Thursday, October 8, 2015

मेरठ, दिल्ली, मुरादाबाद, बरेली, लखनऊ, गोरखपुर और मुजफ्फरपुर के बीच लोग आते रहे जाते रहे मगर चर्चा बस बिहार चुनाव की। हर जगह बिहार चुनाव की गर्माहट महसूस की जा सकती थी। यूपी में पंचायत चुनाव चल रहा है मगर वहां की चौपाल में भी बिहार चुनाव छाया रहता है।
मेरठ से दिल्ली तीन घंटे-बस का सफर: ‘शाम में अमेरिका और दूसरे दिन सबेरे बांका में थे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। भाई साहब, तन होगा अमेरिका में मन तो बिहार में ही होगा। यूपी और बिहार कहने को तो राज्य है मगर यहां के चुनाव का मतलब देश का चुनाव होता है। बड़े-बड़े सुरमाओं की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है।’ आगे से दूसरी सीट पर मेरे बगल में बागपत के हरिओम भड़ाला बैठे थे। उनके हाथ में अखबार था और अंदर के पन्ने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की फोटो। बिहार केबांका जिले में एक कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे।
भड़ाला ने ठेठ हरियाण्वी अंदाज में कहा ‘भाई देक्खो, यू मोदी कल अमरिका में था, आज्ज बांका में। वोट लेण अमरिका से उड़ के चला आ’। हमने जब पूछा ताऊ बिहार चुनाव की खबर पढ़ते हो और फिर क्या बस में तीन घंटे का सफर बिहार चुनाव के नाम पर कट गया। हरिओम के बगल में बैठे मोदीनगर के राजीव त्यागी ने कहा अभी तो बस बिहार चुनाव ही है। भाजपा से लेकर कांग्रेस तक की प्रतिष्ठा दांव पर है। बिहार के चुनावी समीकरण की बारीकियों को समझाते हुए हरिओम भड़ाला ने कहा कि भाजपाकांग्रेस तो है ही असली हीरो तो नीतीश और लालू हैं। उनकी प्रतिष्ठा भी दांव पर है। हर पार्टी ने अपना घोड़ा खोल रखा है और उसे रोकने के लिए दूसरे लोग उनके पीछे पड़े हैं। चुनाव दिल्ली जैसा होगा। अंत तक किसी को पता नहीं चलेगा कि ऊंट किस करवट बैठेगा। पीछे से आवाज आती है ताऊ बिहार में पंचायत नहीं विधानसभा का चुनाव है। दोनों एक जैसा कैसे होगा। दरअसल यूपी में अभी पंचायत चुनाव चल रहा है।
बिहार में अब सिर्फ दलितों और पिछड़ों की राजनीति नहीं हो रही, इसकी राजनीति का नया रुझान महादलित और अति पिछड़ों से जुड़ा है। ये दो श्रेणियां बताती हैं कि जिन्हें हम दलित और पिछड़े वर्गों की तरह देखते हैं, उनका स्वरूप हर जगह एक सा नहीं है। इन वर्गों के भीतर भी गैर-बराबरी, ऊंच-नीच या भेदभाव है। इसके चलते संसाधनों का समान वितरण नहीं हो पाता। इनके भीतर भी ऐसी श्रेणियां हैं, जो सरकार से मिलने वाली सुविधाओं और योजनाओं के ज्यादातर हिस्से को आसानी से हासिल कर लेती हैं और इनका लाभ नीचे तक पहुंचने नहीं देतीं। कई कारणों से ये वंचित श्रेणियां बाकी पिछड़ों व दलितों से पीछे रह जाती हैं।
अति पिछडे़ और महादलित जैसे सामाजिक समूह एक तो छोटी संख्या वाली जातियां होती हैं। दूसरे इनका बसाव किन्हीं विशेष जगहों पर केंद्रित न होकर फैला और छितराया हुआ होता है। यानी लोकतांत्रिक राजनीति में इनका संख्याबल ज्यादा नहीं होता। फिर फैली हुई और बिखरी हुई बसाहट के कारण इन समूहों के वोट चुनावों में प्रभावी स्थिति में भी नहीं होते। शिक्षा के अभाव के कारण इनमें कोई बड़ा राजनीति नेतृत्व विकसित नहीं हो पाता। ऐसे तमाम सामाजिक और आर्थिक कारण हैं, जिनके चलते इनका राजनीतिकरण भी तेजी से नहीं हो पाता और ये जनतांत्रिक राजनीति में अदृश्य सामाजिक समूह बनकर रह जाते हैं। आमतौर पर कोई राजनीतिक दल इन्हें ज्यादा महत्व नहीं देता। लेकिन जब कोई राजनीतिक दल इनके बीच काम करता है, तो धीरे-धीरे ये छोटे-छोटे सामाजिक समूह लामबंद होकर राजनीति के समीकरण को बदलने की क्षमता रखने लगते हैं।
राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में अति पिछड़ों का मत निर्णायक होगा। बिहार में पिछड़े वर्ग की लगभग 51 प्रतिशत आबादी में करीब 24 प्रतिशत अति पिछडे़ हैं। इनमें लगभग 94 जातियां हैं, जिनमें कुशवाहा, तेली जैसी थोड़ी बड़ी जातियों को अगर छोड़ दें, तो निषाद, चंद्रवंशी (ततवां, धानुक, गड़ेरिया) जैसी जातियों की आबादी काफी कम है। उत्तर बिहार में निषाद की संख्या थोड़ी प्रभावी है। अति पिछड़़ों में आने वाली जातियों को बिहार में पचपनिया, पंचपवनियां जैसे नामों से पुकारा जाता रहा है। सामंती यजमानी व्यवस्था में ये जातियां अपनी सेवा के बदले सामंतों-मालिकों से अपना हिस्सा लेकर जीविका निर्वाह करती थीं। सेवा से जुड़ी जाति होने के कारण अनेक गांवों में तो इनकी संख्या दो या तीन घर से ज्यादा नहीं होती, क्योंकि इनकी जरूरत खास मौकों जैसे शादी-ब्याह, मृत्यु तथा विभिन्न संस्कारों में होती थी। इनके अतिरिक्त इनकी जरूरत ज्यादा नहीं होती थी। पारंपरिक रूप से ये खेतिहर, श्रमिक नहीं होते थे, जिनकी जरूरत गांवों में ज्यादा थी। इसीलिए ये बिखरी हुई व छोटी आबादी वाली जातियां हैं। अकेली जाति के रूप में इनका आधार बहुत बड़ा नहीं होता, इसलिए इन जातियों से नेता नहीं पैदा हो सके हैं। आजादी के बाद की बिहार की राजनीति को अगर देखें, तो इन समूहों से बड़े नेता कम ही दिखाई पड़ते हैं। उत्तर बिहार में निषाद समूह की संख्या ज्यादा है, इनमें जरूर समय-समय पर नेता उभरते रहे हैं। अति पिछड़ों की अनेक जातियां इसीलिए अपने को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की भी मांग करती रही हैं, क्योंकि ये पिछड़ों में आगे बढ़ी जातियों की स्पद्र्धा में टिक नहीं पातीं। इसी कारण से वे आरक्षण का लाभ नहीं ले पा रही हैं। इन्हें महसूस होता है कि इस जनतंत्र में उनकी जितनी हिस्सेदारी है, वह उन तक नहीं पहुंच पा रही है।
पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुडे़ संगठन अपने ‘सामाजिक समरसता अभियान’ के तहत इन जातियों के अस्मिता-बोध और हिंदू गौरव को जगाकर उन्हें अपने से जोड़ने की कोशिश करते रहे हैं। इसके लिए इन जातियों पर आधारित अनेक हिंदू सम्मेलन भी आयोजित किए जा चुके हैं, जिनमें अनेक जाति नायकों का गौरवगान हिंदू अस्मिता के विस्तार के रूप में किया जाता है और साथ ही इन जातियों के वंचित होने के एहसास को सहलाकर उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिश की गई है। ऐसे कई जातीय सम्मेलन पिछले कुछ वर्षों में भारतीय जनता पार्टी ने भी किए हैं। इतना ही नहीं, भाजपा ने इन जातियों में से कई नेताओं को इस विधानसभा चुनाव में टिकट भी दिए हैं। इसलिए संभव है कि इनमें से कुछ प्रतिशत मत भाजपा को मिले भी। वैसे कई और कारण हैं, जिनके चलते भाजपा अपने को अति पिछड़े वर्ग का नजदीकी घोषित कर रही है। पहला- नरेंद्र मोदी खुद वैश्य समुदाय से आते हैं, जो बिहार में अति पिछड़े वर्ग का हिस्सा है। दूसरा, सुशील मोदी, जो कि बिहार में भाजपा के सबसे बड़े नेता हैं और मुख्यमंत्री पद के एक सशक्त दावेदार भी हैं, वह भी वैश्य समाज से आते हैं। तीसरा उपेंद्र कुशवाहा, जो राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता हैं और एनडीए में शामिल हैं, वह भी अति पिछड़ी कुशवाहा जाति से आते हैं। इसलिए अति पिछड़ी जातियां जैसे कुशवाहा, सोढ़ी, तेली, जो कि व्यापारिक जातियां भी हैं, भाजपा व एनडीए को वोट दे सकती हैं।
