Wednesday, March 27, 2013

उप्र में लोकसभा चुनाव के लिये सजती बिसातें


 
 
   
लोकसभा चुनाव में बाजी मारने के लिये सभी दलों के आका आक्रामक नजर आ रहे हैं। विरोधियों को पटखनी देने के लिए उनकी कमजोर नब्ज पर चोट की जा रही है इसके लिए नेताओं के ड्रांइग रूम में रणनीतियां बनाई और बिगाड़ी जा रही हैं तो वोटरों को अपने जाल में फंसाने के लिए नेताओं द्वारा विवादास्पद मुद्दों को हवा भी दी जा रही है। इस खेल में सपा−बसपा, कांग्रेस−भाजपा कोई भी पीछे नहीं है। दूसरों की पगड़ी उछाल कर उन्हें कमजोर तो अपने को मजबूत बताने के लिए सभी नेता एड़ी−चोटी का जोर लग रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं। लोकसभा चुनाव में अभी भी एक वर्ष से अधिक का समय बचा है, लेकिन प्रदेश की राजनीति जिस तरह से परवान चढ़ रही है उससे तो यही लगता है कि जैसे चुनाव का समय नजदीक आ गया हो। आधा दर्जन से अधिक राजनैतिक पार्टियां पूरी गंभीरता के साथ अधिक से अधिक सीटों पर कब्जा करने के लिए बिसात बिछा रही हैं। वर्तमान स्थिति की बात की जाये तो इस समय राज्य की 80 लोकसभा सीटों पर पांच राजनैतिक दलों के विभिन्न नेता कब्जा जमाये हुए हैं जिसमें समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के 22−22, बसपा के 21, भाजपा के 10 और राष्ट्रीय लोकदल के 05 सांसद हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भले ही पांच दलों का वर्चस्व रहा हो लेकिन चुनावी संग्राम में करीब दो दर्जन राजनैतिक दलों ने अपनी किस्मत आजमाई थी, यह और बात थी कि उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। इसका यह मतलब नहीं है कि इन दलों के हौसले पस्त पड़ गये हैं अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव के लिये भी छोटे−छोटे दलों के कई नेता अभी से जोड़−तोड़ में लग गये हैं। पीस पार्टी, अपना दल, जस्टिस पार्टी, जनता दल यू, राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस जैसे तमाम राजनैतिक दलों के नेता किसी भी तरह से उत्तर प्रदेश में अपना आधार तैयार करने में लगे हुए हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव में किसके खाते में कितनी सीटें जायेंगी, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, लेकिन प्रदेश के चार बड़ी राजनैतिक पार्टियों में शामिल कांग्रेस, भाजपा, सपा और बसपा की बात की जाये तो 2014 में इन दलों के प्रत्याशी करीब−करीब सभी सीटों पर ताल ठोंकते नजर आयेंगे तो राष्ट्रीय लोकदल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी ताकत आजमायेगी। सभी राजनैतिक दलों को अपनी जमीनी हकीकत का अहसास है, लेकिन दावों की बात की जाये तो कोई भी राजनैतिक दल 55−60 से कम सीटें जीतने की बात नहीं कर रहा है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव तो इससे भी दो कदम आगे निकल गये हैं। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि विधान सभा चुनाव में बहुमत की सरकार बनने से लोगों में उम्मीद जगी है कि लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब होगी। इस बार उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों से भी जीत मिलेगी। उन्होंने कहा कि लोकसभा के चुनाव कभी भी हो सकते हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश में कार्यकर्ताओं को सभी 80 लोकसभा सीटों पर जीत का लक्ष्य देते हुए कहा कि पार्टी के समक्ष एक बड़ी चुनौती है। यूपी हमारे हाथ में है। किसी दल को दिल्ली में बहुमत मिलने वाला नहीं है। अब परिवर्तन समाजवादी पार्टी ही ला सकती है। यादव ने लखनऊ में जब यह बात कार्यकर्ताओं के सामने कही तो उस समय उनके साथ समाजवादी पार्टी के कई बड़े नेता भी मौजूद थे, लेकिन कोई भी समाजवादी नेता जमीनी हकीकत समझने को तैयार ही नहीं था। अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार जनता की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है। युवा सीएम का प्रदेश को स्वच्छ छवि वाली सरकार देने का दावा खोखला साबित हो चुका है। फिर भी समाजवादी पार्टी बढ़त की उम्मीद लगाये बैठी है तो यह उसका भोलापन ही कहा जायेगा।
