अगर लोगों के चंदे से एक पार्टी खड़ी की जा सकती है तो लोगों के चंदे से क्या एक न्यूज़ चैनल भी खड़ा किया जा सकता ? क्या जनता का भी कोई अपना न्यूज़ चैनल हो सकता है ? क्या लोगों का एक ऐसा न्यूज़ चैनल होना चाहिए जो देश में कुछ निजी परिवारों के कब्ज़े से मीडिया को मुक्त करा सके . अगर मुक्त न करा सके तो कम से कम मीडिया मुग़लों को चुनौती दे सके. जनता के चंदे से चलने वाला ये न्यूज़ चैनल ना सरकार के आगे झुके और न ही किसी बड़े कारपोरेट का गुलाम हो. ये एक ऐसा चैनल हो जो जनता के हित में भ्रष्टाचार के खिलाफ देश व्यापी मुहीम छेड़े और घपलों के मामलों को किसी सरकार या धनपशु के कहने पर न दबाए....ये देश का पहला ऐसा न्यूज़ चैनल हो जिसमे एक बृहद सलाहकार मंडल हो और जहां जनता की वेब वोटिंग पर खास ख़बरों को दिखाया जाये. ये न्यूज़ चैनल जनता को पारदर्शिता के साथ बताए कि कोई खबर चैनल पर क्यूँ कम दिखाई गयी और कोई ज्यादा क्यूँ दिखाई जा रही है. इस न्यूज़ चैनल का ऑडिट भी एक जनता द्वारा गठित बोर्ड के ज़रिये हो और सारी जानकारी वेबसाइट पर डाली जाये. क्या ऐसा न्यूज़ चैनल देश में आना चाहिए ? या मीडिया को कुछ निजी परिवारों के हित के लिए छोड़ दिया जाये.i जिसे अपनी सत्यनिष्ठा का सर्वनाश कराना हो वो देश की मुख्यधारा की पत्रकारिता में आ सकता है. और जिसे अपना स्वाभिमान गवाने की इच्छा हो वो मुख्यधारा की राजनीति में जा सकता है. तो क्या पत्रकारिता छोड़ देनी चाहिए ? तो क्या राजनीति का बहिष्कार करना चाहिए? सकारात्मक जवाब है कि दोनों विधाएं जरूरी हैं पर दोनों के मूल्यांकन से पहले देश की नब्ज़ तो जान लीजिये. देश में बढ़ते सामाजिक असंतुलन और बेरोज़गारी के बीच युवाओं की बढ़ती कुंठा का एक परिणाम ये है कि ज्यादातर लोग व्यवस्था पर भरोसा खोते जा रहे हैं. उनकी पहली निराशा सरकार की नॉन-डिलीवरी से है और दूसरी निराशा मीडिया की गिरती साख और सरोकार से है.i देश की सरकार भी क्या करे ? सप्लाई और डिमांड में इतना अंतर है कि जनता को मूल सुविधाएं देना भी नामुमकिन सा हो गया है. यही हाल मुख्यधारा की मीडिया का है.सम्पादक पर टीआरपी और विज्ञापन का इतना दबाव है कि वो चाहकर भी जनता के संघर्ष से नही जुड़ पाता है. हाशिये पर खड़े आम आदमी के पास सिर्फ लाचारी बची है. इसलिए वो मान बैठा है कि देश का नेता भ्रष्ट और मीडिया दलाल है.पुलिस और नौकरशाही से उसका भरोसा कई साल पहले उठ चुका है. महेंगी कीमत पर इन्साफ देने वाले हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ना आम आदमी के लिए थे और ना हैं. सच हे कि हाशिये पर लाचार खड़ा आदमी व्यवस्था को लेकर मोहभंग की स्थिति में है.हमारे जैसे मध्यम वर्ग के लोगों के लिए हाथ में तिरंगा लेकर दौड़ना स्वाभिमान हो सकता है.हमारे लिए देश का संविधान गर्व का विषय हो सकता है. हमारे लिए चुनाव के नतीजे महत्वपूर्ण हो सकते हैं. लेकिन जिन रास्तों पर अभी कंक्रीट नही ढला है जिन छतों को अभी लिंटर नही मिला है जो पैर चमड़े के जूते से दूर है जिन हाथों ने कभी घडी नही पहनी और जो कमज़ोर आँखें चश्मों के लिए मोहताज़ है उनके लिए मोदी, केजरीवाल, नितीश या फिर अर्नब, राजदीप, पुण्य प्रसून, रविश या रजत शर्मा का क्या मतलब है ? ये नाम हमारे लिए बड़े हैं देश की आधी से ज्यादा जनता के लिए इनके कोई मायने नहीं है. मित्रों मै निराशावादी नही हूँ लेकिन सच से भी मुह कैसे फेर लूं? मैं आप पर कोई दबाव नही डाल रहा हूँ लेकिन अगर सच को सर्वोपरी मानते है तो स्वीकार कीजिये कि आजादी अब तक एक तिहाई घरों तक पहुंची है. बाकी सिर्फ जी रहे हैं.
आओ मेरा साथ दो दोस्तों और हिदुस्तान के मीडिया को एक नए आयाम तक पहुचाने की एक पहल करे
संपर्क - डॉ राकेश पुंज
sms करे 09914411433
punjmedia@gmail.com
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