खैर यह कहानी है मात्र पचास दिन की। राजस्थान की तरह ही चौंका देने वाली। छह जुलाई से पहले गुजरात में आरक्षण की न कोई सुगबुगाहट थी, न कोई गुस्सा। छह जुलाई 2015 को मेहसाना में पटेलों की एक रैली हुई। केवल पांच हजार लोग थे। न इसकी ज्यादा चर्चा हुई, न मीडिया ने ज्यादा तवज्जो दी। दो दिन बाद ही मेहसाना के पास विषनगर में दूसरी रैली हुई। विषनगर के पाटीदारों को सबसे ज्यादा ग़ुस्सैल माना जाता है। यहां भी पांच हजार लोग ही आए लेकिन इस रैली के दौरान वहां के विधायक ऋषीकेश पटेल के कार्यालय पर हमला हो गया। यही वजह थी कि मीडिया ने इस रैली को कवर किया। कहीं बड़ा छपा, कहीं छोटा। लेकिन छपा।
आरक्षण आंदोलन भी चमका और हार्दिक पटेल भी। अचानक। राजस्थान के किरोड़ी सिंह बैंसला की तरह। वे भी अचानक समाज के नेता बनकर उभरे और छा गए थे। हार्दिक पटेल भी। हार्दिक इससे पहले अपने कॉलेज जीवन में आरक्षण विरोधी छात्र नेता रहे। पढ़ाई पूरी होते ही वे व्यवस्था के खिलाफ लड़ाके की तरह व्यवहार करने लगे। कुछ नेताओं से मिलते। पार्टियों के पक्ष में या खिलाफ बोलते और आखिर पटेलों के इस आंदोलन में उन्होंने अपनी ज़मीन खोज ली।
खैर विषनगर की रैली के बाद तो जैसे तूफ़ान आ गया। जिला और तहसील स्तर पर लगभग रोज ही रैलियां होने लगी। खिड़कियों से जैसे धूल आती है वैसे ही रैलियों की खबरें आने लगी, पटेलों की घोषणाएं आने लगीं। यही वह रैली थी जिसके बाद पाटीदारों को लगने लगा कि आरक्षण एक पका हुआ आम है और वे उसे तोड़ कर ही दम लेंगे। कई छोटी रैलियां करने के बाद सूरत में बड़ी रैली की ठानी। सूरत और इसके आसपास पाटीदार ज्यादा हैं। इस रैली में सात लाख पाटीदार आए। इस शांतिपूर्ण रैली ने पाटीदारों का उत्साह दोगुना कर दिया। ताकत और बढ़ी और बढ़ती चली गई। अब आए सरकार के कांपने के दिन। सूरत रैली के दिन ही शाम को गांधीनगर में पटेल नेताओं को बातचीत के लिए बुलाया गया। लेकिन सरकार के पास अपनी कोई रणनीति नहीं थी। पटेलों की भीड़ से डरकर वह केवल चिल्ला रही थी, करना क्या है यह स्पष्ट नहीं था।
राजस्थान सरकार जब गुर्जरों को बुलाती थी तो बात भी करती थी और अगले दौर की गुंजाइश भी रखती थी। गुर्जरों को देती वह भी कुछ नहीं थी। लेकिन जिस तरह पांच गांव मांगने वाले पाण्डवों को दुर्योधन ने सुई की नोक बराबर जमीन न देने का टका-सा जवाब देकर लौटा दिया था, वैसे ही गुजरात सरकार ने भी पटेलों से कह दिया - अनामत तो नहींज मले यानी आरक्षण तो नहीं ही मिलेगा। जवाब सुनकर पटेलों का गुस्सा नाक पर आ गया। उन्होंने अहमदाबाद में 25 अगस्त को महारैली की घोषणा पहले से ही कर रखी थी। अब कह दिया कि महारैली से पहले सरकार से कोई बात नहीं होगी। यही गुस्सा था जिसके कारण अहमदाबाद रैली में दस लाख से भी ज्यादा