-अमलेन्दु उपाध्याय-
जब से जस्टिस मार्कण्डेय काटजू भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष बने हैं तभी से ‘मीडिया की स्वतंत्रता’ खतरे में है’ जैसे नारे जोर-शोर से सुनने में आ रहे हैं। इस नारे से ठीक वैसी ही प्रतिध्वनि का आभास होता है जैसा ‘हिंदुत्व खतरे में है’ या ‘इस्लाम खतरे में है’ जैसे नारों से होता है। पिछले रविवार ‘नेशनल ब्राॅडकास्टर्स एडिटर्स एसोसिएशन’ (एनबीईए) के महासचिव और जाने माने टेलिविजन पत्रकार एन.के. सिंह दिल्ली में प्रभाष परंपरा न्यास द्वारा आयोजित ”मीडिया पर मंडराता खतरा“ विषय पर आयोजित संवाद में मुख्य वक्ता के तौर पर उपस्थित थे जिसमें मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला।
बहुत मजबूती के साथ श्री सिंह ने अपनी बात रखी। राखी सावंत और नाग-नागिन का नाच दिखाने के लिए और जनपक्षधर खबरें न दिखाने के लिए मीडिया की आलोचना भी उन्होंने की। उन्होंने यह भी माना कि टीआरपी के दबाव में दूरदराज के क्षेत्रों और असली भारत की खबरों की मीडिया अनदेखी करता है। साफ शब्दों में उन्होंने यह भी माना कि संपादकों की तनख्वाहें लाखों रूपये महीना हैं इसीलिए सुख सुविधाओं की चाह और नौकरी जाने के भय में वे मालिकों के दबाव में रहते हैं और असली खबरों से मुंह मोड़ लेते हैं। इस सबके बावजूद उनका मानना था कि मीडिया खास तौर पर इलैक्ट्रोनिक मीडिया पवित्र गाय है और उस पर किसी भी तरह का बंधन या दबाव नहीं होना चाहिए और उसे आत्मनियमन का अधिकार होना चाहिए।
एन के सिंह ने बताया कि 1951 से आठ कानून ऐसे बने हुए हैं जिनके तहत कभी भी मीडिया की नकेल सरकार कस सकती है। उन्होंने चिंता जताई कि संसद में सभी राजनीतिक दल इस बात पर सहमत हैं कि मीडिया की नकेल कसी जाए, अदालतों का रुख मीडिया विरोधी होता जा रहा है और सबज्यूडिस मामलों पर रिपोर्टिंग को अदालतें बर्दाश्त नहीं कर रही हैं जबकि भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस मार्कण्डेय काटजू कांग्रेस को खुश करने के लिए मीडिया पर हमले कर रहे हैं।
हालांकि जब सवाल जबाव का दौर शुरू हुआ तो मौजूद पत्रकार साथियों के तीखे सवालों पर एन के सिंह निरुत्तर नज़र आए। अब यहां कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। सबसे पहला तो यही कि अगर जस्टिस काटजू कांग्रेस को खुश करने के लिए मीडिया (यहां मीडिया का अर्थ इलैक्ट्रोनिक मीडिया ही समझा जाए क्योंकि बहस उसी पर केंद्रित थी) पर नियंत्रण की बात कर रहे हैं तो औसत बुद्धि का व्यक्ति भी यह सहज प्रश्न कर सकता है कि एन के सिंह या इलैक्ट्रोनिक मीडिया के साथी गंभीर सवालों को दरकिनार कर कांग्रेस को केंद्र में लाकर किसको खुश करने का एजेण्डा चला रहे हैं?
बहस के दौरान श्री एन के सिंह के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था कि उन्हें मीडिया पर असल खतरा किससे है? जस्टिस काटजू से, कांग्रेस से, संसद से, न्यायपालिका से या जनता से? यहीं सवाल खड़ा होता है कि जब 1951 से आठ कड़े कानून अस्तित्व में हैं जिनसे मीडिया का गला घोंटा जा सकता है तो मीडिया पर खतरा अचानक कहां से आ गया, यह खतरा तो 1951 से मौजूद है? जाहिर सी बात है कि इलैक्ट्राॅनिक मीडिया अपनी हदें लांघ रहा है और पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों की धज्जियां उड़ा रहा है इसलिए आम जनमानस में उसके खिलाफ माहौल भी बन रहा है। फिर इन कानूनों ने अब तक प्रेस का कितना गला घोंटा है ? आपातकाल में भी जब प्रेस पर सेंसरशिप लगाई गई तब भी यह आठ कानून कहां खतरा बने?
