लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व में जहाँ एक ओर कई उम्मीदवार अपना भाग्य आजमाकर भविष्य सँवारने को निकलते हैं, वहीँ कोई प्रधानमन्त्री बनने के तो कई प्रधानमंत्री की केबिनेट में मंत्री होने की भी पूरी जुगत रखते हैं | सभी 9 चरणों का मतदान पूरा हो चुका है, सभी बाहुबलियों का भाग्य अब ईवीएम नाम के चिराग में क़ैद है, 16 मई को उस चिराग में से निकला जिन्न अपने आका का चयन कर लेगा और उन्हीं का हुक्म बजायेगा | लेकिन सवाल यह है कि इस कुरुक्षेत्र - धर्मक्षेत्र में कभी धर्म भी विजयी होगा या राजनीति की कंटीली नोंक जनता की आशाओं के रंगीन गुब्बारों की हवा निकालती रहेगी |
पिछले 68 सालों का स्वतंत्र भारत का इतिहास तो यही कहता है कि तथाकथित राजनीति अपना रंग वोट के बेलेट पर अपना रंग मिलाने में अक्सर कामयाब रही है |
भारत की पहली सरकार जिस तरह बनी और उसके बाद अब तक जिस तरह बनती आई है उसमे कोई दल या कोई व्यक्ति ही जीता है |
सरदार पटेल के सबसे मजबूत और नेक व्यक्तित्व और प्रधानमन्त्रीत्व के सारे गुण होने के बावज़ूद जिस प्रकार राजनीति ने नेहरु को डोर सौंप दी वह सिलसिला आजतक नहीं रुका है |
1984 में इंडिया इज़ इंदिरा और इंदिरा इज़ इंडिया का जो माहौल बना वह राजनीतिक सहानुभूति का परिणाम था | जे.पी. आन्दोलन से ज़रूर आस जगी कि अब राजनीति नहीं जनता जीतेगी, लेकिन यह सुखद स्वप्न भी क्षणिक ही रहा, जीत तो राजनीतिक दल की होती दिखी |
संजय गाँधी की नीतियों का जो डर हुकूमत में फैला वह राजनीति से उनके जाने तक कायम रहा | नसबंदी नीति ने लोगों में और सरकारी हाकिमों में जो खौफ पैदा किया उसके किस्से आज भी सुने जा सकते हैं | इंदिरा से राजीव गाँधी के राजनीति में आने के बाद तक हर तरफ एक दल का ही वर्चस्व था | और राजीव के बाद उनके परिवार से साथ सहानुभुति का जो भाव जुदा उसका तिलिस्म महंगाई के जिन्न ने तोड़ा और फिर जो सरकार बनी वह “कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा” की तर्ज़ पर बनी थी | जिसमे 1 अनार और 28 बीमार थे | हश्र यह हुआ कि अनार ही सड़ गया | फसल फिर से बोई गयी, चुनावों के पासों ने एक अटल सरकार पर दांव खेला लेकिन जनता की मेहनत का रंग फीका पड़ता नज़र आया | कुछेक उपब्धियों या कहें वाकयों को छोड़कर सरकार जनता का विशेष भरोसा हासिल नहीं कर पाई | और 2004 में जनता ने एक बार फिर अपने पुराने हुकूमतदारों में विश्वास दिखाया और लगातार दो बार दिखाया |लेकिन दस सालों में सिर्फ राजनीतियो हुई, दोनों बार जनता पर राजनीति हावी दिखी | बरसों पुराना चुनाव चिन्ह हावी दिखा | लोगों के मानस पर कोई नया चुनाव चिन्ह अंकित कर पाने की हिम्मत अभी तक कोई नहीं दिखा पाया था | अपने 10सालों (2004-2014) के रिपोर्टकार्ड में दर्ज करने को सरकार के पास ज्यादा कुछ नहीं था | भ्रष्टाचार, कालाधन, महंगाई, भ्रष्ट नेताओं की संख्या में इज़ाफ़ा, पाकिस्तानी आतंकवाद, बांग्लादेशी और चीनी घुसपैठ, पूर्वोत्तर में और दिल्ली-बेंगलुरु जैसे राज्यों में पूर्वोत्तर के प्रति हिंसा, नक्सलवाद, अलगाववाद जैसे राष्ट्रीय मुद्दे इस बार चुनावों में ज़ोरों से गूँज रहे हैं |
लेकिन सबसे ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज कराई अन्ना आन्दोलन के बाद मास्टरमाइंड अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में उपजी ‘आम आदमी पार्टी’ ने | और वह भी ऐसी कि मात्र एक साल पहले बनी पार्टी ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र की राजधानी दिल्ली के विधानसभा चुनावों में 70 में से 28 सीटों पर धमाकेदार जीत हासिल की | इस बार पहली बार लगा कि दिल्ली में जनता जीती है | जनता की आवाज़ को हुक्म मानकर केजरीवाल ने सरकार भी बना ली और फिर जिस तेज़ी से सरकार का काम शुरू हुआ लगा कि दिल्ली की आम जनता अब आम से खास बनेगी | लेकिन 49 वें दिन सरकार को ग्रहण लगा गया | जो मान-सम्मान जनता ने आम आदमी पार्टी को या कहें अरविन्द केजरीवाल को दिया था अब वही जनता उन्हें भगोड़ा भी कहने लगी | केजरीवाल और उनकी टीम पर रैलियों और सभाओं में जूते, स्याही और चांटे बरसने लगे | और एक बार फिर से राजनीति जीत गयी | और राजनीति भी कैसी ? मुख्यमंत्री से सीधा प्रधानमन्त्री बनने की |
इस सब के बीच एक शख्स ने आंधी की तरह पूरे देश में अपने नाम की लहर पैदा की और लहर ऐसी कि जीत के लिए उनकी पार्टी को सिर्फ उनके ही नाम का सहारा रह गया इसलिए उन्हें प्रधानमन्त्री पद तक का उम्मीदवार घोषित कर दिया | जिसका परिणाम दिल्ली, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राज्यस्थान के विधानसभा के चुनावों में देखने को मिला |
लेकिन क्या यहाँ जनता जीत रही थी ? नहीं... यहाँ भी व्यक्ति ही जीत रहा था, उसके भाषण जीत रहे थे | राजनीतिक रंग जीत रहा था | और हर दल का यही हाल है |
12 मई को चुनाव प्रक्रिया पूरी हो चुकी | कल 16 मई है | अब चुनावी नतीजे तय करेंगे कि अगले 5 साल देश की जनता का भाग्य किनके हाथों में होगा |
लेकिन प्रश्न फिर भी रह जाएगा उत्तर की खोज में कि – “धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे चुनावी महासमर में क्या कभी जनता की भी जीत होगी जैसे27अप्रैल1994को दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला जीते थे या फिर राजनीति के रंग से चरित्र पर कालिख मल चुके नेता अपना काला चेहरा जनता से छुपा ले जायेंगे ?” आखिर इंतज़ार कब तक ? कभी तो आवाम को तपस्या का फल मिलेगा ही |