अति पिछड़े मतों पर महागठबंधन का दावा भी सशक्त है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन ने इनका राजनीतिक महत्व समझते हुए इनमें से कुछ समूहों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी दिया है, पर महागठबंधन और एनडीए, दोनों की राजनीति में इन्हें पर्याप्त स्पेस दिए जाने की अब भी जरूरत है। नीतीश कुमार इन जातियों का समर्थन पाने का दावा कर रहे हैं, क्योंकि उनका मानना है कि पिछड़े में अति पिछड़ों की श्रेणी उन्होंने ही बनाई, उनको सांविधानिक दर्जा दिया और स्थानीय निकाय चुनावों में 17 प्रतिशत आरक्षण भी दिया। उनका मानना है कि ये जातियां चुनाव में उनकी तरफ ही जाएंगी। दिन-ब-दिन बिहार की राजनीति में ‘बिखरे-छितराए’ समूहों की भूमिका बढ़ती जाएगी। राजनीतिक प्रतिनिधित्व, अस्मिता बोध के साथ ही इन्हें विकास योजनाओं में भी पर्याप्त हिस्सेदारी दिए जाने की जरूरत है।
देखना यह है कि इस बिहार विधानसभा चुनाव में इन 94 अति पिछड़ी जातियों का कितना प्रतिनिधित्व होता है। देखना यह भी है कि आधार तल पर ये जातियां अतिरिक्त पिछड़े वर्ग की एकता को स्वीकार कर आगामी चुनाव में मत दे पाती हैं या नहीं। इनका राजनीतिक भविष्य इनके विकास के भविष्य से भी जुड़ा है, जिसके लिए जरूरी है कि ये छितराई-बिखरी छोटी-छोटी जातियां वर्तमान स्थिति से निकलकर अति पिछड़ों की बड़ी श्रेणी के रूप में संगठित हों और एक बड़े बोट बैंक में तब्दील होकर जनतंत्र का दरवाजा खटखटाएं ।
     


बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में किंगमेकर बनने का सपना बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भी देख रही है। पार्टी के पदाधिकारियों की मानें तो बिहार में बसपा के सहयोग के बिना किसी की सरकार नहीं बनेगी।

पार्टी की इच्छा है कि चुनाव के दौरान बसपा को कम से कम इतनी सीटें जरूर मिल जाएंगी, जिससे वह किंगमेकर बनने की स्थिति में खड़ी हो सके। बसपा बिहार चुनाव में इस बार पूरा दम लगा रही है।

यूं तो बसपा बिहार में वर्ष 1995 से ही विधानसभा चुनाव लड़ती आ रही है लेकिन कभी भी उसको ज्यादा सीटें नहीं मिली। वर्ष 1995 में हुये चुनाव में बसपा को केवल दो सीट से ही संतोष करना पड़ा था। 

1995 के बाद वर्ष 2000 में बिहार में हुये विधानसभा चुनाव में पार्टी को पांच सीटें मिलीं, तो 2004 में पार्टी को केवल चार सीटें ही मिल पायीं। पिछले विधानसभा चुनाव में स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि बसपा का खाता भी नहीं खुला। 

उप्र में सत्ता गंवाने के बाद से ही बसपा के दिन अच्छे नहीं चल रहे हैं। विधानसभा में मुंह की खाने के बाद 2014 में सम्पन्न हुये लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को काफी निराशा हाथ लगी थी। पार्टी उप्र में एक भी लोकसभा सीट जीतने में कामयाब नहीं हो पायी। 
पार्टी के रणनीतिकारों के मुताबिक, बसपा की मुखिया मायावती को बिहार चुनाव से भी बड़ी उम्मीदें हैं। पार्टी का मानना है कि बिहार में अच्छे प्रदर्शन के बाद उत्तर प्रदेश में एक बार से पार्टी का ग्राफ बढ़ेगा और इसका लाभ 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी मिलेगा।
पार्टी सूत्रों की मानें तो पार्टी की नजर उन सीटों पर है, जहां बसपा ने पिछले चुनावों में अच्छा वोट हासिल किया था। ऐसी सीटों का ब्यौरा तैयार किया जा रहा है और उन इलाकों में खासतौर से मायावती की रैलियों का आयोजन किया जायेगा। मायावती 9 अक्टूबर से बिहार में रैलियों को सम्बोधित करने की शुरूआत करेंगी।