आश्चर्यजनक बात यह है कि देश की गद्दी पर काबिज होने का संकल्प लेकर आगे बढ़ रहे मुलायम सिंह कोई स्पष्ट नीति बनाकर आगे बढ़ने की कोशिश करने के बजाये हवा में बातें ज्यादा कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव के बाद से आज तक समाजवादी पार्टी के मुखिया ने कुछ ऐसा नहीं किया जिससे विपक्षियों को सपा की ताकत का अहसास हो सके। सरकार की क्लास लेना उनकी दिनचर्या बन गई है। पार्टी के प्रदेश कार्यालय में ही उनका ज्यादा समय गुजरता है। समाजवादी पार्टी के केन्द्रीय कार्यालय दिल्ली में यदाकदा ही वह दिखाई देते हैं। वहीं बैठे−बैठे वह किसी को किसी को पुचकारते हैं तो किसी को डांटते−फटकारते हैं। अखिलेश सरकार की खामियों पर वह प्रदेश सपा कार्यालय में ही बैठ कर नजर रखते हैं तो देश की दुर्दशा के लिये कांग्रेस को कुसूरवार मानते हैं। कार्यकर्ता उनकी बातों पर ताली बजाते हैं।
बहरहाल, प्रदेश की सभी 80 सीटों पर जीत का दावा करके मुलायम ने अपनी काफी किरकिरी करा ली है। आज तक उत्तर प्रदेश के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ कि जब सभी सीटों पर किसी एक दल का कब्जा हो गया हो। यह बात मुलायम को न जाने क्यों समझ में नहीं आ रही है। उनकी बातों में विरोधाभास अधिक नजर आता है। एक तरफ तो वह अखिलेश सरकार की असफलता के लिये उसकी लगातार खिंचाई करते हैं तो दूसरी तरफ उम्मीद लगाये बैठे हैं कि मतदाता प्रदेश की समाजवादी सरकार के कामकाज से खुश होकर लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के लिये वोट करेंगे। सरकार ही नहीं संगठनात्मक रूप से भी समाजवादी पार्टी जनता की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है। उसके नेता जनसेवा करने की बजाये लूट−खसूट और कानून व्यवस्था से खिलवाड़ करने में लगे हैं। दागियों ने समाजवादी पार्टी को अपना अड्डा बना रखा है। सपा प्रमुख को ब्यूरोक्रेसी की खामियां तो नजर आती हैं लेकिन अपनी सरकार की छवि ठीक करने की उन्हें चिंता नहीं रहती। अगर मुलायम सिंह सरकार की छवि के प्रति सच में गंभीर होते तो आपराधिक प्रवृति के कई नेताओं के पास लाल बत्ती नहीं होती। राजनैतिक पंडित तो यहां तक कहते हैं कि मुलायम सिंह यादव की बातों में राजनीति का पुट ज्यादा रहता है। इसीलिये अखिलेश सरकार के मंत्री बेलगाम होते जा रहे हैं। उन्हें पता है कि वोट बैंक की राजनीति मुलायम के सिर चढ़कर बोलती है और जिस नेता के पास वोट बैंक है, उससे नेताजी कुछ नहीं कहते।
बात सपा प्रमुख के दावों और राजनैतिक पंडितों के अनुमान की कि जाये तो वह सपा को 20 से अधिक सीटें देने को तैयार नहीं हैं। इसके पीछे वह कारण बताते हैं। उनका कहना है कि समाजवादी पार्टी ने विधानसभा का चुनाव अखिलेश को आगे करके लड़ा था। अखिलेश युवा थे, उनकी बातों को लोगों ने गंभीरता से लिया, लेकिन सत्ता हाथ में आते ही अखिलेश की असलियत सबके सामने आ गई। वह भी अपराधियों को संरक्षण देने में पीछे नहीं हैं। उनके मंत्रिमंडल में कई दागी हैं। ऐसे में अबकी बार उनका जादू शायद ही मतदाताओं के सिर चढ़ कर बोले।
बसपा भी विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद बेचैन लग रही है। वह लोकसभा चुनाव में सपा से हिसाब बराबर कर देना चाहती है। बसपा ने तमाम सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित कर दिये हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा के खाते में 21 सीटें आईं थीं। उस समय बसपा की ठीक वैसी ही स्थिति थी जैसी आज समाजवादी पार्टी की है। तब बसपा को सत्ता में आये करीब दो वर्ष हुए थे। जनता की नाराजगी उनसे बढ़ने लगी थी, फिर भी 21 सीटें उनके खाते में आ ही गईं। अबकी बार यह आंकड़ा थोड़ा सुधर सकता है। उनकी सीटें 23 तक पहुंच जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बसपा को