पाटीदार आए। सरकार और पुलिस दोनों ने यहां बड़ी गलतियां कीं। रैली शांतिपूर्ण थी। शाम को सब घर के लिए भी रवाना हो गए। जीएमडीसी ग्राउंड पर केवल चार हजार पाटीदार बच गए थे, जहां हार्दिक पटेल धरना दे रहे थे। लेकिन रैली से लौट रहे लोग घर भी नहीं पहुंचे थे और पुलिस ने जीएमडीसी ग्राउंड पर लाठीचार्ज कर दिया। हार्दिक को उठा ले गई। यह खबर आग की तरह फैली और रैली से लौट रहा जो पाटीदार जहां था, वहीं तोड़फोड़ शुरू हो गई। ये उनका स्वाभाविक गुस्सा था। बात बिगड़ गई। इस रैली से पहले पटेलों ने कहा था- हमें रिवर फ्रंट ही चाहिए। बात मान ली। पार्किंग के लिए ही सही, पटेलों को रिवर फ्रंट दे दिया गया। फिर पटेलों ने कहा हम रैली में आते वक्त टोल टैक्स नहीं देंगे। सरकार ने ये बात भी मान ली। फिर इतनी जल्दी में हार्दिक पटेल की धरपकड़ का निर्णय किसने और क्यों लिया सरकार ही जाने। हिंसा भड़कने के बाद देर रात मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल सफ़ाई देती रहीं कि हार्दिक की धरपकड़ सरकार ने नहीं कराई। यह पुलिस का अपना निर्णय है लेकिन सुनता कौन है? बिना सरकार की अनुमति के इतना बड़ा फ़ैसला पुलिस ने कैसे और क्यों ले लिया, कोई नहीं जानता। कोई भी नहीं।
अब आते हैं पहले सवाल पर कि पटेलों को आरक्षण क्यों चाहिए? जबकि वे तो पटेल हैं। पटेल यानी बड़ा आदमी। गांव पटेल। मुखिया। लंबी-चौड़ी ज़मीन-जायदाद वाला। जवाब छोटा सा है। राजस्थान के गुर्जर आंदोलन जितना ही छोटा। राजस्थान में गुर्जर हैं लेकिन आर्थिक और राजनीतिक रूप से उतने प्रभावी नहीं जितने गुजरात में पटेल। गुजरात की 182 सदस्यीय विधानसभा में 44 विधायक पटेल हैं। मुख्यमंत्री सहित आठ मंत्री और आठ लोकसभा सदस्य भी पटेल हैं। फिर भी आरक्षण क्यों? आरक्षण आंदोलन के मात्र 22 वर्षीय नेता हार्दिक पटेल का कहना है कि हर क़ौम में कुछ धनवान होते हैं तथा ज्यादातर गरीब और ज़रूरतमंद। पटेलों में भी ऐसा ही है। पैसे वाले पटेल तो वैसे भी क्रीमीलेयर के कारण आरक्षण से बाहर हो जाएंगे। हम गरीब और ज़रूरतमंदों के लिए आरक्षण मांग रहे हैं।
गुर्जर आंदोलन से इसकी तुलना बार-बार इसलिए की जा रही है क्योंकि आखिर ये पटेल या पाटीदार भी गुर्जर ही हैं। कुछ इलाक़े ये बात मानते हैं, कुछ नहीं। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के पटेल, पाटील और चौधरी। राजस्थान के बैंसला, कसाना, दिल्ली- हरियाणा के भड़ाना- विधूड़ी और कश्मीर के गुज्जर ये सब गुर्जर ही हैं। कहीं गुर्जर प्रतिहार वंश, कहीं मुंडल्या गूजर, बड़ गूजर तो कहीं लेवा, खारी या कड़वा। फिलहाल गुर्जर दो तरह के होते हैं। लेवा गुर्जर और खारी गुर्जर। शब्द पर जाएं तो खारी या खारा उस चीज़ को कहते हैं जिसमें ज्यादा नमक पड़ जाए। गुजरात