीजेपी और संघ में निराशा का माहौल था तो वही गुजरात में लगातार दो चुनावों में जीत के बाद मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली की दावेदारी के लिए अपनी तैयारी भी तेज कर दी थी. इसीलिए उस वक्त चुनाव नतीजों के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी प्रेस कांफ्रेस करके अपने इरादे जता दिए थे कि वो बीजेपी में बड़े परिवर्तन चाहते हैं दरअसल हार के बाद संघ के निशाने पर खास तौर पर लाल कृष्ण आडवाणी और उनकी टीम के वो केंद्रीय नेता थे जिन्होंने इन चुनावों की रणनीति बनाई थी.

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि भाजपा के काम आज के नहीं है, लाखों कार्यकर्ता उनके देश भर में हैं और उन्होंने तपस्या की है इसके चलते उनके पुण्य काम आएंगे ऐसे होता नहीं है. इतने नीचे तक गहराई तक वो काम किया गया है, गांव गांव में लोग मिलते हैं अब अगर गांव में कोई व्यक्ति भाजपा के लिए आखों में आंसू लेकर खड़ा है तो उस पार्टी का पतन नहीं हो सकता जितना होना है.

बीजेपी की हार के बाद ये भी तय किया गया था कि अब पार्टी की कमान लालकृष्ण आडवाणी नहीं बल्कि कोई और संभालेगा लेकिन तब संघ के आगे भी ये सवाल खड़ा था की आडवाणी के बाद आखिर किसे बीजेपी की कमान सौंपी जाए.

वरिष्ठ पत्रकार जयंतो घोषाल बताते हैं कि नरेंद्र मोदी का ब्रांड इक्युटी जो है वो ब्रैड इक्युटी के सामने ना राजनाथ है ना नितिन गडकरी है. बीजेपी का जो अपना संविधान है उसमें तो नरेंद्र मोदी नंबर 1 ब्रैंड है. तो इसलिए आरएसएस ने भी काम्प्रोमाइज किया. उनके जो इएस मैन रोयलिस्ट को छोड़ के एसे एक बन्दे का जिसका एक ब्रैंड है जिसके साथ वर्किग रिलेशनशिप को सुधारा और आगे बढ़ाया तो इसमें मुझे लगता है कि आरएसएस ने सोचा कि नरेंद्र मोदी एक सर्वश्रेष्ठ बेट हैं.

गुजरात में जीत की हैट्रिक लगाने के बाद नरेंद्र मोदी ने 6 फरवरी 2013 को पहली बार दिल्ली के दरवाजे पर दस्तक दी थी. दिल्ली के श्री राम कॉलेज में जब मोदी बोले तो साफ हो गया की अब उनकी अगली मंजिल दिल्ली ही है. लेकिन नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की राह में अभी कई रोड़े बाकी थे और सबसे बडी दीवार बन कर खड़े थे खुद बीजेपी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी. लेकिन मोदी को लेकर संघ में फैसला हो चुका था. इसीलिए बीजेपी ने भी जून 2013 में उन्हें केंद्रीय चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना कर अपना संदेश साफ कर दिया था.

गुजरात से निकलकर नरेंद्र मोदी चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनने में तो कामयाब रहे थे लेकिन मोदी के विरोध में आडवाणी रुके नहीं बल्कि 10 जून को उन्होंने पार्टी के सभी अहम पदों से इस्तीफा भी दे दिया था. औऱ ये पहला मौका था जब संघ ने सीधे तौर पर खुल कर बीजेपी के मामले में दखल दिया. संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आडवाणी को समझाने औऱ मनाने के लिए खुद मोर्चा संभाला.

संघ प्रमुख मोहन भागवत का पहला बडा एक्शन तब हुआ था जब नितिन गड़करी को बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था और उनका दूसरा बड़ा एक्शन था नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना. यहीं नहीं उन्होंने बीजेपी और संघ के अंदर नरेंद्र मोदी की राह की हर रुकावट को साफ करने में अहम भूमिका निभाई. ये मोहन भागवत की ही रणनीति थी कि संघ कार्यकर्ताओं ने चुनाव में सौ फीसदी वोटिंग का लक्ष्य बनाया औऱ उसे काफी हद तक हासिल भी किया. जिसका नतीजा चुनाव में  बीजेपी की बडी जीत के तौर पर सामने आया है औऱ बीजेपी की इस जीत का सबसे चमकदार चेहरा बनकर उभरे हैं नरेंद्र मोदी लेकिन पर्दे के पीछे इस जीत का हकदार एक चेहरा और भी है. 

तलवारें हवा में लहराकर जबरन बंद करवाई दुकानें

पंजाबबंद की काॅल को लेकर वीरवार को बरनाला में कर्फ्यू जैसे हालात रहे। इस दौरान सदर बाजार में सुबह करीब 9 बजे प्रदर्शनकारियों ने तलवारें लहराते हुए दुकानों को जबरन बंद करवा दिया। विरोध में व्यापारियों ने रेलवे स्टेशन के पास रोष जताया।

व्यापार मंडल के प्रधान अनिल बांसल नाणा, यूथ के प्रधान नरेंदर नीटा, मोनू गोयल, हेमंत बांसल, दीपक मित्तल ने कहा कि वह प्रदर्शनकारियों के साथ हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि व्यापारियों को डराकर उनकी दुकानें जबरन बंद करवाई जाए। इसी बीच प्रदर्शनकारी भी वहां धमके। इसके बाद व्यापारी और प्रदर्शनकारी आपस में भिड़ गए। सूचना मिलते ही एसएसपी उपिंदरजीत सिंह घुम्मण, एसपी स्वर्ण सिंह खन्ना, एसपी हरप्रीत सिंह संधू, डीएसपी पलविंदर चीमां, डीएसपी गुरजोत सिंह पुलिस बल के साथ मौके पर पहुंचे और दोनों गुटों को खदेड़ दिया। 

