Wednesday, March 27, 2013

ऐसे भगत सिंह को कोई कैसे बिसरा सकता है!

   
   
आश्चर्य की बात है कि भगत सिंह की याद में कोई सभा या गोष्ठी नहीं आयोजित हुई। जबकि आज भी हर भारतीय उन्हें याद करता है। 82 साल पहले 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी पर लटकाया गया था। उनके गुजरे आठ दशक से ज्यादा हो गए, लेकिन उन्हें खोने का गम कम नहीं हुआ है। अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन ने देश को एकजुट किया था और भगत सिंह को लेकर भावनाएं इतनी मजबूत थीं कि कोई भी व्यक्ति अपने बेटे का नाम हंसराज वोहरा नहीं रखना चाहता था, क्योंकि हंसराज ने ही अपने कॉमरेड से साथ दगाबाजी की थी, और सरकारी गवाह बनने को राजी हुआ था।
हंसराज भगत सिंह का करीबी दोस्त था और गिरफ्तार होते ही उसने भेद खोल दिया था। हालांकि उसका कहना था कि भगत सिंह के साथ फांसी पर लटकाए गए सुखदेव ने पुलिस को सारा कुछ बता दिया था। फिर भी हंसराज ने पुलिस को विस्तार से बताया था कि क्रांतिकारी कहां बम बनाते थे और उन लोगों में से कई लोग देश में कहां हैं।
भगत सिंह के पिता ने ट्रिब्यूनल के समक्ष लिखित अनुरोध पेश कर कहा था कि उनका बेटा बेगुनाह है और पुलिस अधिकारी जॉन साडंर्स की हत्या से उनका कुछ लेना-देना नहीं है। भगत सिंह ने इस बयान के लिए अपने पिता को कभी माफ नहीं किया था, जबकि वे जानते थे कि उनके पिता सच्चे देशभक्त थे, जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था। फांसी को लेकर पिता के पुत्रमोह ने भगत सिंह को अशांत कर दिया था। लेकिन उन्होंने महसूस किया था कि उनके पिता की यंत्रणा भरी आंखों ने खेद जाहिर कर दिया है।
भगत सिंह ने पत्र लिखकर अपने पिता को लताड़ा था। उन्होंने अपने पिता को लिखा था, 'मैं यह समझ नहीं पा रहा कि इस मुकाम पर और इन हालातों में आपने इस तरह का दरखास्त देना कैसे वाजिब समझा।... आप जानते हैं कि मेरा राजनीतिक विचार आपसे हमेशा अलग रहा है। मैं आपकी सहमति-असहमति का परवाह किए बगैर हमेशा स्वतंत्र रूप से काम करता रहा हूं।
हेड जेल वॉर्डन चरत सिंह ने उन्हें संकेत दिया कि मुलाकात के लिए आवंटित समय खत्म हो चुका है। लेकिन भगत सिंह रूके रहे। परिवार के प्यार से वे अभिभूत हो गए थे। वे सोच में डूबे हुए थे। चरत सिंह ने उन्हें जल्दी करने को कहा। रिश्तेदारों ने बारी-बारी से भगत सिंह को गले लगाया। उन्होंने मां का चरण स्पर्श किया। उन्होंने ऐसा श्रद्धा भाव से किया, लेकिन सभी की आंखों में आंसू आ गए थे। उनकी बहन फफक-फफक कर रोने लगी थी। भगत सिंह अशांत हो गए थे। उन लोगों से उनका कहा हुआ अंतिम शब्द था- साथ बने रहो।
इसके बाद उन्होंने हाथ जोड़ा और चले गए। अपने सेल में लौटते वक्त उन्होंने लोहे के सींखचे के पीछे सुखदेव और राजगुरू को असहाय और अकेला खड़ा पाया। चरत सिंह के मना करने के बावजूद वे उन लोगों से बात करने के लिए रूक गए। उन लोगों से उन्होंने कहा, अब किसी भी दिन हो सकती है फांसी। उन लोगों ने सहमति से सिर हिलाया। सेल में लौटने के बाद भगत सिंह ने अपने कुरते को छुआ, जो परिवार वालों की आंसुओं से तर हो गया था। उनका सबसे छोटा भाई कुलतार लगातार रोता रहा था। बड़े भाई से गले मिलकर जब उन्होंने अलविदा कहा तो भाई ने सिसकते हुआ कहा था, 'तुम्हारे बिना जीवन का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।' उनका निष्कपट, दुखभरा चेहरा भगत सिंह को याद आता रहा था। सेल के अंदर ढकेल कर दरवाजा बंद कर दिए जाने पर उन्होंने पेन उठाया और उर्दू में एक खत लिखा। वे सामान्य तौर से व्यक्तिगत खत उर्दू में ही लिखा करते थे।
