भाजपा की दो समस्याएं हैं। एक, वह लंबे समय तक विपक्ष में रही है, इसलिए उसके तेवर हमेशा ही विपक्षी पार्टी वाले ही रहते हैं। वह भूल जाती है कि केंद्र में उसकी सरकार छह साल रह चुकी है। दो, उसकी विचारधारा आरएसएस की विचारधारा है। इस वजह से जब भी उस पर कोई राजनीतिक हमला होता है तो उसे वह अपने मूल, यानी विचारधारा पर हमला मान लेती है और वह एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी होने के नाते अपने और आरएसएस के बीच के फर्क को मिटा देती है। उसके नेता यह भूल जाते हैं कि जब वे सत्ता में आएंगे तो संविधान, लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा करना उनका धर्म होगा।
सोहराबुद्दीन मामले में भाजपा की यह कमजोरी एक बार फिर खुल कर सामने आई है। कठघरे में भाजपा के तीन बड़े नेता हैं। अमित शाह जेल में हैं और राजस्थान के पूर्व गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया और ओम माथुर पर शक है। नरंेद्र मोदी से भी पूछताछ की तैयारी है। ऐसे मंे भाजपा का तिलमिलाना स्वाभाविक है। और यह भी कि वह सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप कांग्रेस पर मढ़े। लेकिन इसकी आड़ में सुप्रीम कोर्ट पर चढ़ाई हो, यह ठीक नहीं है। पार्टी प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी ने बिना नाम लिए सुप्रीम कोर्ट के उन जज की मंशा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया, जिन्होंने रिटायरमेंट के ठीक पहले सीबीआई जांच के आदेश दिए थे।
भाजपा को ऐसा नहीं करना चाहिए, पर उसने सुप्रीम कोर्ट का लिहाज नहीं किया। अदालत के फैसले की आलोचना अलग बात है, पर यह कहना कि रिटायरमेंट के बाद लाभ के मोह की वजह से जांच का आदेश जज महोदय ने दिया, गलत है। यह सुप्रीम कोर्ट की ईमानदारी पर सवाल खड़े करना है, दुर्भाग्य से गुजरात के संदर्भ मंे ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। ये आरोप मोदी पर लगते रहे हैं कि उनकी अगुवाई में दंगों के बाद संवैधानिक संस्थाओं को झुकाने, उन पर दबाव बनाने और मनमाफिक काम करवाने की कोशिश की गई और जिन्होंने बात नहीं मानी, उन पर बिना लागलपेट के हमला किया गया।
दंगों के फौरन बाद विधानसभा चुनाव करवाने के लिए चुनाव आयोग पर दबाव बनाया गया। मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह जब नहीं माने, तो चुनावी सभाओं में उनका पूरा नाम ‘जेम्स माइकल लिंगदोह’ लेकर खुलेआम मजाक उड़ाया गया, यह संदेश दिया गया कि एक ‘ईसाई’ उनके खिलाफ लगा हुआ है। मोदी उस वक्त यह भूल गए कि वे एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं और जब वे लिंगदोह का मजाक उड़ाते हैं, तो कहीं न कहीं चुनाव आयोग नामक संस्था की बेइज्जती करते हैं।
मोदी और भाजपा की दिक्कत यह थी कि लिंगदोह उनके रंग में नही रंगे, जैसे राज्य में पुलिस-प्रशासन के आला अफसर रंग गए, वकील रंग गए और न्यायपालिका को भी काफी हद तक प्रभावित करने का प्रयास किया गया। पुलिस प्रशासन ने दंगों के दौरान तो आंखें मूंदी ही रखीं, दंगों के बाद दंगाई न पकड़े जाएं, दंगा मामलों की ठीक से जांच न हो, सबूतों के अभाव में फाइलें बंद कर दी जाएं और जो मामले अदालतों तक पहुंचे, उनकी ठीक से सुनवाई न हो पाए और जो मुकदमे आगे बढ़े, वो कमजोर हो जाएं और अंत में किसी को सजा न हो, इस बात की पूरी कोशिश की गई।
गुजरात सरकार की ऐसी हरकतों से ही नाराज होकर 22 नवंबर,2006 को अदालत ने साफ कहा था कि गुजरात सरकार पूरी तरह से क्रिमिनल प्रोसीजर कोड को भूल गई है और अदालत क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को डीरेल होने नहीं दे सकती है। अदालत तब तक 2000 से ज्यादा दंगा मामलों की फाइल बंद करने की गुजरात सरकार की कारगुजारी पर नाराजगी जता चुकी थी।
17 अगस्त,2004 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के पुलिस महानिदेशक को आदेश दिया था कि वह इन मामलों की दुबारा समीक्षा करें। अदालत को गुजरात सरकार पर तनिक भी भरोसा नहीं था, इसलिए डीजीपी को यह भी कहा कि वो हर तीन महीने पर उन्हें इन मामलों की प्रगति के बारे में सीधे जानकारी दें। इसी तरह बेस्ट बेकरी मामले में सरकार द्वारा नियुक्त सरकारी वकील की हरकतों से सुप्रीम कोर्ट के जज अरिजीत पसायत आगबबूला हो गए थे।
राज्य सरकार के असहयोग से भड़क कर सुप्रीम कोर्ट ने बेस्ट बेकरी जैसे मामले की सुनवाई गुजरात के बाहर करने की सिफारिश की और मुख्यमंत्री को वाजपेयी के शब्दों की याद दिलाते हुए ‘राजधर्म’ निभाने की नसीहत मुख्य न्यायाधीश वीएन खरे ने दी थी। जस्टिस खरे यह नहीं समझ पा रहे थे कि 44 गवाहों में से 37 अपने बयान से मुकर जाएं और उनसे जवाबी जिरह तक न हो।
मुझे तो लगा था कि गुजरात दंगों से भाजपा ने कुछ सबक लिया होगा, लेकिन अफसोस सोहराबुद्दीन मामले में भी वही हुआ। शुरू से ही मामले को दबाने की कोशिश की गई। जब मामला नहीं दबा तो संवैधानिक संस्थाओं पर हमले किए जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के जज को घेरे में लाने से हो सकता है भाजपा को राजनीतिक लाभ हो, लेकिन संविधान को जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई कैसे होगी? भाजपा को यह सोचना होगा, साथ ही यह भी कि जब वह केंद्र मंे आएगी, तो फिर सुप्रीम कोर्ट का सामना कैसे करेगी?
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