वहीं सभी सरकारी निजी स्कूल/कालेज, बैंक, प्राइवेट अदारे, पेट्रोल पंप के साथ-साथ बस स्टैंड के गेट पर भी ताला लटका रहा। बस स्टैंड चुंगी इंचार्ज लखविंदर सिंह ने बताया कि वीरवार को सुबह 7 बजे तक केवल 9 बसें ही स्टैंड से अपने गंतव्य के लिए निकली। उसके बाद करीब 500 बसें अंदर ही खड़ी रही। बसें ना चलने से लगभग दो लाख के रेवेन्यू का नुकसान हुआ है। 

हाइवेऔर मेन रोड रहे जाम : बंदके दौरान कचहरी चौक, आईटीआई चौक, टी-प्वाइंट, तर्कशील चौक, स्टैंडर्ड चौक, ठीकरीवाला चौक, रायकोट रोड सहित बरनाला-बठिंडा हाईवे, बठिंडा-चंडीगढ़ हाइवे, बरनाला-लुधियाना हाईवे, बरनाला-मोगा हाईवे, बरनाला-मानसा रोड पर यातायात ठप रहा। शाम तक प्रदर्शनकारी सड़कों पर धरना लगाकर बैठे रहे। इस दौरान स्टैंडर्ड चौक पर मरीज को बठिंडा लेकर जा रही एयरफोर्स की एंबुलेंस को प्रदर्शनकारियों ने रोक लिया, लेकिन पुलिस के पहुंचने के बाद एंबुलेंस को जाने दिया गया। एसएसपी उपिंदरजीत सिंह घुम्मण ने कहा कि हालात अब सामान्य हैं। किसी को भी कानून हाथ में नहीं लेने देंगे। 

बरनाला भाजपाजिला प्रधान गुरमीत सिंह हंडियाया ने कहा कि कोटकपूरा में पुलिस की कार्यशैली को लेकर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल को आम लोगों से माफी मांगनी चाहिए। बजरंग दल के जिला संयोजक नीलमणि समाधिया ने भी गांव बरगाड़ी के मामले की निंदा की है। 
पूर्वसांसद राष्ट्रीय सिख संगत के मालवा इंचार्ज एडवोकेट राजदेव सिंह खालसा ने कहा कि बादलों ने सियासी फायदे के लिए कोटकपूरा मामले को जानबूझकर उलझाया। इसलिए घटना की जांच सीबीआई से करवाई जानी चाहिए। खालसा ने दावा किया कि 22 सितंबर को डेरामुखी से मुम्बई में सुखबीर बादल श्री दमदमा साहिब के जत्थेदार गुरमुख सिंह की अभिनेता अक्षय कुमार के घर पर मुलाकात हुई थी। 
 पंजाबमें रोजाना बिगड़ रहे हालातों को देखते हुए केन्द्र सरकार को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर देना चाहिए। यह बात आम आदमी पार्टी के सांसद भगवंत मान ने वीरवार शाम को भदौड़ में बरनाला-बाजाखाना रोड पर जाम लगाए बैठे लोगों सेे कही। सांसद मान ने कहा कि पंजाब में अमन-कानून की स्थिति पूरी तरह से बिगड़ चुकी है।

Thursday, October 15, 2015

पंजाब में भड़की हिंसा, छतों से फेंकी पुलिस पर बोतलें, फूंकी बसें

फरीदकोट (पंजाब). पंजाब के फरीदकोट जिले के बरगाडी गांव में गुरु ग्रंथ साहिब के पन्ने फाडऩे और गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी का मामला हिंसा में तबदील हो चुका है। दो दिन से पंजाब सुलग रहा है। सिख संगठन और पुलिस दोनों ही एक-दूसरे पर पथराव कर रहे हैं। मंगलवार को मोगा और बुधवार को फरीदकोट में जमकर लाठीचार्ज हुआ और स्थिति पर काबू पाने के लिए वाटर केनन का प्रयोग किया गया। सिख समुदाय के लोग पुलिस की और वहां से गुजर रही गाडिय़ों को आग लगा रहे हैं तो उधर, जवाब में पुलिस वाले भी गाडिय़ों में तोडफ़ोड़ करते देखे जा रहे हैं। खबर तो यहां तक आ रही है कि बुधवार को पुलिस के ऊपर छतों से बोतलें फेंकी गई और प्रदर्शनकारियों ने पुलिस के हथियार भी छीन लिए है।

जानकारी के मुताबिक, बुधवार को फरीदकोट के कोटकपुरा में भी सिख समुदाय के लोग धरना-प्रदर्शन कर रहे थे कि पुलिस ने उनको उठाने के लिए सिखों पर लाठीचार्ज कर दिया, जिससे माहौल खराब हो गया और लोगों ने पुलिस पर पथराव शुरू कर दिया है। पुलिस की गाडिय़ा तोड़ दी। आने-जाने वाले ट्रक के शीशे भी तोड़ दिए। पुलिस की गाडिय़ा पलटा दी, वहीं पुलिस ने कई राउंड फायर किए। इस हिंसा में लाठीचार्ज और पथराव में कई पुलिसवाले और लोग घायल हो गए हैं।

उधर, सिख अगुओ का कहना की हम लोग शांत ढंग से अपना रोष-प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन पुलिस ने यहां लाठीचार्ज कर दिया। हमारी मांग है कि गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी करने वाले लोगों पर कार्रवाई की जाए।

बादल अपना कारोबार बढ़ाने में लगे : बाजवा

  

