Sunday, December 4, 2011

मध्य प्रदेश में कौन बनेगा तीसरी ताक़त ?

भोपाल: मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव भले ही दो वर्ष बाद 2013 में होने वाले हों मगर तीसरी राजनीतिक ताकत बनने के लिए दलों में अभी से जोर आजामाइश शुरू हो गई है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) व जनता दल (युनाइटेड) ने तो इसके लिए सम्मेलन व अधिवेशन के जरिए पहल भी शुरू कर दी है।

राज्य में सत्ता कांग्रेस व गैर कांग्रेसी दल खासकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के इर्दगिर्द ही घूमती रही है। 1956 के बाद पहली बार राज्य में सत्ता कांग्रेस के हाथ से आपातकाल के बाद 1977 में फिसली थी। इतना ही नहीं, 2003 से पहले तक राज्य में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तो, मगर पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी। 2003 में सत्ता में आई भाजपा ने न केवल पांच साल का कार्यकाल पूरा किया है, बल्कि लगातार दूसरी बार सत्ता पर कब्जा जमाया।

प्रदेश में 1993 तक भाजपा के साथ गैर कांग्रेसी दलों में जनता पार्टी व जनता दल का प्रभाव रहा है। उसके बाद भाजपा को छोड़कर शेष गैर कांग्रेसी दलों खासकर समाजवादी विचारधारा के दलों में ज्यादा ही टूट हुई, क्योंकि समाजवादियों ने सत्ता का सुख पाने के लिए कांग्रेस व भाजपा का दामन थाम लिया था। यही कारण रहा कि वर्तमान में राज्य में समाजवादी तो हैं, मगर उनकी समाजवादी के तौर पर कोई पहचान नहीं बची है।

राज्य में समाजवादी विचारधारा के अलावा और दलित वर्ग का वोट बैंक है, इसे नहीं नकारा जा सकता। इसे कांग्रेस व भाजपा तथा समाजवादी भी जानते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर आपातकाल के दौरान मध्य प्रदेश में समाजवादी विचारधारा के झंडाबरदार व जबलपुर से सांसद रह चुके तथा वर्तमान में जद (यु) के अध्यक्ष शरद यादव ने समाजवादियों को जोड़ने की मुहिम तेज कर दी है।

शरद यादव का बीते दिनों हुआ दौरा तथा राज्य स्तरीय सम्मेलन इस बात का एहसास कराता है कि जद (यु) की नजर समाजवादियों को एकजुट करने पर है। यादव यह भी कह चुके हैं कि उनका दल मध्य प्रदेश में चुनाव लड़ेगा। इतना ही नहीं, उन्होंने प्रदेश की भाजपा सरकार पर भी निशाना साधा था।

राज्य में समाजवादियों की स्थिति पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने 320 विधानसभा सीटों में से 230 पर कब्जा जमाया था, इनमें से लगभग 100 समाजवादी थे। उसके बाद 1980 व 85 के चुनाव गैर कांग्रेसी दलों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा तथा सत्ता कांग्रेस के हाथ में पहुंच गई। फिर इन दलों ने 1990 में मिलकर चुनाव लड़ा व सत्ता हासिल कर ली। इस चुनाव में जनता दल ने 28 सीटों पर जीत दर्ज की थी।

दूसरी ओर, बसपा द्वारा जनाधार बढ़ाने की कोशिशें भी की गईं। इस दौरान बसपा पर यह आरोप भी लगा कि वह कांग्रेस व भाजपा से सौदेबाजी कर कई स्थानों पर उम्मीदवार तक नहीं लड़ाए। इसके बाद भी बसपा का असर बढ़ा है। वर्तमान में भी बसपा के सात विधायक हैं।

राज्य में समाजवादी है, मगर उनके पास नेतृत्व की कमी है, वहीं कांग्रेस व भाजपा के अलावा कोई अन्य दल असरदार नहीं है, इस बात को जानकार बसपा ने भी तीसरी ताकत बनने की कोशिशें तेज कर दी हैं। चार राज्यों के कार्यकर्ताओं के अधिवेशन में बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने भी साफ कर दिया कि उनका दल अगला चुनाव पूरी दमदारी व अकेले लड़ेगा। उनका दावा तो यहां तक है कि मध्य प्रदेश में बसपा भाजपा का विकल्प बन सकती है।

गैर कांग्रेसी दलों की बढ़ी सक्रियता से राज्य की राजनीति के समीकरण प्रभावित होने की सम्भावनाएं जताई जाने लगी हैं, क्योंकि गैर कांग्रेसियों की एक जुटता से कांग्रेस कमजोर होती रही है, वहीं बिखराव का लाभ कांग्रेस को मिला है। यह स्थिति सबसे ज्यादा भाजपा को चिंता में डालने वाली है।

जद (यु) के प्रदेशाध्यक्ष गोविंद यादव कहते हैं प्रदेश में समाजवादियों का असर रहा है तथा है, उनके सामने सिर्फ नेतृत्व का संकट रहा है। जद (यु) का मकसद राज्य में समाजवादियों को एकजुट कर जनांदोलन चलाना है, बात जहां तक चुनाव की है उस पर भी पार्टी की नजर है।

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