छोटे-छोटे जीवन के दुखों से प्रयोग शुरू करना पड़ेगा। जीवन में रोज छोटे दुख आते हैं, रोज प्रतिपल वे खड़े हैं। और दुख ही क्यों, सुख से भी प्रयोग करना पड़ेगा, क्योंकि दुख में जागना उतना कठिन नहीं है, जितना सुख में जागना कठिन है। सुख में दूर होना और भी कठिन है, क्योंकि सुख में हम पास होना चाहते हैं, और पास होना चाहते हैं; दुख में तो हम दूर होना ही चाहते हैं। यानी दुख में यह पक्का पता चल जाए कि दुख दूर है। अगर हम को यह पता चल जाए तो दुख से हमारा छुटकारा हो जाए। तो दुख में भी जागने के प्रयोग करने पड़ेंगे और सुख में भी जागने के प्रयोग करने पड़ेंगे। और इन प्रयोगों में जो उतरता है, वह कई बार स्वेच्छा से दुख वरण करके भी प्रयोग कर सकता है। सारी तपश्चर्या का मूल रहस्य इतना ही है। वह स्वेच्छा से दुख को वरण करके किया गया प्रयोग है।यह शब्द स्वामी चिन्मयानन्द जी महाराज ने ओशो आश्रम में बात करते हुए कहे !स्वामी जी ने कहा के ओशो की पुस्तक मैं मृत्यु सिखाता हूं, में आचार्य रजनीश ने लिखा है के जैसे एक आदमी उपवास कर रहा है, भूखा खड़ा है। वह भूख का प्रयोग कर रहा है... आमतौर से जो लोग उपवास करते हैं, उन्हें ख्याल भी नहीं होता कि क्या कर रहे हैं वे। वे सिर्फ भूखे हैं और कल भोजन करना है, उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन उपवास का जो मौलिक प्रयोग है, वह यह है कि भूख है और भूख मुझसे दूर है, इसका अनुभव करना है, मैं भूखा नहीं हूं। तो भूख को अपने हाथ से पैदा करके यह जानने की भीतर चेष्टा चल रही है कि भूख वहां है, राम को भूख लगी है। मैं भूखा नहीं हूं। मैं जान रहा हूं कि भूख लगी है। और इसे जानना है, जानना है, जानना है... और उस घड़ी पर पहुंच जाना है, जहां भूख और मेरे बीच एक फासला हो, मैं भूखा न रह जाऊं। भूख में भी, मैं भूखा न रह जाऊं। शरीर भूखा रहे और मैं जानूं। मैं सिर्फ जानने वाला रह जाऊं। तब तो उपवास का बड़ा गहरा अर्थ हो जाता है। उसका अर्थ सिर्फ भूखा रहना नहीं है। अनशन और उपवास का यही फर्क है। उपवास का मतलब है आवास- निकट, और निकट। किसके? किसके पास? अपने पास। अपने पास रहना और शरीर से दूर। तब फिर यह भी हो सकता है कि एक आदमी भोजन किए हुए भी उपवास में हो, क्योंकि अगर भोजन करते हुए भी वह जानता हो कि भोजन दूर हो रहा है और मैं कहीं और हूं तो उपवास है। और यह भी हो सकता है कि एक आदमी भोजन न किए हुए भी उपवास न हो, क्योंकि वह जानता हो कि मैं भूखा हूं। मैं भूखा मरा जा रहा हूं। उपवास तो एक मनोवैज्ञानिक बोध है, भूख से भिन्नता का।
तो ऐसे और दुख भी पैदा किए जा सकते हैं स्वेच्छा से भी। लेकिन स्वेच्छा से पैदा किए गए दुख बहुत गहरा प्रयोग हैं। एक आदमी कांटे पर भी लेट सकता है सिर्फ यह जानने के लिए कि कांटे मुझे नहीं चुभ रहे हैं, कांटे कहीं और छिदे हुए हैं और मैं कहीं और हूं। मैं कहीं और हूं, इस अनुभव के लिए दुख आमंत्रित भी किया जा सकता है। लेकिन अभी तो अन-आमंत्रित दुख ही काफी हैं। उन्हें और आमंत्रित करते जाने की कोई जरूरत नहीं है। दुख हमेशा ही बहुत हैं। अभी