बादल अपना कारोबार बढ़ाने में लगे : बाजवा

सिप्पी की मां ने लिखा चीफ जस्टिस को लेटर- कत्ल में सिटिंग जज की बेटी इन्वॉल्व

सिप्पी की मां ने लिखा चीफ जस्टिस को लेटर- कत्ल में सिटिंग जज की बेटी इन्वॉल्व

पंजाब: धार्मिक ग्रंथ फाड़ने पर दूसरे दिन भी हिंसा, दो लोगों की मौत

चंडीगढ़. पंजाब के फरीदकोट जिले में एक धार्मिक ग्रंथ के पन्ने फाड़े जाने के बाद आसपास के इलाकों में लगातार दूसरे दिन भी हिंसा हुई। फरीदकोट के कोटकपुरा के बहबलकलां गांव में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। इससे भड़के लोगों ने पुलिस की गाड़ियां तोड़ दीं। आने-जाने वाले ट्रक के शीशे तोड़ दिए। पुलिसवालों पर पथराव किया और बोतलें भी फेंकी। भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस को कई राउंड हवाई फायरिंग करनी पड़ी। इस हिंसा में घायल दो लोगों की मौत हो गई।
उधर, बुधवार को ही मोगा के बुट्टर कलां गांव में प्रदर्शन कर रहे लोगों को काबू करने के लिए पुलिस को वाटर कैनन और लाठीचार्ज का सहारा लेना पड़ा। प्रदर्शनकारी यहां लगातार दूसरे दिन सड़कों पर उतरे हुए हैं। हालात से निपटने के लिए मोगा और फरीदकोट जिले में भारी तादाद में पुलिसवालों को तैनात किया गया है। प्रशासन ने लोगों से शांति बरतने की अपील की है।
क्या है मामला? 
फरीदकोट के बरगाड़ी गांव में मंगलवार को धर्मग्रंथ के फटे हुए पन्ने मिलने के बाद इलाके में तनाव फैल गया था। पुलिस ने कुछ पन्ने बरामद किए, लेकिन लोग विरोध-प्रदर्शन पर उतर आए। हालात सबसे ज्यादा खराब मोगा के बुट्टर कलां में हो गए, जहां लोगों ने मोगा-बरनाला रोड जाम कर दिया। पुलिस ने लाठीचार्ज और हवाई फायर किए, लेकिन प्रदर्शनकारी काबू में नहीं आए। 

Friday, October 9, 2015

बादल अपना कारोबार बढ़ाने में लगे : बाजवा

जिसदेश का राजा व्यापारी हो भगवान भी उस देश नू बर्बाद होन तो नइ बचा सकदा। पंजाब दे बर्बाद होन दा कारण एह ही है। यह बात प्रदेश कांग्रेस के प्रधान प्रताप सिंह बाजवा ने हंडियाया में पत्रकारों से बातचीत में कही। उन्होंने कहा कि बादल परिवार सिर्फ अपना कारोबार बढ़ाने में लगा हुआ है। 

बाजवा ने आरोप लगाया कि बादलों ने इसके अलावा अवैध तौर पर रेत, बजरी, लोगों के ढाबे फैक्ट्रियों पर गुंडा टैक्स लगा रखा है। वहीं नशे का कारोबार भी इनकी देखरेख में ही चल रहा है। बादल परिवार को सिर्फ यह फिक्र है कि अपने व्यापार को कैसे बढ़ाया जाए। उन्होंने प्रदेश में खराब हुई नरमे की फसल के लिए बादल सरकार को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि मंत्री तोता सिंह ने मुख्यमंत्री की शह पर ही घटिया कीटनाशक को मंजूरी दी, जिससे नरमे की फसल पूरी तरह से बर्बाद हो गई और इसके सदमे में एक दर्जन किसान आत्महत्या कर गए हैं। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल उपमुख्यमंत्री सुखवीर बादल को नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे देना चाहिए। 

सोनियाराहुल जिसे कमान सौंपेंगे, मंजूर होगा 

प्रदेशकांग्रेस में प्रधानगी को लेकर मचे बवाल पर उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय प्रधान सोनिया गांधी राहुल गांधी जिसे भी प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपेंगे वह उन्हें मंजूर होगा। इस मौके पर जिला प्रधान परमजीत सिंह मान, सूरत सिंह बाजवा, अमरजीत काका, महेश लौटा, शम्मी ठुल्लीवाल, परमात्मा सिंह, एडवोकेट सर्वजीत सिंह, राजवंत सिंह भद्दलवड हाजिर थे।

Thursday, October 8, 2015

लालू, शाह व ओबैसी के खिलाफ F I R दर्ज


पटना। चुनाव प्रचार के दौरान अनाप- शानाप बोलने राजद के मुखिया लालू प्रसाद यादव ही नहीं बल्कि भाजपा सुप्रीमो अमित शाह व एमआईएम नेता अकबरुददीन ओबैसी के खिलाफ भी रपट दर्ज कर ली गयी है। अमित शाह को नरभक्षी कहने को लेकर लालू यादव के खिलाफ पटना के सचिवालय थाने में एफआईआर दर्ज कराई गई है। ज्येष्ठ पुलिस अधीक्षक विकास वैभव ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि लालू यादव के खिलाफ आईपीसी की धारा 177(सी)2(बी), 177(एफ) तथा 188 के तहत मामला दर्ज किया गया है। पुलिस मामले की जांच में जुटी है। उधर बेगूसराय में अमित शाह के खिलाफ लालू को ’चारा चोर’ कहने पर एफआईआर दर्ज की गई है। निर्वाचन आयोग के अफसर आर. लक्ष्मणन ने अमित शाह के खिलाफ एफआईआर दर्ज किए जाने की बात स्वीकार की है। इसी प्रकार एमआईएम नेता अकबरुददीन ओबैसी के खिलापफ बिहार के किषनगंज जिले के सोनाथा क्षेत्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को षैतान और दहशतगर्द कहने के लिए मुकदमा दर्ज किया गया है।
याद दिला दें कि अमित शाह ने बेगूसराय के संघौल ओपी मुफस्सिल थाना क्षेत्र में 30 सितम्बर को एक चुनावी सभा के दौरान लालू प्रसाद को ‘चारा चोर’ कह कर संबोधित किया था। आईपीसी की धारा 177(सी)2(बी) के मुताबिक किसी भी व्यक्ति पर ऐसी टिप्पणी करना, जिससे उसकी सामाजिक छवि को ठेस पहुंचे। वहीं, धारा 177(एफ) के अनुसार चुनाव के दौरान टिप्पणी से प्रभाव डालने और 188 के तहत सरकारी दिशा-निर्देशों को धता बताने के आरोप में पुलिस ने मामला दर्ज किया है। जानकारों के मुताबिक इन धाराओं के तहत दोष साबित होने पर पांच साल तक की सजा का प्रावधान है।
इसी प्रकार हिन्दुओं के बीफ खाने वाले लालू के बयान के खिलाफ मुजफ्फरपुर सीजेएम कोर्ट में शिकायत की गई है। इस मामले पर कोर्ट में 24 नवंबर को सुनवाई होनी है। मुजफ्फरपुर के रहने वाले रुपक कवि ने केस दर्ज कराया है। इससे पहले सोमवार को दरभंगा के बेनीपुर में वकील शंभु कुमार ठाकुर ने भी एसीजेएम कोर्ट में लालू के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी।