एन के सिंह जी चाहते हैं कि कोई ऐसी गवर्निंग बाॅडी बने जो स्वायत्त हो और उसमें सरकार का हस्तक्षेप न हो बल्कि इलैक्ट्राॅनिक मीडिया के लोग ही उस संस्था में हों यानी वे ‘आत्मनियमन’ करें। यहां दो प्रश्न उभरते हैं। जब प्रिन्ट मीडिया के लिए प्रेस काउन्सिल आॅफ इण्डिया जैसी संस्था है तो इलैक्ट्राॅनिक मीडिया को कैसे खुली छूट दे दी जाए? एक तरफ श्री सिंह यह स्वीकार करते हैं कि संपादकों के ऊपर टीआरपी और मोटी तनख्वाहों के कारण दबाव रहता है ऐसे में अगर ‘आत्मनियमन’ का अधिकार उनके पास रहेगा तो इस बात की क्या गारंटी है कि टीआरपी और मालिकों के दबाव में इस आत्मनियमन की धज्जियां नहीं उड़ाई जाएंगी? यह चिंता इसलिए भी जायज है क्योंकि पिछले एक दशक में बहुत तेजी के साथ मीडिया के क्षेत्र में आवारापूंजी का दखल बढ़ा है, माफिया, बिल्डर और चिटफण्डिए किस्म के लोग मीडिया में पदार्पण कर रहे हैं। क्या ये लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के सही नुमाइंदे हैं?
आश्चर्य की बात यह है कि तर्क दिया जा रहा है कि स्टिंग आॅपरेशंस के लिए चैनलों को खुली छूट दे दी जाए और ‘मानहानि’ के आपराधिक मुकदमों से छूट दे दी जाए। पहली बात तो यही है कि स्टिंग को पत्रकारिता नहीं कहा जा सकता, वह तकनीक का खेल है और शुद्ध जासूसी है। फिर मानहानि के आपराधिक मुकदमों से छूट दे दी जाए तब तो उमा खुराना जैसे केस रोज होंगे। यानी इलैक्ट्राॅनिक मीडिया कुछ भी करता रहे उसे खुली छूट हो?
संवाद के दौरान ही जब यह सवाल उठा कि मीडिया के अंदर जबर्दस्त शोषण है और नेशनल ब्राॅडकास्टर्स एडिटर्स एसोसिएश्न इसके लिए क्या कदम उठा रही है, तो महासचिव महोदय निरुत्तर हो गए। मीडिया में स्ट्रिंगर्स का भयानक शोषण है, संपादक जी की तनख्वाह दो से तीन करोड़ रुपये सालाना है जबकि स्ट्रिंगर को मिलते हैं कुल 500 रुपये महीना बल्कि कई चैनल तो स्ट्रिंगर्स से कैमरा आदि के नाम पर जमानत राशि भी लेते हैं। डेस्क पर काम करने वाले पत्रकार साथी बौद्धिक मजदूर की श्रेणी में आते हैं जिनसे श्रम कानूनों के तहत दिन में छह घंटे ही काम लिया जा सकता है और उनसे काम लिया जा रहा है दस से बारह घंटे। लेकिन मीडिया की स्वतंत्रता का राग अलापने वाले एनबीईए के संपादकगणों ने कितने चैनलों में श्रम कानूनों का पालन करवाना सुनिश्चित किया है? ऐसे गंभीर प्रश्नों का बहुत ही मासूम सा उत्तर एन के सिंह ने दिया कि एनबीईए ट्रेड यूनियन नहीं है। यानी पत्रकारों का शोषण और उनकी स्वतंत्रता का मुद्दा मीडिया की स्वतंत्रता का प्रश्न नहीं है। जाहिर है ऐसे में मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर संपादकगण मीडिया घरानों की आवारा पूंजी की स्वतंत्रता चाहते हैं और उनका मीडिया की आजादी से कोई सरोकार नहीं है।