Monday, February 23, 2015

मानवाधिकारों की लड़ाई लडऩे वालों के बुरे दिन

गुजरात दंगा पीडि़तों के न्याय के लिए राज्य सरकार से टकराने वाली सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है। 2002 के दंगों में गुलबर्गा सोसायटी में कई मकान जला दिए गए थे। यहां रहने वाले कई मुस्लिम मारे गए, जिसमें पूर्व सांसद एहसान जाफरी भी शामिल थे। इस सोसायटी में 20 घर अब भी जले हुए, खंडहर बने हुए हैं। तीस्ता मृतकों की याद में उन जले, उजाड़ घरों का म्यूजियम बनाना चाहती थीं। यहां जिनके घर थे, उन्हें बाजार दाम पर खरीदने की योजना थी। इस बीच जमीन के दाम काफी बढ़ गए और रायट म्यूजियम की योजना लंबित हो गई। रायट म्यूजियम बनाने के लिए तीस्ता सीतलवाड़ ने चंदा भी एकत्र किया था। कुछ लोगों का आरोप है कि तीस्ता और उनके पति जावेद आनंद ने इस राशि का गबन किया और उसे अपने निजी खर्च के लिए इस्तेमाल किया। तीस्ता सीतलवाड़ और उनके पति जावेद आनंद के खिलाफ एक अर्जी अपराध शाखा में दी गई। उनसे पूछताछ की गई। क्राइम ब्रांच उन्हें गिरफ्तार करना चाहती है। तीस्ता और जावेद ने गुजरात हाईकोर्ट में अग्रिम जमानत की अर्जी दी, अदालत में इसे खारिज किया गया और उसके कुछ ही मिनट बाद अहमदाबाद से 4 सौ किमी दूर मुंबई में तीस्ता के निवास पर क्राइम ब्रांच के लोग उन्हें गिरफ्तार करने पहुंच गए। तीस्ता घर पर नहींमिली और कुछ घंटों बाद सुप्रीम कोर्ट से उनकी गिरफ्तारी पर रोक का आदेश मिला। यह आदेश 19 फरवरी तक का था। 19 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट की नयी पीठ ने इस जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए गिरफ्तारी पर रोक के आदेश को बरकरार रखा और गुजरात सरकार से यह पूछा है कि उनसे पूछताछ के लिए गिरफ्तारी क्यों जरूरी है? अदालत ने सीतलवाड़ और उनके एनजीओ को गुजरात पुलिस द्वारा मांगे गए दानदाताओं की सूची की उपलब्ध कराने को कहा है। अदालत ने यह भी कहा कि अगर तीस्ता और उनके पति जांच में सहयोग नहीं करते हैं तो गुजरात पुलिस उनकी जमानत खारिज करने की अपील फाइल कर सकती है। सर्वोच्च अदालत ने तीस्ता की गिरफ्तारी के मामले पर कहा कि यह किसी की आजादी के हनन का मामला है। मामले की सुनवाई जस्टिस दीपक मिश्रा और आदर्श गोयल की बेंच ने की। सीतलवाड़ के वकील कपिल सिब्बल ने कहा था, अगर उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेजा जाता है तो राज्य की ताकत के खिलाफ असहमति की आवाज दब जाएगी। वह जांच के लिए तैयार हैं। यह अग्रिम जमानत के लिए उपयुक्त केस है। इस सुनवाई के दौरान तीस्ता सीतलवाड़ का समर्थन कर रहे कई नामी वकील भी दर्शक दीर्घा में बैठे थे, जिनमें पूर्व सलिसिटर जनरल टी आर अंध्यार्जुन, पूर्व अतिरिक्त सालिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह, प्रशांत भूषण, कामिनी जयसवाल और हुज़ेफा अहमदी भी शामिल थे।  बहस के दौरान गुजरात सरकार के वकील अतिरिक्त सलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पुलिस की जांच रिपोर्ट पढ़ते हुए कहा, दो एनजीओ सबरंग ट्रस्ट और सिजीजंस फॉर जस्टिस ऐंड पीस के अकाउंट्स में काफी पैसे दान किए गए, लेकिन ये बाद में सीतलवाड़ और उनके पति जावेद आनंद के खातों में ट्रांसफर कर लिए गए। जब मेहता ने कहा कि दंगा पीडि़तों की भलाई के लिए मिले पैसे का इस्तेमाल सीतलवाड़ और उनके पति ने ब्रैंडेड कपड़े और डिजायनर जूतों का बिल चुकाने के लिए किया, इस पर इंदिरा जयसिंह ने कहा, तो क्या हुआ, प्रधानमंत्री 10 लाख के ब्रैंडेड सूट पहनते हैं। इस कोर्ट में क्या हो रहा है? तिहरे हत्याकांड में शामिल लोगों को भी जमानत मिल जाती है। उनकी इस टिप्पणी पर बेंच ने नाराजगी जताते हुए कहा, हम इस मामले का राजनीतिकरण नहीं होने देंगे। सिर्फ आरोपी के वकील ही कोर्ट में बहस कर सकते हैं। कोर्ट रूम में कम से कम न्यूनतम शिष्टाचार का पालन तो होना ही चाहिए। बेंच ने कहा, हम भरोसा देते हैं कि दोनों पक्षों के साथ न्याय होगा, लेकिन राहत किसी एक को ही मिलेगी। फिलहाल राहत तीस्ता सीतलवाड़ को मिली है, लेकिन असली न्याय की सबसे ज्यादा जरूरत गुजरात के दंगा पीडि़तों को है। तब मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजधर्म का पालन नहींकिया था और अब उनकी अनुवर्ती सरकार भी वैसी ही चल रही है। तीस्ता सीतलवाड़ के प्रयासों के कारण कई दंगा पीडि़तों ने आवाज उठाने का साहस किया। एहसान जाफरी की पत्नी ने जकिया जाकरी ने सीधे नरेन्द्र मोदी को दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराया था, जिसके बाद उन्हें एसआईटी के समक्ष पेश होना पड़ा।
 गुजरात दंगों के खिलाफ भाजपा सरकार से सवाल जवाब करने में तीस्ता सीतलवाड़ काफी मुखर रही हैं। इसलिए उनकी गिरफ्तारी का कदम राजनीति से प्रेरित नहींहै, ऐसा मानना मासूम सा छलावा ही है। सर्वोच्च अदालत ने राजनीति को परे रखने की बात उचित ही की है और साक्ष्यों के अनुरूप फैसला दिया है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को इससे राहत मिली है। इधर सोहराबुद्दीन व इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ में आरोप गुजरात पुलिस के पूर्व डीआईजी वंजारा आठ सालों की कैद के बाद जेल से निकलते हुए कहते हैं कि अच्छे दिन आ गए हैं तो यह सवाल मन में कौंधता है कि क्या सांप्रदायिकता के खिलाफ दंगा पीडि़तों व मानवाधिकारों की लड़ाई लडऩे वालों के बुरे दिन आ गए हैं?

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