लैपटॉप में आपत्तिजनक फोटो- सिप्पीके लैपटॉप की जांच में पुलिस को एक लड़की की आपत्तिजनक तस्वीरें मिली हैं।

चंडीगढ़. पंजाब के नेशनल शूटर एडवोकेट सुखमनप्रीत उर्फ सिप्पी सिद्धू के मर्डर केस में पुलिस को सिप्पी के लेपटॉप से कुछ ऐसे सबूत मिले हैं जो इशारा करते हैं कि उसका कत्ल आखिर किया क्यों गया। इसके पीछे अलग-अलग लड़कियों की पोर्न मूवीज हो सकती हैं। पुलिस को इसके सबूत मिल गए हैं। अब पुलिस जांच रही है कि कहीं इसके साथ ही ब्लैकमेलिंग का एंगल तो नहीं जुड़ा है। यह पोर्न मूवीज और फोटोग्राफ्स किसी एक लड़की की नहीं, बल्कि अलग-अलग लड़कियों की हैं। सूत्रों के मुताबिक सिर्फ एक फोटो ऐसी है जिनमें सिप्पी नजर नहीं रहा है, बाकी सब में उसकी मौजूदगी है। इन आपत्तिजनक फोटो और मूवीज में सेक्स टॉयज का इस्तेमाल किया गया है। वहीं, मूवीज और फोटो से ऐसा नहीं लगता कि मूवी किसी स्पाई कैम से बनाई गई। ऐसा लगता है जैसे जिनकी मूवी बन रही है उन्हें इसकी जानकारी थी।
उधर, सूत्रों की माने तो सिप्पी मर्डर केस में सीएम प्रकाश सिंह बादल ने दोबारा यूटी पुलिस से पूछा है कि आखिर केस का 
स्टेटस क्या है और अभी तक हत्यारों को गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया है। सूत्रों के मुताबिक बादल ने एसएसपी सुखचैन सिंह 
गिल को जल्द केस सुलझाने के लिए कहा है। इससे पहले जब सिप्पी का कत्ल हुआ था, तो अगले दिन ही बादल सिप्पी के घर
 पहुंचे थे और उन्होंने यूटी पंजाब पुलिस से केस को सुलझाने के लिए कहा था। बता दें कि सिप्पी का परिवार सीएम बादल के 
परिवार के काफी करीबी है।
20 सितंबर रविवार की रात नेशनल शूटर और हाईकोर्ट के एडवोकेट की सेक्टर-27 बी के पार्क में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। पुलिस वहां पहुंची और जांच के बाद मृतक की पहचान मोहाली- 3 बी 2 के रहने वाले 35 साल के सुखमनप्रीत उर्फ

 सिप्पी सिद्धू के रूप में हुई। सुखमनप्रीत को दो गोलियां मारी गई थी। एक गोली छाती और दूसरी गले पर लगी हुई थी। जेब से मिले दस्तावेजों के आधार पर शव की पहचान की गई। मृतक की कार सेक्टर-27 प्रेस क्लब के पीछे लगे पार्क की पार्किंग से

 मिली थी। हालांकि, उसका शव 200 मीटर की दूरी पर बरामद हुआ है। शव पार्क के अंदर गिरा हुआ था। सुखमनप्रीत को तुरंत जीएमएसएच-16 लेकर जाया गया, जहां पर डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।