इसलिये बढ़त की उम्मीद लग रही है क्योंकि अब जनता को लगने लगा है कि बसपा राज वर्तमान राज से फिर सही था। भले ही मायावती पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हों, लेकिन वह समाजवादी सरकार के आका की तरफ नौकरशाही के सामने लाचार नहीं रहती थीं। ब्यूरोक्रेट्स उनके ईशारों पर काम करते थे। इसका फायदा जनता को भी मिलता था। सड़कें सुधर गईं थीं। माया राज के डेढ़−दो साल को किनारे कर दिया जाये तो बसपा राज में गुंडागर्दी आज के मुकाबले काफी कम दिखती थी। उनके समय में साम्प्रदायिक दंगों की वारदातें काफी कम हुईं। निचोड़ यह है कि वह जो काम चाहती थीं, उसे नौकरशाहों से करा लेती थीं। अब ऐसा नहीं होता। मायावती को जिस वजह से नुकसान हुआ, वह किसी से छिपी नहीं है। बसपा सुप्रीमो सत्ता हासिल करने के बाद जातिवाद की राजनीति से काफी हद तक दूर चली गई थीं, जबकि सपा राज में इसका उलटा हो रहा है। प्रदेश की जनता का भला करने की बजाये सपा सरकार जनता को अलग−अलग बांट कर देखती और सुविधाएं बांटती है। जिस कारण समाज का एक बड़ा तबका उनसे नाराज चल रहा है। मायावती इसका फायदा उठा सकती हैं।
बात कांग्रेस की कि जाये तो 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को लम्बे समय के बाद ठीकठाक जीत हासिल हुई थी। उसके 22 सांसद जीत कर आये थे। इससे पूर्व वह 1989 में उसके सांसदों की संख्या दो अंकों में पहुंच पाई थी। तब उसके 15 सांसद जीते थे। इसके बाद कांग्रेस प्रदेश में कभी दो अंकों में नहीं पहुंच पाई थी। 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भले ही सपा के युवराज अखिलेश यादव पिछड़ गये थे, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को जो भी जीत हासिल हुई थी उसका श्रेय राहुल गांधी को दिया गया था। अबकी राहुल भावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में सामने हैं। उनके कंधों पर पूरे देश की जिम्मेदारी होगी। वह शायद यूपी को इतना समय न दे पायें। वैसे यूपी में वह अपना ग्लैमर भी खोते जा रहे हैं। प्रदेश में कांग्रेस के पास कार्यकर्ताओं की कोई टीम नहीं है। संगठन भी कमजोर ही है। सोनिया गांधी में भी अब पहले जैसी तेजी नहीं दिखती है। उस पर केन्द्र सरकार की दिन पर दिन गिरती छवि कांग्रेस के लिये मुश्किल बनी हुई है। अबकी नहीं लगता है कि कांग्रेस 22 का आंकड़ा छू पायेगी। उसकी सीटों में गिरावट होना तय है। कांग्रेस 15 से 18 तक सीटें भी हासिल कर ले तो यह उसका सौभाग्य होगा।
भाजपा की तो बात ही निराली है। वहां कार्यकर्ता कम नेता ज्यादा पैदा होते हैं। फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि भाजपा के गिरने का ग्राफ 2014 में थम जायेगा। उसे सत्ता विरोधी लहर का फायदा मिल सकता है। राजनाथ सिंह जो उत्तर प्रदेश से ही आते हैं उनके भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से प्रदेश के कार्यकर्ताओं में जोश जागा है। कल्याण की वापसी, उमा भारती का उत्तर प्रदेश में बढ़ता आधार, समाजवादी पार्टी की तुष्टिकरण की नीति और कांग्रेस की खराब छवि आदि ऐसी बातें हैं जो भाजपा के लिये प्लस प्वांइट हैं। वह इसे कितना भुना पाती है, यह उस पर निर्भर करता है। उम्मीद पर दुनिया कायम है और भाजपा भी अब उत्तर प्रदेश से कम से कम 25 सीटें तो जीतना चाहेगी ही तभी उसकी केन्द्र में दावेदारी मजबूत होगी। बदले माहौल में राजनीति पंडित भी भाजपा को फायदा मिलने की बात से इंकार नहीं करते हैं और उसे बीस सीटें देने को तो तैयार हैं।
बाकी बची बात राष्ट्रीय लोकदल की तो उसकी छवि दिन पर दिन खराब होती जा रही है। उसके नेताओं पर सत्ता के करीब रहने की चाहत का असर साफ दिखता है। चौधरी चरण सिंह के नाम पर राजनैतिक रोटियां सेंक रहे अजित सिंह की सीटों की संख्या भी तीन तक सिमट सकती है। वैसे राजनीति में कब किस करवट ऊंट बैठ जाये कोई नहीं जानता। नेताओं की चाहत पर अक्सर जनता की चोट भारी पड़ती है।

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