उनसे ही प्रयोग शुरू करना चाहिए। दुख ऐसे ही चले आते हैं। आए हुए दुख में भी यदि ये बोध रखा जा सके कि मैं भिन्न हूं, मैं दूर हूं तो दुख साधना बन जाता है। आए हुए सुख में भी साधना करनी पड़ेगी, क्योंकि दुख में तो हो सकता है कि हम अपने को धोखा भी दे दें, क्योंकि मन मानने को करता है कि दुख मैं नहीं हूं, लेकिन सुख को तो मन मानने को करता है कि मैं सुख हूं। इसलिए सुख में साधना और मुश्किल हो जाती है। असल में सुख से दूर अनुभव करना सबसे बड़ा दुख है। सुख से अपने को दूर अनुभव करना बहुत दुख है, क्योंकि वहां तो मन होता है कि डूब जाओ पूरे और भूल जाओ कि मैं अलग हूं। सुख डुबाता है, दुख तो वैसे ही तोड़ता है और अलग करता है। दुख के तो हम मजबूरी में ही साथ हैं, ऐसा मान पाते हैं, लेकिन सुख को तो हम पूरे प्राणों से अंगीकार कर लेना चाहते हैं।
आए हुए दुख में जागें, आए हुए सुख में जागें, और कभी-कभी प्रयोग के लिए आमंत्रित दुख में भी जागें। क्योंकि आमंत्रित दुख में थोड़ा फर्क है। क्योंकि जिसे हम बुलाते हैं, जिसे हम न्योता देते हैं, उसके साथ हम पूरे कभी नहीं डूब सकते। क्योंकि वह बुलाया हुआ है, निमंत्रित है, यह बोध भी फासला पैदा करता है। अतिथि कभी भी हम नहीं हो सकते। घर में आया हुआ अतिथि हमसे अलग ही है। जब हम दुख को अतिथि की तरह बुला लेते हैं कभी, तब वह अलग ही होता है, क्योंकि हमने उसे बुलाया है।
तो ऐसे और दुख भी पैदा किए जा सकते हैं स्वेच्छा से भी। लेकिन स्वेच्छा से पैदा किए गए दुख बहुत गहरा प्रयोग हैं। एक आदमी कांटे पर भी लेट सकता है सिर्फ यह जानने के लिए कि कांटे मुझे नहीं चुभ रहे हैं, कांटे कहीं और छिदे हुए हैं और मैं कहीं और हूं। मैं कहीं और हूं, इस अनुभव के लिए दुख आमंत्रित भी किया जा सकता है। लेकिन अभी तो अन-आमंत्रित दुख ही काफी हैं। उन्हें और आमंत्रित करते जाने की कोई जरूरत नहीं है। दुख हमेशा ही बहुत हैं। अभी उनसे ही प्रयोग शुरू करना चाहिए। दुख ऐसे ही चले आते हैं। आए हुए दुख में भी यदि ये बोध रखा जा सके कि मैं भिन्न हूं, मैं दूर हूं तो दुख साधना बन जाता है। आए हुए सुख में भी साधना करनी पड़ेगी, क्योंकि दुख में तो हो सकता है कि हम अपने को धोखा भी दे दें, क्योंकि मन मानने को करता है कि दुख मैं नहीं हूं, लेकिन सुख को तो मन मानने को करता है कि मैं सुख हूं। इसलिए सुख में साधना और मुश्किल हो जाती है। असल में सुख से दूर अनुभव करना सबसे बड़ा दुख है। सुख से अपने को दूर अनुभव करना बहुत दुख है, क्योंकि वहां तो मन होता है कि डूब जाओ पूरे और भूल जाओ कि मैं अलग हूं। सुख डुबाता है, दुख तो वैसे ही तोड़ता है और अलग करता है। दुख के तो हम मजबूरी में ही साथ हैं, ऐसा मान पाते हैं, लेकिन सुख को तो हम पूरे प्राणों से अंगीकार कर लेना चाहते हैं।
आए हुए दुख में जागें, आए हुए सुख में जागें, और कभी-कभी प्रयोग के लिए आमंत्रित दुख में भी जागें। क्योंकि आमंत्रित दुख में थोड़ा फर्क है। क्योंकि जिसे हम बुलाते हैं, जिसे हम न्योता देते हैं, उसके साथ हम पूरे कभी नहीं डूब सकते। क्योंकि वह बुलाया हुआ है, निमंत्रित है, यह बोध भी फासला पैदा करता है। अतिथि कभी भी हम नहीं हो सकते। घर में आया हुआ अतिथि हमसे अलग ही है। जब हम दुख को अतिथि की तरह बुला लेते हैं कभी, तब वह अलग ही होता है, क्योंकि हमने उसे बुलाया है।