में शायद उसी खारेपन को कड़वा कह दिया। इसलिए यहां के पटेल लेवा पटेल और कड़वा पटेल कहे जाते हैं। इतिहास बताता है कि लेवा या लेउवा शब्द अविभाजित पंजाब के लाहौर से आया। पंजाब की लड़ाका क़ौम में लेवा गुर्जर भी थे। जो हरियाणा- दिल्ली से होते हुए मप्र, उप्र, महाराष्ट्र और गुजरात में नदियों के किनारे फैले। पटेल, चौधरी, पाटील भी दरअसल अंग्रेज़ों के ज़माने के पद हैं। जो गांवों के बड़े किसान या प्रभावशाली लोग होते थे, उन्हें पटेल, पाटील या चौधरी की पोस्ट दे दी गई थी। गांव के किसान इनके पास टैक्स या तौजी जमा करते थे और ये उस टैक्स को गांव कोटवार के जरिए खजाने में पहुंचा दिया करते थे। कालांतर में यही पदनाम गुर्जरों की उपजातियां या सरनेम बन गए।
हार्दिक पटले पर पड़ा गहरा प्रभाव
हार्दिक पटेल दो बहन-भाई हैं। हार्दिक की बहन की एक फ्रेंड ओबीसी में आती थी। उसके दो परसेंट कम थे तब भी इंजीनियरिंग में सिलेक्शन हो गया था, जबकि हार्दिक की बहन का नहीं। इस घटना का भी हार्दिक पटेल पर गहरा प्रभाव पड़ा था।
आंदोलन की आग और ये चार किरदार
हार्दिक पटेल: रणनीति नहीं भावनात्मक उबाल ज्यादा
इस तरह के आंदोलनों का सबसे कम उम्र का नेता। यही वजह थी कि इस पूरे आंदोलन में केवल भावनात्मक उबाल ही दिखाई दिया। तथ्यों और तर्कों से ज्यादा वास्ता नहीं था। रणनीति नदारद थी। परिपक्वता भी कम। दस लोगों के मारे जाने के बाद आंदोलन कैसे आगे बढ़ेगा, इसकी कोई पक्की रूपरेखा अब तक सामने नहीं आ सकी है।
लालजी भाई पटेल: पटेलों के बड़े नेता, अब गायब
पाटीदार समाज के लिए काम करने वाले सरदार पटेल ग्रुप के कन्वीनर। शुरुआत में पाटीदार आरक्षण आंदोलन के बड़े नेता यही थे। साथ भी चले। पाटीदार अनामत समिति बनने के बाद हार्दिक का नाम लोगों की ज़ुबान पर चढ़ता गया और लालजी भाई दबते गए। इस आंदोलन में जितनी जल्दी हार्दिक लोकप्रिय हुए उतनी ही गति से लालजी भाई गायब हो गए।
पुलिस: झूठा गुस्सा दिखाकर आंदोलन को और भड़काया
गुजरात पुलिस जाने किस अदृश्य राजनीतिक शक्ति से प्रेरित थी। उसने शांतिपूर्वक चल रहे ज्यादातर मौक़ों पर झूठा एग्रेशन दिखाया। वह इतनी जुनूनी हो गई थी कि कॉलोनी में घुसकर पटेलों और उनकी कारों को निशाना बनाते वक्त यह भी नहीं सोच पाई कि उसके खुद के लगाए सीसीटीवी कैमरों में यह सब दर्ज हो रहा है।
सरकार: पंचायत चुनावों के चक्कर में दिखाई सुस्ती
गुजरात सरकार पूरे आंदोलन के दौरान रहस्यमयी सुस्ती से आंदोलित थी। पहली ही वार्ता में उसने तमाम मांग ठुकरा दीं। आगे बातचीत की गुंजाइश ही नहीं रखी। फिर पुलिस पर से उसका नियंत्रण जाता रहा। अब पुलिस अफ़सरों पर कार्रवाई की बात सामने आई तो उसका रुख यह है कि अभी कार्रवाई कर दी तो आने वाले पंचायत चुनावों में कैसे जीतेंगे?