केस में जज की लड़की से पूछताछ सबसे जरूरी है। सिप्पी की मां भी कह चुकी हैं कि कत्ल की रात सिप्पी जज की बेटी से ही मिलने गया था। केस की जांच कर रहे अफसर दबी जुबान में कबूल रहे हैं कि एक बार जज की बेटी से पूछताछ हो, फिर केस खुल जाएगा। लेकिन पुलिस जज की बेटी से पूछताछ की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। बुधवार को भी पुलिस ने जज की बेटी से पूछताछ की कोशिश नहीं की। इसी के चलते अब पुलिस पर उंगलियां उठने लगी हैं। पुलिस सिप्पी के दोस्तों को तो बिना कारण लगातार पूछताछ के लिए दिनभर पुलिस स्टेशन में बिठाए रखती है। जब जज की बेटी की बात उठती है तो पुलिस चुप्पी साध लेती है। एक बड़े अधिकारी से इस बारे में बात की गई कि जज की बेटी से पूछताछ अब तक क्यों नहीं की गई,तो उनका कहना था कि ऐसे केस में फूंक फूंककर कदम रखना पड़ रहा है।
यूटी पुलिस को शूटर सुखमनप्रीत उर्फ सिप्पी के मोबाइल से अनलॉक होने के बाद 3 हजार मोबाइल नंबर सेव मिले हैं। इनमें से कई लोगों से पुलिस बातचीत कर सकती है। साथ ही पुलिस सिप्पी के परिवार के करीबी माने जाने वाले एक शख्स से भी पूछताछ करने की तैयारी कर रही है। हालांकि उस शख्स का नाम अभी बताया नहीं गया है। साथ ही सिप्पी के मोबाइल फोन से पुलिस को कई अहम सबूत भी मिले हैं। उधर, रविवार को सेक्टर-8 के गुरुद्वारा में सुखनप्रीत सिंह उर्फ सिप्पी के भोग का आयोजन किया गया। भारी संख्या में लोग उनके भोग में पहुंचे
 चंडीगढ़ पुलिस ने गोरखपुर से दो शार्प शूटर्स को दबोच लिया है। दोनों ने गुनाह कबूल लिया है और पुलिस को बताया है कि सिप्पी के कत्ल की सुपारी एक लड़की ने दी थी। दोनों को पुलिस चंडीगढ़ लेकर रही है। शुक्रवार को पुलिस शूटर्स से जज की बेटी की शिनाख्त कराएगी। पुलिस के पास पुख्ता सबूत हैं कि सिप्पी के कत्ल के वक्त मौके पर मौजूद लड़की जज की बेटी ही थी। इस केस में जज की भूृमिका की भी अलग से जांच की जा सकती है। पुलिस इसके लिए चीफ जस्टिस से मिलने की तैयारी में है। 
मेरठ, दिल्ली, मुरादाबाद, बरेली, लखनऊ, गोरखपुर और मुजफ्फरपुर के बीच लोग आते रहे जाते रहे मगर चर्चा बस बिहार चुनाव की। हर जगह बिहार चुनाव की गर्माहट महसूस की जा सकती थी। यूपी में पंचायत चुनाव चल रहा है मगर वहां की चौपाल में भी बिहार चुनाव छाया रहता है।
मेरठ से दिल्ली तीन घंटे-बस का सफर: ‘शाम में अमेरिका और दूसरे दिन सबेरे बांका में थे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। भाई साहब, तन होगा अमेरिका में मन तो बिहार में ही होगा। यूपी और बिहार कहने को तो राज्य है मगर यहां के चुनाव का मतलब देश का चुनाव होता है। बड़े-बड़े सुरमाओं की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है।’ आगे से दूसरी सीट पर मेरे बगल में बागपत के हरिओम भड़ाला बैठे थे। उनके हाथ में अखबार था और अंदर के पन्ने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की फोटो। बिहार केबांका जिले में एक कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे।
भड़ाला ने ठेठ हरियाण्वी अंदाज में कहा ‘भाई देक्खो, यू मोदी कल अमरिका में था, आज्ज बांका में। वोट लेण अमरिका से उड़ के चला आ’। हमने जब पूछा ताऊ बिहार चुनाव की खबर पढ़ते हो और फिर क्या बस में तीन घंटे का सफर बिहार चुनाव के नाम पर कट गया। हरिओम के बगल में बैठे मोदीनगर के राजीव त्यागी ने कहा अभी तो बस बिहार चुनाव ही है। भाजपा से लेकर कांग्रेस तक की प्रतिष्ठा दांव पर है। बिहार के चुनावी समीकरण की बारीकियों को समझाते हुए हरिओम भड़ाला ने कहा कि भाजपाकांग्रेस तो है ही असली हीरो तो नीतीश और लालू हैं। उनकी प्रतिष्ठा भी दांव पर है। हर पार्टी ने अपना घोड़ा खोल रखा है और उसे रोकने के लिए दूसरे लोग उनके पीछे पड़े हैं। चुनाव दिल्ली जैसा होगा। अंत तक किसी को पता नहीं चलेगा कि ऊंट किस करवट बैठेगा। पीछे से आवाज आती है ताऊ बिहार में पंचायत नहीं विधानसभा का चुनाव है। दोनों एक जैसा कैसे होगा। दरअसल यूपी में अभी पंचायत चुनाव चल रहा है।
बिहार में अब सिर्फ दलितों और पिछड़ों की राजनीति नहीं हो रही, इसकी राजनीति का नया रुझान महादलित और अति पिछड़ों से जुड़ा है। ये दो श्रेणियां बताती हैं कि जिन्हें हम दलित और पिछड़े वर्गों की तरह देखते हैं, उनका स्वरूप हर जगह एक सा नहीं है। इन वर्गों के भीतर भी गैर-बराबरी, ऊंच-नीच या भेदभाव है। इसके चलते संसाधनों का समान वितरण नहीं हो पाता। इनके भीतर भी ऐसी श्रेणियां हैं, जो सरकार से मिलने वाली सुविधाओं और योजनाओं के ज्यादातर हिस्से को आसानी से हासिल कर लेती हैं और इनका लाभ नीचे तक पहुंचने नहीं देतीं। कई कारणों से ये वंचित श्रेणियां बाकी पिछड़ों व दलितों से पीछे रह जाती हैं।
अति पिछडे़ और महादलित जैसे सामाजिक समूह एक तो छोटी संख्या वाली जातियां होती हैं। दूसरे इनका बसाव किन्हीं विशेष जगहों पर केंद्रित न होकर फैला और छितराया हुआ होता है। यानी लोकतांत्रिक राजनीति में इनका संख्याबल ज्यादा नहीं होता। फिर फैली हुई और बिखरी हुई बसाहट के कारण इन समूहों के वोट चुनावों में प्रभावी स्थिति में भी नहीं होते। शिक्षा के अभाव के कारण इनमें कोई बड़ा राजनीति नेतृत्व विकसित नहीं हो पाता। ऐसे तमाम सामाजिक और आर्थिक कारण हैं, जिनके चलते इनका राजनीतिकरण भी तेजी से नहीं हो पाता और ये जनतांत्रिक राजनीति में अदृश्य सामाजिक समूह बनकर रह जाते हैं। आमतौर पर कोई राजनीतिक दल इन्हें ज्यादा महत्व नहीं देता। लेकिन जब कोई राजनीतिक दल इनके बीच काम करता है, तो धीरे-धीरे ये छोटे-छोटे सामाजिक समूह लामबंद होकर राजनीति के समीकरण को बदलने की क्षमता रखने लगते हैं।
राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में अति पिछड़ों का मत निर्णायक होगा। बिहार में पिछड़े वर्ग की लगभग 51 प्रतिशत आबादी में करीब 24 प्रतिशत अति पिछडे़ हैं। इनमें लगभग 94 जातियां हैं, जिनमें कुशवाहा, तेली जैसी थोड़ी बड़ी जातियों को अगर छोड़ दें, तो निषाद, चंद्रवंशी (ततवां, धानुक, गड़ेरिया) जैसी जातियों की आबादी काफी कम है। उत्तर बिहार में निषाद की संख्या थोड़ी प्रभावी है। अति पिछड़़ों में आने वाली जातियों को बिहार में पचपनिया, पंचपवनियां जैसे नामों से पुकारा जाता रहा है। सामंती यजमानी व्यवस्था में ये जातियां अपनी सेवा के बदले सामंतों-मालिकों से अपना हिस्सा लेकर जीविका निर्वाह करती थीं। सेवा से जुड़ी जाति होने के कारण अनेक गांवों में तो इनकी संख्या दो या तीन घर से ज्यादा नहीं होती, क्योंकि इनकी जरूरत खास मौकों जैसे शादी-ब्याह, मृत्यु तथा विभिन्न संस्कारों में होती थी। इनके अतिरिक्त इनकी जरूरत ज्यादा नहीं होती थी। पारंपरिक रूप से ये खेतिहर, श्रमिक नहीं होते थे, जिनकी जरूरत गांवों में ज्यादा थी। इसीलिए ये बिखरी हुई व छोटी आबादी वाली जातियां हैं। अकेली जाति के रूप में इनका आधार बहुत बड़ा नहीं होता, इसलिए इन जातियों से नेता नहीं पैदा हो सके हैं। आजादी के बाद की बिहार की राजनीति को अगर देखें, तो इन समूहों से बड़े नेता कम ही दिखाई पड़ते हैं। उत्तर बिहार में निषाद समूह की संख्या ज्यादा है, इनमें जरूर समय-समय पर नेता उभरते रहे हैं। अति पिछड़ों की अनेक जातियां इसीलिए अपने को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की भी मांग करती रही हैं, क्योंकि ये पिछड़ों में आगे बढ़ी जातियों की स्पद्र्धा में टिक नहीं पातीं। इसी कारण से वे आरक्षण का लाभ नहीं ले पा रही हैं। इन्हें महसूस होता है कि इस जनतंत्र में उनकी जितनी हिस्सेदारी है, वह उन तक नहीं पहुंच पा रही है।
पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुडे़ संगठन अपने ‘सामाजिक समरसता अभियान’ के तहत इन जातियों के अस्मिता-बोध और हिंदू गौरव को जगाकर उन्हें अपने से जोड़ने की कोशिश करते रहे हैं। इसके लिए इन जातियों पर आधारित अनेक हिंदू सम्मेलन भी आयोजित किए जा चुके हैं, जिनमें अनेक जाति नायकों का गौरवगान हिंदू अस्मिता के विस्तार के रूप में किया जाता है और साथ ही इन जातियों के वंचित होने के एहसास को सहलाकर उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिश की गई है। ऐसे कई जातीय सम्मेलन पिछले कुछ वर्षों में भारतीय जनता पार्टी ने भी किए हैं। इतना ही नहीं, भाजपा ने इन जातियों में से कई नेताओं को इस विधानसभा चुनाव में टिकट भी दिए हैं। इसलिए संभव है कि इनमें से कुछ प्रतिशत मत भाजपा को मिले भी। वैसे कई और कारण हैं, जिनके चलते भाजपा अपने को अति पिछड़े वर्ग का नजदीकी घोषित कर रही है। पहला- नरेंद्र मोदी खुद वैश्य समुदाय से आते हैं, जो बिहार में अति पिछड़े वर्ग का हिस्सा है। दूसरा, सुशील मोदी, जो कि बिहार में भाजपा के सबसे बड़े नेता हैं और मुख्यमंत्री पद के एक सशक्त दावेदार भी हैं, वह भी वैश्य समाज से आते हैं। तीसरा उपेंद्र कुशवाहा, जो राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता हैं और एनडीए में शामिल हैं, वह भी अति पिछड़ी कुशवाहा जाति से आते हैं। इसलिए अति पिछड़ी जातियां जैसे कुशवाहा, सोढ़ी, तेली, जो कि व्यापारिक जातियां भी हैं, भाजपा व एनडीए को वोट दे सकती हैं।
अति पिछड़े मतों पर महागठबंधन का दावा भी सशक्त है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन ने इनका राजनीतिक महत्व समझते हुए इनमें से कुछ समूहों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी दिया है, पर महागठबंधन और एनडीए, दोनों की राजनीति में इन्हें पर्याप्त स्पेस दिए जाने की अब भी जरूरत है। नीतीश कुमार इन जातियों का समर्थन पाने का दावा कर रहे हैं, क्योंकि उनका मानना है कि पिछड़े में अति पिछड़ों की श्रेणी उन्होंने ही बनाई, उनको सांविधानिक दर्जा दिया और स्थानीय निकाय चुनावों में 17 प्रतिशत आरक्षण भी दिया। उनका मानना है कि ये जातियां चुनाव में उनकी तरफ ही जाएंगी। दिन-ब-दिन बिहार की राजनीति में ‘बिखरे-छितराए’ समूहों की भूमिका बढ़ती जाएगी। राजनीतिक प्रतिनिधित्व, अस्मिता बोध के साथ ही इन्हें विकास योजनाओं में भी पर्याप्त हिस्सेदारी दिए जाने की जरूरत है।
देखना यह है कि इस बिहार विधानसभा चुनाव में इन 94 अति पिछड़ी जातियों का कितना प्रतिनिधित्व होता है। देखना यह भी है कि आधार तल पर ये जातियां अतिरिक्त पिछड़े वर्ग की एकता को स्वीकार कर आगामी चुनाव में मत दे पाती हैं या नहीं। इनका राजनीतिक भविष्य इनके विकास के भविष्य से भी जुड़ा है, जिसके लिए जरूरी है कि ये छितराई-बिखरी छोटी-छोटी जातियां वर्तमान स्थिति से निकलकर अति पिछड़ों की बड़ी श्रेणी के रूप में संगठित हों और एक बड़े बोट बैंक में तब्दील होकर जनतंत्र का दरवाजा खटखटाएं ।
     


बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में किंगमेकर बनने का सपना बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भी देख रही है। पार्टी के पदाधिकारियों की मानें तो बिहार में बसपा के सहयोग के बिना किसी की सरकार नहीं बनेगी।

पार्टी की इच्छा है कि चुनाव के दौरान बसपा को कम से कम इतनी सीटें जरूर मिल जाएंगी, जिससे वह किंगमेकर बनने की स्थिति में खड़ी हो सके। बसपा बिहार चुनाव में इस बार पूरा दम लगा रही है।

यूं तो बसपा बिहार में वर्ष 1995 से ही विधानसभा चुनाव लड़ती आ रही है लेकिन कभी भी उसको ज्यादा सीटें नहीं मिली। वर्ष 1995 में हुये चुनाव में बसपा को केवल दो सीट से ही संतोष करना पड़ा था। 

1995 के बाद वर्ष 2000 में बिहार में हुये विधानसभा चुनाव में पार्टी को पांच सीटें मिलीं, तो 2004 में पार्टी को केवल चार सीटें ही मिल पायीं। पिछले विधानसभा चुनाव में स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि बसपा का खाता भी नहीं खुला। 

उप्र में सत्ता गंवाने के बाद से ही बसपा के दिन अच्छे नहीं चल रहे हैं। विधानसभा में मुंह की खाने के बाद 2014 में सम्पन्न हुये लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को काफी निराशा हाथ लगी थी। पार्टी उप्र में एक भी लोकसभा सीट जीतने में कामयाब नहीं हो पायी। 
पार्टी के रणनीतिकारों के मुताबिक, बसपा की मुखिया मायावती को बिहार चुनाव से भी बड़ी उम्मीदें हैं। पार्टी का मानना है कि बिहार में अच्छे प्रदर्शन के बाद उत्तर प्रदेश में एक बार से पार्टी का ग्राफ बढ़ेगा और इसका लाभ 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी मिलेगा।
पार्टी सूत्रों की मानें तो पार्टी की नजर उन सीटों पर है, जहां बसपा ने पिछले चुनावों में अच्छा वोट हासिल किया था। ऐसी सीटों का ब्यौरा तैयार किया जा रहा है और उन इलाकों में खासतौर से मायावती की रैलियों का आयोजन किया जायेगा। मायावती 9 अक्टूबर से बिहार में रैलियों को सम्बोधित करने की शुरूआत करेंगी।
बिहार चुनाव के प्रभारी रामअचल राजभर के मुताबिक, पार्टी बिहार विधानसभा का चुनाव पूरे दमखम के साथ लड़ रही है। उन्होंने कहा कि पार्टी 100 से अधिक सीटों पर मजबूती के साथ लड़ रही है। सीटें कितनी मिलेंगी अभी कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना मानकर चलिये कि इस बार बिहार में बसपा के सहयोग के बिना किसी की सरकार नहीं बनेगी। बसपा ही किंगमेकर होगी।
देश के जो सामाजिक समूह अभी काफी पिछड़े और आवाजहीन हैं, राजनीतिशास्त्र में उन्हें ‘चुप समुदाय’ कहा जाता है। ये चुप समुदाय जनतंत्र के दरवाजे जोर से खटखटा नहीं पाते, क्योंकि एक तो इनकी संख्या बहुत कम होती है और दूसरा, इनका आर्थिक विकास उस स्तर पर नहीं पहुंच पाता कि वे अपना नेतृत्व विकसित कर पाएं। इनमें राजनीतिक चेतना भी विकसित नहीं हो पाती। जनतंत्र के परिदृश्य पर अक्सर ये दिखाई तक नहीं देते। जब सरकारी कोशिशों से उन तक कुछ नीतियां, कार्यक्रम व विकास योजनाएं पहुंचने लगती हैं, तो उनमें कुछ शुरुआती राजनीतिक सुगबुगाहट दिखाई पड़ती है। सरकार उनका वर्गीकरण तो कर देती है, लेकिन उनके भीतर चेतना का विस्तार नहीं कर पाती, जिससे उनमें आधार-तल पर चौतरफा नेतृत्व नहीं विकसित हो पाता। जनतंत्र से संवाद के क्रम में इन समूहों के कुछ नेता विकसित तो होते हैं, लेकिन वे कुछ समय बाद स्वार्थों की अपनी राजनीति करने लगते हैं।
इसका सबसे अच्छा उदाहरण है बिहार, जहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महादलित कोटि विकसित की, और उन तक कुछ योजनाएं भी पहुंचाईं, लेकिन उनमें आधार-तल पर बहुल नेतृत्व नहीं विकसित कर पाए। ऐसे में, जीतन राम मांझी जैसे लोग नेतृत्व के बहुत सीमित विकल्प बनकर उभरे। इन सामाजिक समूहों में राजनीतिक चेतना विकसित कर उनमें गुणात्मक विकास करना शायद आसान भी नहीं था। और इसके लिए पांच-दस साल का वक्त बहुत कम है।
लेकिन कुछ भी हो, बिहार चुनाव में इस बार जीतन राम मांझी की भूमिका को उत्सुकता से देखा जा रहा है। जीतन राम मांझी को, जिन्हें नीतीश कुमार ने महादलित की अपनी राजनीति को सशक्त करने के लिए अपना उत्तराधिकारी बनाया था, भाजपा से उनकी बढ़ती नजदीकियों और अन्य कारणों से उन्हें हटा भी दिया। माना जा रहा है कि उन्हीं जीतन राम मांझी की भूमिका इस चुनाव में काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। राजनीतिक विश्लेषक इसे ‘मांझी फैक्टर’ का नाम दे रहे हैं। जीतन राम मांझी ने जद(यू) से अलग होने के बाद हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) का गठन किया है, जिसमें जदयू से अलग हुए 18 विधायक थे, जिनमें से पांच भाजपा में शामिल हो गए थे। अब उनके पास 13 विधायक हैं। एनडीए ने उन्हें 20 सीटें दी हैं, जिसके लिए वह एनडीए पर दबाव डालने में सफल रहे हैं। इसे उनकी जीत और एनडीए में उनके बढ़ते प्रभाव को रोकने में राम विलास पासवान की असफलता के तौर पर पेश किया जा रहा है।
