भगवान श्री सूर्य समस्त जीव-जगत के आत्मस्वरूप हैं। वह अखिल सृष्टि के आदि कारण हैं। इन्हीं से सब की उत्पत्ति हुई है। वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है। श्रीमद्भागवत पुराण में कहा गया है- भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं।भगवान श्री सूर्य समस्त जीव-जगत के आत्मस्वरूप हैं। वह अखिल सृष्टि के आदि कारण हैं। इन्हीं से सब की उत्पत्ति हुई है। वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है। श्रीमद्भागवत पुराण में कहा गया है- भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। परम पूजय स्वामी चिन्मय नन्द जी महाराज जो के इस धरती को महाप्रलय से बचने के लिए कई वर्ष पहले सूर्य महायज्ञ कर चुके है और सूर्य कामेष्टि यज्ञ करने का सेहरा भी स्वामी जी के सर ही है ने कहा के सूर्य भगवान लाइव देवता है जो प्रतयक्ष रूप से दिखाई देते है !स्वामी जी ने कहा के सूर्यदेव की दो भुजाएं हैं, वे कमल के आसन पर विराजमान रहते हैं, उनके दोनों हाथों में कमल सुशोभित हैं। उनके सिर पर सुंदर स्वर्ण मुकुट तथा गले में रत्नों की माला है। उनकी कान्ति कमल के भीतरी भाग की सी है और वे सात घोड़ों के रथ पर आरुढ़ रहते हैं। सूर्य देवता का एक नाम सविता भी है, जिसका अर्थ है− सृष्टि करने वाला। ऋग्वेद के अनुसार, आदित्य मण्डल के अन्तः स्थित सूर्य देवता सबके प्रेरक, अन्तर्यामी तथा परमात्मस्वरूप हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार सूर्य ब्रम्ह स्वरूप हैं, सूर्य से जगत उत्पन्न होता है और उन्हीं में स्थित है। यही भगवान भास्कर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र बनकर जगत का सजृन, पालन और संहार करते हैं। सूर्य नवग्रहों में सर्वप्रमुख देवता हैं।
जब ब्रह्मा अण्ड का भेदन कर उत्पन्न हुए, तब उनके मुख से 'ओम' यह महाशब्द उच्चारित हुआ। यह ओंकार परब्रह्म है और यही भगवान सूर्यदेव का शरीर है। ब्रह्मा के चारों मुखों से चार वेद आविर्भूत हुए, जो तेजी से उदीप्त हो रहे थे। ओंकार के तेज ने इन चारों को आवृत कर लिया। इस तरह ओंकार के तेज से मिलकर चारों एकीभूत हो गये। यही वैदिक तेजोमय ओंकार स्वरूप सूर्य देवता हैं। यह सूर्य स्वरूप तेज सृष्टि के सबसे आदि में पहले प्रकट हुआ, इसलिए इसका नाम आदित्य पड़ा।
एक बार दैत्यों, दानवों एवं राक्षसों ने संगठित होकर देवताओं के विरुद्ध युद्ध ठान दिया और देवताओं को पराजित कर उनके अधिकारों को छीन लिया। देवमाता अदिति इस विपत्ति से त्राण पाने के लिए भगवान सूर्य की उपासना करने लगीं। भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर अदिति के गर्भ से अवतार लिया और देव शत्रुओं को पराजित कर सनातन वेदमार्ग की स्थापना की। इसलिए भी वे आदित्य कहे जाने लगे।
भगवान सूर्य का वर्ण लाल है। इनका वाहन रथ है। इनके रथ में एक ही चक्र है, जो संवत्सर कहलाता है। इस रथ में मासस्वरूप बारह अरे हैं, ऋतुरूप छह नेमियां और तीन चौमासे रूप तीन नाभियां हैं। इनके साथ साठ हजार बालखिलय स्वस्तिवाचन और स्तुति करते हुए चलते हैं। ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता सूर्य नारायण की उपासना करते हुए चलते हैं। चक्र, शक्ति, पाश और अंकुश इनके मुख्य अस्त्र हैं।
भगवान सूर्य सिंह राशि के स्वामी हैं। इनकी महादशा छह वर्ष की होती है। सूर्य की प्रसन्नता और शान्ति के लिए नित्य सूर्यार्घ्य देना चाहिए और हरिवंशपुराण का श्रवण करना चाहिए। माणिक्य धारण करना चाहिए तथा गेहूं, सवत्सा गाय, गुड़, तांबा, सोना एवं लाल वस्त्र ब्राह्मण को दान करना चाहिए। सूर्य की शान्ति के लिए वैदिक मंत्र− 'ओम आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।' का जाप करना चाहिए।
सूर्योपासना विधि-
भगवान सूर्य की नित्य त्रिकाल उपासना करनी चाहिए। सूर्य की उपासना करने वाला परमात्मा की ही उपासना करता है। सूर्य की उपासना से लंबी आयु का वरदान भी हासिल किया जा सकता है। वैदिक सूक्तों, पुराणों तथा आगम आदि ग्रंथों में भगवान सूर्य की नित्य आराधना का निर्देश है। इनके साथ सभी ग्रह, नक्षत्रों की आराधना भी अंगोपासना के रूप में आवश्यक होती है। मंत्र−महादधि, श्रीविद्यार्णव आदि कई ग्रंथों को देखने से उनके जपनीय मंत्र मुख्य रूप से दो प्रकार के मिलते हैं। प्रथम मंत्र है− ओम घृणि सूर्य आदित्य ओम' तथा द्वितीय मंत्र है− ओम ह्रीं घृणि सूर्य आदित्यः श्रीं ह्रीं मह्मं लक्ष्मीं प्रयच्छ'। इस मंत्र का मूल तैत्तिरीय शाखा के नारायण−उपनिषद में प्राप्त है, जिस पर विद्यारण्य तथा सायणाचार्य− दोनों के भाष्य प्राप्त हैं। इनकी उपासना में इनकी 9 पीठ शक्तियों− दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अमोघा, विद्युता एवं सर्वतोमुखी की भी पूजा की जाती है।
सूर्य की आराधना से महाराज राज्यवर्धन को दीर्घ आयु की प्राप्ति− भगवान श्रीराम के पूर्वज सूर्यवंशी राजा दम के पुत्र महाराज राज्यवर्धन बड़े विख्यात नरेश हुए हैं। वे अत्यन्त सजगता से धर्मपूर्वक अपने राज्य का शासन करते थे। उनके राज्य में सभी लोग सुखी एवं प्रसन्न थे। प्रजा धर्म के अनुसार रहकर ही विषयों का उपभोग करती थी। दीनों को दान दिया जाता एवं यज्ञों का आयोजन होता रहता।