Saturday, February 28, 2015

हर ओर शोर है, स्वाइन फ्लू

 अजीब सी दहशत है हर चेहरे में, फिज़ाओं में घुली हवा एक सिहरन पैदा कर रही है। कौन जाने किस सांस के साथ H1N1 वाइरस हमारे फेफड़े में पैवस्त हो जाये। हर ओर शोर है, स्वाइन फ्लू से भयाक्रांत चेहरे हैं। नकाबों से ढकी करुण आंखे हैं। आखिर ये कौन सा वाइरस है? अपने देश का है या दवाई कंपनियों का बताया हुआ वाइरस है? जिसके लिए हज़ार रुपये का टैमीफ्लू इंजेक्शन और सात हज़ार की जाँचें करवानी हैं। डाक्टरों से लेकर लैबोरेटरी केमिस्टों के खिले चेहरे और मेडिकल रेप्रेजेंटटिवों से लेकर दवा कंपनी मालिकों के चेहरों पर गहरी मुस्कान या फिर मीडिया के स्तंभित पत्रकारों के अतिउत्साहित वार्तालाप किस संवेदनहीनता का परिचय दे रहे हैं। सवा अरब की आबादी वाले भारत को महामारी का डर दिखा कर व्यापार साधने वाले विदेशी तत्व शायद ही समझ पाएँ की भारत के इतिहास में कभी कोई महामारी क्यों नहीं पनप पायीं?? टी॰बी॰, प्लेग, मलेरिया, कालरा, चेचक, एड्स, पोलियो आदि भयावह महामारियों का इतिहास स्पष्ट लिखता है कि इनके कारण कई सभ्यताओं ने अपना अस्तित्व खो दिया लेकिन भारत के पारंपरिक विज्ञान के सामने ऐसी असंख्य महामारियों ने आकर स्वयं दम तोड़ दिया। भारत के पारंपरिक चिकित्सा विज्ञान ने कभी भी जीवाणुओं तथा विषाणुओं को अपना दुश्मन समझा ही नहीं। प्रकृति से ली गईं जड़ी बूटियों, मसालों, पत्तों, छालों, जड़ों ने हमें इन विषाणुओं के मध्य रहकर हमारी प्रतिरोधक क्षमताओं को एकल दिशा में जागृत करके प्राकृतिक वातावरण में सबसे सौम्य जलवायु के अनुकूल बनाया। ऐसी अनूठी चिकित्सा व्यवस्था विश्व की किसी भी सभ्यता के इतिहास में कहीं नहीं मिली। दादी के बनाए हुये अदरख और शहद के मिश्रण ने दमा पैदा करने वाले कफ को बाहर निकाला, नानी के तुलसी के पत्ते ने वाइरस जनित रोगों से हमारी रक्षा की तो माँ के हाथों की स्पर्श चिकित्सा से हड्डियों को मजबूती मिली जिन्होने सौ साल की उम्र पूरी करने की ताकत पायी……….कितना अनूठा विज्ञान है इस अदम्य और चिरकालिक सभ्यता के पास जिसको ये चंद मूर्ख पाश्चात्य दवा वैज्ञानिक हेय दृष्टि से देखते हैं, उपहास करते हैं…. कल हेपटाइटिस था, फिर बर्ड फ्लू आया, अब स्वाइन फ्लू आ गया है, आने वाले कल में डेंगू और मलेरिया की नयी नयी किस्में इस नए चिकित्सा विज्ञान को चुनौती देने के लिए कमर कस रही हैं। साल दर साल वाइरस, बैक्टेरिया, प्रोटोज़ोआ, फंगस आदि नए नए डी॰एन॰ए॰ संरचना के साथ अपने अस्तित्व को जीवित रखने की भयंकर कोशिश कर रहे हैं…… कभी सोचा है – क्या होगा इसका अंजाम??????   अनाज को खाने वाले चूहों की संख्या जब बढ़ जाती है तो बिल्ली पालते हैं, बिल्लियों की संख्या बढ्ने पर कुत्ता लाते हैं लेकिन कुत्तों की संख्या अधिक होने पर रेबीज के डर से फिर उन्हे मारना पड़ता है। ऐसे ही सृष्टि में एक एक जीवन और मृत्यु को नियंत्रित करने वाली कड़ी सदैव गतिमान रहती है जिसमे अस्तित्व के संघर्ष और जीवन की परिभाषा छिपी होती है। यह नया चिकित्सा विज्ञान नहीं समझ पा रहा। एक साधारण से फोड़े को सेप्ट्रान की गोली के जरिये दबा कर कैंसर बनाने वाला विज्ञान भला कब तक उस सभ्यता को जीवित रख पाएगा, जिसके पूर्वज उस फोड़े की गांठ को आक के पत्तों से निकाला करते थे……….   