कुलतार को लिखा खत पूरा हो गया था। उन्हें भरोसा था कि उनके शब्दों से उनके भाई को शांति मिलेगी। लेकिन उन पर भरोसा करने वाले हजारों लोगों का क्या होगा? भाई को खत लिखने के बाद भगत सिंह अपने नोटबुक के पास पहुंचे। इस नोटबुक में ना तो उनकी व्यक्तिगत बातें थीं और ना ही इसमें उनकी प्रतिक्रियाएं दर्ज थीं। उन्होंने जिन किताबों को पढ़ा था, उसकी कुछ पसंदीदा पंक्तियां इसमें लिखी हुई थीं। इनमें अधिकांशतः अरस्तू, प्लेटो, हॉब्स, लॉक, ट्राटस्की, बर्नाड रसल, कार्ल मार्क्स और एजेंल्स की लाइनें अंग्रेजी में लिखी हुई थीं।
भारतीय लेखकों में उन्होंने रवींद्र नाथ ठाकुर और लाजपत राय को पढ़ा था। भगत सिंह को कविताएं भी काफी पसंद थीं। वे वर्डसवर्थ, ब्रॉयन और उमर खैय्याम की कविताओं का पाठ कर सकते थे। लेकिन गालिब उनके पसंदीदा कवि थे और नोटबुक में उन्हें बार-बार उद्धृत किया गया था। परिवार वालों से हुई मुलाकात ने उन्हें भावनात्मक रूप से तोड़ दिया था, लेकिन भगत सिंह इससे उबर कर अपनी किताबों में खो गए थे।
उन्हें फांसी पर लटकाए जाने की खबर ज्यों ही फैली, पूरा देश शोक में डूब गया। पूरे देश में जुलूस निकले। हजारों लोगों ने खाना नहीं खाया। लोगों ने शोक जताने के लिए काली पट्टी बांध कर अपना-अपना कारोबार बंद रखा। अंग्रेज घरों में बंद रहे। भारतीय राजनीतिक नेताओं में जवाहर लाल नेहरू ने सबसे पहले श्रद्धांजलि अर्पित की।
नेहरू ने कहा कि भगत सिंह बहादुर योद्धा था जिन्होंने शत्रुओं का सामना खुले मैदान में किया। वे देशप्रेम से ओत-प्रोत नौजवान थे। वे चिंगारी की तरह थे, जिसकी लपट बहुत कम समय में देश के एक भाग से दूसरे भाग तक फैली और चारों ओर के अंधकार को मिटाया। महात्मा गांधी ने मुक्तभाव से शहीद नायक के साहस की प्रशंसा की। उन्होंने कहा, 'भगत सिंह और उनके साथियों की मौत हजारों लोगों के लिए निजी क्षति है। मैं इन नौजवानों को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।..'
लेकिन कई लोगों को यह बात पच नहीं पा रही थी, जो गांधी जी से इस बात को लेकर खफा थे कि उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए कुछ नहीं किया। लोगों के गुस्से का सामना कर रहे कांग्रेस नेताओं ने फांसी से बचाने में अपनी नाकामयाबी को लेकर कई तरह से बयान दिए। लेकिन कोई बयान लोगों के गुस्से को शांत नहीं कर सका।
पिछले तीन साल से हम भारतीय और पाकिस्तानी उस चौराहे पर भगत सिंह की जयंती मनाते हैं, जिस चौराहे पर उन्हें फांसी दी गई थी। हम मोबत्तियां जलाते हैं और उनके फोटो पर फूल-माला चढ़ाते हैं। हमें याद है असफाकउल्ला की फांसी, जो गले में कुरान लटका कर निम्न पंक्तियों को गाते हुए सूली पर चढ़ा था। ये पंक्तियां देशभक्ति की भावनाओं का इजहार करती हैं, न कि धार्मिक भावनाओं कीः
कुछ आरजू नहीं है, आरजू तो यह
रख दे कोई जरासी खाके वतन कफन में

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