बिहार चुनाव के प्रभारी रामअचल राजभर के मुताबिक, पार्टी बिहार विधानसभा का चुनाव पूरे दमखम के साथ लड़ रही है। उन्होंने कहा कि पार्टी 100 से अधिक सीटों पर मजबूती के साथ लड़ रही है। सीटें कितनी मिलेंगी अभी कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना मानकर चलिये कि इस बार बिहार में बसपा के सहयोग के बिना किसी की सरकार नहीं बनेगी। बसपा ही किंगमेकर होगी।
देश के जो सामाजिक समूह अभी काफी पिछड़े और आवाजहीन हैं, राजनीतिशास्त्र में उन्हें ‘चुप समुदाय’ कहा जाता है। ये चुप समुदाय जनतंत्र के दरवाजे जोर से खटखटा नहीं पाते, क्योंकि एक तो इनकी संख्या बहुत कम होती है और दूसरा, इनका आर्थिक विकास उस स्तर पर नहीं पहुंच पाता कि वे अपना नेतृत्व विकसित कर पाएं। इनमें राजनीतिक चेतना भी विकसित नहीं हो पाती। जनतंत्र के परिदृश्य पर अक्सर ये दिखाई तक नहीं देते। जब सरकारी कोशिशों से उन तक कुछ नीतियां, कार्यक्रम व विकास योजनाएं पहुंचने लगती हैं, तो उनमें कुछ शुरुआती राजनीतिक सुगबुगाहट दिखाई पड़ती है। सरकार उनका वर्गीकरण तो कर देती है, लेकिन उनके भीतर चेतना का विस्तार नहीं कर पाती, जिससे उनमें आधार-तल पर चौतरफा नेतृत्व नहीं विकसित हो पाता। जनतंत्र से संवाद के क्रम में इन समूहों के कुछ नेता विकसित तो होते हैं, लेकिन वे कुछ समय बाद स्वार्थों की अपनी राजनीति करने लगते हैं।
इसका सबसे अच्छा उदाहरण है बिहार, जहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महादलित कोटि विकसित की, और उन तक कुछ योजनाएं भी पहुंचाईं, लेकिन उनमें आधार-तल पर बहुल नेतृत्व नहीं विकसित कर पाए। ऐसे में, जीतन राम मांझी जैसे लोग नेतृत्व के बहुत सीमित विकल्प बनकर उभरे। इन सामाजिक समूहों में राजनीतिक चेतना विकसित कर उनमें गुणात्मक विकास करना शायद आसान भी नहीं था। और इसके लिए पांच-दस साल का वक्त बहुत कम है।
लेकिन कुछ भी हो, बिहार चुनाव में इस बार जीतन राम मांझी की भूमिका को उत्सुकता से देखा जा रहा है। जीतन राम मांझी को, जिन्हें नीतीश कुमार ने महादलित की अपनी राजनीति को सशक्त करने के लिए अपना उत्तराधिकारी बनाया था, भाजपा से उनकी बढ़ती नजदीकियों और अन्य कारणों से उन्हें हटा भी दिया। माना जा रहा है कि उन्हीं जीतन राम मांझी की भूमिका इस चुनाव में काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। राजनीतिक विश्लेषक इसे ‘मांझी फैक्टर’ का नाम दे रहे हैं। जीतन राम मांझी ने जद(यू) से अलग होने के बाद हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) का गठन किया है, जिसमें जदयू से अलग हुए 18 विधायक थे, जिनमें से पांच भाजपा में शामिल हो गए थे। अब उनके पास 13 विधायक हैं। एनडीए ने उन्हें 20 सीटें दी हैं, जिसके लिए वह एनडीए पर दबाव डालने में सफल रहे हैं। इसे उनकी जीत और एनडीए में उनके बढ़ते प्रभाव को रोकने में राम विलास पासवान की असफलता के तौर पर पेश किया जा रहा है।
मांझी के प्रभाव का मूल्यांकन करते हुए उन्हें सबसे पहले मुसहर जाति का नेता माना जाता है। यह सत्य है कि मांझी मुसहर जाति के सबसे प्रभावी नेता हैं। पूर्व मुख्यमंत्री होने से उनका कद बढ़ा है। उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने के कारण मुसहरों में उनके प्रति सहानुभूति भी बढ़ी है। मुसहर बिहार के महादलित वर्ग की सबसे बड़ी जाति है, जिसमें पहले कुल 18 जातियां थीं, अब 21 हो गई हैं। बिहार की कुल आबादी में से 16 प्रतिशत के आस-पास दलित हैं, जिनमें महादलित 10 प्रतिशत हैं, दलित छह प्रतिशत हैं। इनमें से