खैर यह कहानी है मात्र पचास दिन की। राजस्थान की तरह ही चौंका देने वाली। छह जुलाई से पहले गुजरात में आरक्षण की न कोई सुगबुगाहट थी, न कोई गुस्सा। छह जुलाई 2015 को मेहसाना में पटेलों की एक रैली हुई। केवल पांच हजार लोग थे। न इसकी ज्यादा चर्चा हुई, न मीडिया ने ज्यादा तवज्जो दी। दो दिन बाद ही मेहसाना के पास विषनगर में दूसरी रैली हुई। विषनगर के पाटीदारों को सबसे ज्यादा ग़ुस्सैल माना जाता है। यहां भी पांच हजार लोग ही आए लेकिन इस रैली के दौरान वहां के विधायक ऋषीकेश पटेल के कार्यालय पर हमला हो गया। यही वजह थी कि मीडिया ने इस रैली को कवर किया। कहीं बड़ा छपा, कहीं छोटा। लेकिन छपा।
खैर विषनगर की रैली के बाद तो जैसे तूफ़ान आ गया। जिला और तहसील स्तर पर लगभग रोज ही रैलियां होने लगी। खिड़कियों से जैसे धूल आती है वैसे ही रैलियों की खबरें आने लगी, पटेलों की घोषणाएं आने लगीं। यही वह रैली थी जिसके बाद पाटीदारों को लगने लगा कि आरक्षण एक पका हुआ आम है और वे उसे तोड़ कर ही दम लेंगे। कई छोटी रैलियां करने के बाद सूरत में बड़ी रैली की ठानी। सूरत और इसके आसपास पाटीदार ज्यादा हैं। इस रैली में सात लाख पाटीदार आए। इस शांतिपूर्ण रैली ने पाटीदारों का उत्साह दोगुना कर दिया। ताकत और बढ़ी और बढ़ती चली गई। अब आए सरकार के कांपने के दिन। सूरत रैली के दिन ही शाम को गांधीनगर में पटेल नेताओं को बातचीत के लिए बुलाया गया। लेकिन सरकार के पास अपनी कोई रणनीति नहीं थी। पटेलों की भीड़ से डरकर वह केवल चिल्ला रही थी, करना क्या है यह स्पष्ट नहीं था।
राजस्थान सरकार जब गुर्जरों को बुलाती थी तो बात भी करती थी और अगले दौर की गुंजाइश भी रखती थी। गुर्जरों को देती वह भी कुछ नहीं थी। लेकिन जिस तरह पांच गांव मांगने वाले पाण्डवों को दुर्योधन ने सुई की नोक बराबर जमीन न देने का टका-सा जवाब देकर लौटा दिया था, वैसे ही गुजरात सरकार ने भी पटेलों से कह दिया - अनामत तो नहींज मले यानी आरक्षण तो नहीं ही मिलेगा। जवाब सुनकर पटेलों का गुस्सा नाक पर आ गया। उन्होंने अहमदाबाद में 25 अगस्त को महारैली की घोषणा पहले से ही कर रखी थी। अब कह दिया कि महारैली से पहले सरकार से कोई बात नहीं होगी। यही गुस्सा था जिसके कारण अहमदाबाद रैली में दस लाख से भी ज्यादा पाटीदार आए। सरकार और पुलिस दोनों ने यहां बड़ी गलतियां कीं। रैली शांतिपूर्ण थी। शाम को सब घर के लिए भी रवाना हो गए। जीएमडीसी ग्राउंड पर केवल चार हजार पाटीदार बच गए थे, जहां हार्दिक पटेल धरना दे रहे थे। लेकिन रैली से लौट रहे लोग घर भी नहीं पहुंचे थे और पुलिस ने जीएमडीसी ग्राउंड पर लाठीचार्ज कर दिया। हार्दिक को उठा ले गई। यह खबर आग की तरह फैली और रैली से लौट रहा जो पाटीदार जहां था, वहीं तोड़फोड़ शुरू हो गई। ये उनका स्वाभाविक गुस्सा था। बात बिगड़ गई। इस रैली से पहले पटेलों ने कहा था- हमें रिवर फ्रंट ही चाहिए। बात मान ली। पार्किंग के लिए ही सही, पटेलों को रिवर फ्रंट दे