और ध्यान रहे, दुख को बुलाना एक बहुत महत्वपूर्ण प्रयोग है, क्योंकि सुख को सब बुलाना चाहते हैं, दुख को कोई भी बुलाना नहीं चाहता। और मजे की बात यह है कि जिस दुख को हम नहीं बुलाना चाहते, वह आता है; और जिस दुख को हम बुलाते हैं, वह आ ही नहीं पाता। आ भी जाता है तो द्वार के बाहर ही खड़ा रह जाता है। जिस सुख को हम बुलाते हैं, वह कभी नहीं आता; और जिस सुख को हम नहीं बुलाते, वह आ जाता है। तो दुख को जब बुलाने की क्षमता कोई जुटा लेता है, तब उसका मतलब यह है कि वह इतना सुखी हो गया है कि अब दुख बुला सकता है। अब दुखों को कहा जा सकता है कि आओ और ठहर जाओ। और अगर दुखों के प्रति हम जागते चले जाएं तो वह क्षमता आ जाएगी मृत्यु के क्षण तक कि हम मृत्यु में भी जाग सकेंगे। इसकी निरंतर तैयारी करनी पड़ेगी। और अगर यह तैयारी पूरी हो जाती है तो मृत्यु की घटना अद्भुत घटना है। पर इसकी तैयारी करनी पड़ेगी, ध्यान इसकी तैयारी है।
ध्यान, धीरे-धीरे कैसे मरा जाता है स्वेच्छा से, उसका प्रयोग है। कैसे हम भीतर सरकते हैं और कैसे हम शरीर को छोड़ते चले जाते हैं, उसका प्रयोग है। और ध्यान की तैयारी चले और चलती रहे तो मृत्यु के क्षण में पूर्ण ध्यान उपलब्ध हो जाएगा। और यह जो मृत्यु होगी जागे हुए, ऐसे व्यक्ति की आत्मा फिर जागी हुई ही जन्म लेती है। यह जो एक जन्म है जागे हुए व्यक्ति का, ऐसे ही व्यक्तियों को हम अवतार, तीर्थंकर, बुद्ध, जीसस और कृष्ण कहते रहे हैं। ऐसे लोगों को हम आदमी से अलग गिनते रहे हैं। उसका इतना ही कारण है कि वे निश्चित हमसे बहुत अलग हैं। और यह उनकी अंतिम यात्रा है इस पृथ्वी पर। और इसलिए कुछ उनमें है, जो हममें नहीं है; और कुछ उनमें है, जो हम तक पहुंचाने की वे अथक चेष्टा करते रहेंगे। फर्क उनमें और हममें इतना ही है कि उनका यह जन्म और पिछली मृत्यु जाग्रत हुई है, इसलिए यह पूरा जीवन जागा हुआ है।
ध्यान, धीरे-धीरे कैसे मरा जाता है स्वेच्छा से, उसका प्रयोग है। कैसे हम भीतर सरकते हैं और कैसे हम शरीर को छोड़ते चले जाते हैं, उसका प्रयोग है। और ध्यान की तैयारी चले और चलती रहे तो मृत्यु के क्षण में पूर्ण ध्यान उपलब्ध हो जाएगा। और यह जो मृत्यु होगी जागे हुए, ऐसे व्यक्ति की आत्मा फिर जागी हुई ही जन्म लेती है। यह जो एक जन्म है जागे हुए व्यक्ति का, ऐसे ही व्यक्तियों को हम अवतार, तीर्थंकर, बुद्ध, जीसस और कृष्ण कहते रहे हैं। ऐसे लोगों को हम आदमी से अलग गिनते रहे हैं। उसका इतना ही कारण है कि वे निश्चित हमसे बहुत अलग हैं। और यह उनकी अंतिम यात्रा है इस पृथ्वी पर। और इसलिए कुछ उनमें है, जो हममें नहीं है; और कुछ उनमें है, जो हम तक पहुंचाने की वे अथक चेष्टा करते रहेंगे। फर्क उनमें और हममें इतना ही है कि उनका यह जन्म और पिछली मृत्यु जाग्रत हुई है, इसलिए यह पूरा जीवन जागा हुआ है।