मुसहर अति गरीब, अशिक्षित और सबसे ज्यादा पिछड़ी जाति है। उनमें शिक्षा का प्रतिशत 0.9 प्रतिशत है, लेकिन बिहार में चल रही सामाजिक न्याय की राजनीति के कारण पिछले तीन दशकों में उनका राजनीतिकरण हुआ है। उनकी राजनीतिक आकांक्षा जगी है। जातीय अस्मिता जगी है। मध्य बिहार में नक्सली आंदोलनों में भी उनकी सक्रियता ने उन्हें राजनीतिक रूप से सबल बनाया है। ऐसे में, मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने की घटना ने उनके जातीय सम्मान को कहीं-न-कहीं आहत किया है। इसके बाद से मुसहर जाति में मांझी के प्रति सहानुभूति है, जो आगामी चुनाव में वोटों के रूप में भाजपा को लाभ पहुंचा सकती है। हालांकि, राजद और जद(यू) में भी मुसहर जाति के कई नेता हैं, पर मांझी का कद इनसे काफी बड़ा हो गया है। मध्य बिहार, उत्तर बिहार के कई भागों में, जहां मुसहर जाति के लोग काफी संख्या में हैं, वहां वे भाजपा के उम्मीदवार को विजय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इन्हें छोड़ दें, तो मुसहर जाति अनेक विधानसभा क्षेत्रों में एक छोटी जाति के रूप में मौजूद है। अत: उनका प्रभाव सिर्फ उन्हीं विधानसभा क्षेत्रों में ज्यादा दिखेगा, जहां उनकी संख्या अच्छी-खासी है।
मांझी फैक्टर का एक अर्थ यह भी है कि भाजपा उन्हें महादलित चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट कर रही है। ऐसे में, उनके होने से न केवल मुसहर, बल्कि अन्य महादलित जातियों के मतों पर भी प्रभाव पड़ेगा। अभी यह कहा नहीं जा सकता कि वे भाजपा के लिए कितने बड़े महादलित मैग्नेट बनकर उभर सकते हैं? दावा यह है कि 10 प्रतिशत महादलित मतों का एक बड़ा भाग वह भाजपा को दिला सकते हैं। लेकिन नीतीश कुमार का स्वयं भी महादलित मतों पर प्रभाव है। वह उन्हें उनके लिए किए गए कामों की याद दिला महादलित मतों को अपनी ओर खींचेंगे। देखना यह है कि 10 प्रतिशत महादलित मतों में ज्यादा कौन अपनी ओर खींच पाता है। महादलित मतों में मुसहर एक प्रभावी जाति के रूप में उभर रही है। ऐसे में, अन्य महादलित जातियों में उनके प्रति ईर्ष्या का भाव भी जगा है। मुसहर बनाम अन्य की आशंका छिपे रूप से बन सकती है, जो महादलित मतों को दो भागों में बांट सकती है।
मांझी फैक्टर का तीसरा प्रभाव यह हो सकता है कि उनके साथ के जो 13 विधायक विभिन्न जातियों के हैं, वे अपनी-अपनी जातियों के मत कम-से-कम अपने चुनाव क्षेत्र और आसपास के क्षेत्र में एनडीए गठबंधन को दिला सकते हैं। ऐसे में, उनके लिए मांझी आगामी विधानसभा चुनाव में लाभ का सौदा साबित हो सकते हैं।
नीतीश कुमार और लालू यादव आगामी चुनाव में मांझी प्रभाव को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए नीतीश कुमार अपनी सभाओं में महादलितों के लिए किए अपने कामों की याद दिला रहे हैं। इसके अलावा, इस जाति के अन्य नेताओं को सघन प्रचार के लिए लामबंद किया जा रहा है। उधर लालू यादव के राजद के भी अनेक महादलित नेता भी मैदान में उतर चुके हैं। देखना यह है कि महादलित मतों की लड़ाई में कौन विजयी होता है? फिर यह भी देखना है कि महादलित मतदाता क्या वोटों की लड़ाई में तब्दील होकर रह जाते हैं? वे इस बार भी मात्र चुनाव जीतने-हराने में ही भूमिका निभाते हैं, या फिर जनतंत्र की इस प्रक्रिया में अपना बहुल नेतृत्व विकसित कर पाते हैं। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि वे अपने लिए कितना और कैसा राजनीतिक स्पेस भारतीय जनतंत्र में तैयार कर पाते हैं

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