दिया गया। फिर पटेलों ने कहा हम रैली में आते वक्त टोल टैक्स नहीं देंगे। सरकार ने ये बात भी मान ली। फिर इतनी जल्दी में हार्दिक पटेल की धरपकड़ का निर्णय किसने और क्यों लिया सरकार ही जाने। हिंसा भड़कने के बाद देर रात मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल सफ़ाई देती रहीं कि हार्दिक की धरपकड़ सरकार ने नहीं कराई। यह पुलिस का अपना निर्णय है लेकिन सुनता कौन है? बिना सरकार की अनुमति के इतना बड़ा फ़ैसला पुलिस ने कैसे और क्यों ले लिया, कोई नहीं जानता। कोई भी नहीं।
अब आते हैं पहले सवाल पर कि पटेलों को आरक्षण क्यों चाहिए? जबकि वे तो पटेल हैं। पटेल यानी बड़ा आदमी। गांव पटेल। मुखिया। लंबी-चौड़ी ज़मीन-जायदाद वाला। जवाब छोटा सा है। राजस्थान के गुर्जर आंदोलन जितना ही छोटा। राजस्थान में गुर्जर हैं लेकिन आर्थिक और राजनीतिक रूप से उतने प्रभावी नहीं जितने गुजरात में पटेल। गुजरात की 182 सदस्यीय विधानसभा में 44 विधायक पटेल हैं। मुख्यमंत्री सहित आठ मंत्री और आठ लोकसभा सदस्य भी पटेल हैं। फिर भी आरक्षण क्यों? आरक्षण आंदोलन के मात्र 22 वर्षीय नेता हार्दिक पटेल का कहना है कि हर क़ौम में कुछ धनवान होते हैं तथा ज्यादातर गरीब और ज़रूरतमंद। पटेलों में भी ऐसा ही है। पैसे वाले पटेल तो वैसे भी क्रीमीलेयर के कारण आरक्षण से बाहर हो जाएंगे। हम गरीब और ज़रूरतमंदों के लिए आरक्षण मांग रहे हैं।
गुर्जर आंदोलन से इसकी तुलना बार-बार इसलिए की जा रही है क्योंकि आखिर ये पटेल या पाटीदार भी गुर्जर ही हैं। कुछ इलाक़े ये बात मानते हैं, कुछ नहीं। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के पटेल, पाटील और चौधरी। राजस्थान के बैंसला, कसाना, दिल्ली- हरियाणा के भड़ाना- विधूड़ी और कश्मीर के गुज्जर ये सब गुर्जर ही हैं। कहीं गुर्जर प्रतिहार वंश, कहीं मुंडल्या गूजर, बड़ गूजर तो कहीं लेवा, खारी या कड़वा। फिलहाल गुर्जर दो तरह के होते हैं। लेवा गुर्जर और खारी गुर्जर। शब्द पर जाएं तो खारी या खारा उस चीज़ को कहते हैं जिसमें ज्यादा नमक पड़ जाए। गुजरात में शायद उसी खारेपन को कड़वा कह दिया। इसलिए यहां के पटेल लेवा पटेल और कड़वा पटेल कहे जाते हैं। इतिहास बताता है कि लेवा या लेउवा शब्द अविभाजित पंजाब के लाहौर से आया। पंजाब की लड़ाका क़ौम में लेवा गुर्जर भी थे। जो हरियाणा- दिल्ली से होते हुए मप्र, उप्र, महाराष्ट्र और गुजरात में नदियों के किनारे फैले। पटेल, चौधरी, पाटील भी दरअसल अंग्रेज़ों के ज़माने के पद हैं। जो गांवों के बड़े किसान या प्रभावशाली लोग होते थे, उन्हें पटेल, पाटील या चौधरी की पोस्ट दे दी गई थी। गांव के किसान इनके पास टैक्स या तौजी जमा करते थे और ये उस टैक्स को गांव कोटवार के जरिए खजाने में पहुंचा दिया करते थे। कालांतर में यही पदनाम गुर्जरों की उपजातियां या सरनेम बन गए।
पुलिस: झूठा गुस्सा दिखाकर आंदोलन को और भड़काया
सरकार: पंचायत चुनावों के चक्कर में दिखाई सुस्ती