मांझी के प्रभाव का मूल्यांकन करते हुए उन्हें सबसे पहले मुसहर जाति का नेता माना जाता है। यह सत्य है कि मांझी मुसहर जाति के सबसे प्रभावी नेता हैं। पूर्व मुख्यमंत्री होने से उनका कद बढ़ा है। उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने के कारण मुसहरों में उनके प्रति सहानुभूति भी बढ़ी है। मुसहर बिहार के महादलित वर्ग की सबसे बड़ी जाति है, जिसमें पहले कुल 18 जातियां थीं, अब 21 हो गई हैं। बिहार की कुल आबादी में से 16 प्रतिशत के आस-पास दलित हैं, जिनमें महादलित 10 प्रतिशत हैं, दलित छह प्रतिशत हैं। इनमें से मुसहर अति गरीब, अशिक्षित और सबसे ज्यादा पिछड़ी जाति है। उनमें शिक्षा का प्रतिशत 0.9 प्रतिशत है, लेकिन बिहार में चल रही सामाजिक न्याय की राजनीति के कारण पिछले तीन दशकों में उनका राजनीतिकरण हुआ है। उनकी राजनीतिक आकांक्षा जगी है। जातीय अस्मिता जगी है। मध्य बिहार में नक्सली आंदोलनों में भी उनकी सक्रियता ने उन्हें राजनीतिक रूप से सबल बनाया है। ऐसे में, मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने की घटना ने उनके जातीय सम्मान को कहीं-न-कहीं आहत किया है। इसके बाद से मुसहर जाति में मांझी के प्रति सहानुभूति है, जो आगामी चुनाव में वोटों के रूप में भाजपा को लाभ पहुंचा सकती है। हालांकि, राजद और जद(यू) में भी मुसहर जाति के कई नेता हैं, पर मांझी का कद इनसे काफी बड़ा हो गया है। मध्य बिहार, उत्तर बिहार के कई भागों में, जहां मुसहर जाति के लोग काफी संख्या में हैं, वहां वे भाजपा के उम्मीदवार को विजय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इन्हें छोड़ दें, तो मुसहर जाति अनेक विधानसभा क्षेत्रों में एक छोटी जाति के रूप में मौजूद है। अत: उनका प्रभाव सिर्फ उन्हीं विधानसभा क्षेत्रों में ज्यादा दिखेगा, जहां उनकी संख्या अच्छी-खासी है।
मांझी फैक्टर का एक अर्थ यह भी है कि भाजपा उन्हें महादलित चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट कर रही है। ऐसे में, उनके होने से न केवल मुसहर, बल्कि अन्य महादलित जातियों के मतों पर भी प्रभाव पड़ेगा। अभी यह कहा नहीं जा सकता कि वे भाजपा के लिए कितने बड़े महादलित मैग्नेट बनकर उभर सकते हैं? दावा यह है कि 10 प्रतिशत महादलित मतों का एक बड़ा भाग वह भाजपा को दिला सकते हैं। लेकिन नीतीश कुमार का स्वयं भी महादलित मतों पर प्रभाव है। वह उन्हें उनके लिए किए गए कामों की याद दिला महादलित मतों को अपनी ओर खींचेंगे। देखना यह है कि 10 प्रतिशत महादलित मतों में ज्यादा कौन अपनी ओर खींच पाता है। महादलित मतों में मुसहर एक प्रभावी जाति के रूप में उभर रही है। ऐसे में, अन्य महादलित जातियों में उनके प्रति ईर्ष्या का भाव भी जगा है। मुसहर बनाम अन्य की आशंका छिपे रूप से बन सकती है, जो महादलित मतों को दो भागों में बांट सकती है।
मांझी फैक्टर का तीसरा प्रभाव यह हो सकता है कि उनके साथ के जो 13 विधायक विभिन्न जातियों के हैं, वे अपनी-अपनी जातियों के मत कम-से-कम अपने चुनाव क्षेत्र और आसपास के क्षेत्र में एनडीए गठबंधन को दिला सकते हैं। ऐसे में, उनके लिए मांझी आगामी विधानसभा चुनाव में लाभ का सौदा साबित हो सकते हैं।
नीतीश कुमार और लालू यादव आगामी चुनाव में मांझी प्रभाव को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए नीतीश कुमार अपनी सभाओं में महादलितों के लिए किए अपने कामों की याद दिला रहे हैं। इसके अलावा, इस जाति के अन्य नेताओं को सघन प्रचार के लिए लामबंद किया जा रहा है। उधर लालू यादव के राजद के भी अनेक महादलित नेता भी मैदान में उतर चुके हैं। देखना यह है कि महादलित मतों की लड़ाई में कौन विजयी होता है? फिर यह भी देखना है कि महादलित मतदाता क्या वोटों की लड़ाई में तब्दील होकर रह जाते हैं? वे इस बार भी मात्र चुनाव जीतने-हराने में ही भूमिका निभाते हैं, या फिर जनतंत्र की इस प्रक्रिया में अपना बहुल नेतृत्व विकसित कर पाते हैं। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि वे अपने लिए कितना और कैसा राजनीतिक स्पेस भारतीय जनतंत्र में तैयार कर पाते हैं

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