स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू और इंफ्लुएंज़ा के विविध प्रकार भारतीयों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते यदि हम अपनी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का अनुसरण करें तो। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि किसी प्रकार के रोग को उत्पन्न करने के लिए तीन कारक – वात, पित्त और कफ होते हैं। जब इनके मध्य ऋतु परिवर्तन के कारण असंतुलन होता है तो शरीर व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है। चूंकि एक विशाल जनसंख्या और उसके द्वारा उत्सर्जित प्रदूषण अपनी विशालतम स्थिति तक पहुँच चुका है तो इनसे ग्रस्त जीवों की संख्या भी अधिक प्रतीत होती है. लेकिन भारत का जैव मण्डल कभी भी इसके वातावरण को जीवन विरोधी नहीं होने देता और जीवन अनुकूलन व्यवस्था को सदैव अक्षुण्ण रखता है। भारतीय चिकित्सा वैज्ञानिक साफ साफ लिख गए हैं कि मौसमी बुखार के आगमन का उल्लास मानना चाहिए क्योंकि यह शरीर को आने वाले मौसम के आघात के प्रति प्रतिरोधक क्षमता दे रहा है. इसी प्रकार जुकाम, पेचीस, उल्टी, फोड़े-फुंसियों के छोटे संसकरणों का चिकित्सा विज्ञान में अति महत्वपूर्ण स्थान था। नयी चिकित्सा प्रणाली, बीमार घोड़ों और बंदरों के शरीर में एंटीबाडीज़ बना कर मानव शरीर में प्रविष्ट कराती है रोग निदान के लिए। लेकिन शरीर किसी भी बाहरी तत्व को अपने भीतर अनिच्छा से ही प्रवेश करने देता है। जबकि इन एंटीबाडीज़ को शरीर खुद ही तैयार कर रहा होता है जो हमारी अस्थियों के संधि स्थल में गांठों के रूप मे प्रकट होते हैं। अब इन भीतरी और बाह्य एंटीबाडीज़ के मध्य भी शरीर के भीतर लड़ाई होती है शरीर इनको धकेलना चाहता है लेकिन निरंतर दवा की खुराक को शरीर में प्रवेश करा कर हम इसकी प्रतिरोधक क्षमता को खत्म कर देते हैं जिसका दीर्घकालिक परिणाम स्वयं के लिए घातक साबित होता है। भारतीय ग्रंथो में सबसे प्रमुखता आंवले को दी गयी है, शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करने के लिए. किसी भी प्रकार से आंवले को शरीर में समाहित करने से pH संतुलित रहता है और रसायनों के अनुपात को जरूरत के मुताबिक नियंत्रित करता है।   गूढ विज्ञान निरंतर कर्म कर रहा है स्वयं मानव के भीतर जो अपनी हर क्रिया में जीवन अनुकूलन का सिद्धान्त समेटे है। कभी ध्यान से देखना जब किसी मनुष्य को चोट लगती है या बीमार पड़ता है तब वह गोल अर्थात सिकुड़ कर लेट जाता है, गहरी व लंबी साँसे लेने लगता है। इससे आशय ये है कि किसी भी हालत में शरीर सबसे पहले हृदय की रक्षा करना चाहता है यानि प्राण की। यदि यह प्राण ऊर्जा सुरक्षित रही तो, जैसा की शरीर को मुड़कर लेटने का आदेश देकर मस्तिष्क अब और भी बचाव के उपायों को करने के लिए इंद्रियों को तत्पर कर सकता है।   बहुत गहनता है शरीर के भीतर, जिसको सिर्फ भारतीय चिंतन ही पहचान पाया है। भारतीय संस्कृति के असंख्य शताब्दियों के सतत शोधों के कारण आज विश्व में मौजूद सभी चिकित्सा पद्धतियों का जनक है। चीन की एक्यूप्रेशर का प्राचीनता का भारत की स्पर्श या मालिश की चिकित्सा में है; विप्श्यना के वैभव का अंदाजा बताने को पक्षाघात को ठीक करने में उँगलियों के पोरों से निकलने वाली ऊर्जा, ग्रन्थों में अपना स्थान लिए है; होमियोपैथी की शुरुआत धन्वन्तरी के सत्व शोधन के साथ प्राण ऊर्जा के संतुलन में स्थित है, शल्य चिकित्सा से लेकर मानसिक व्याधियों को दूर करने के तांत्रिक अनुष्ठानों तक से भारतीय पारंपरिक चिकित्सा विज्ञान की विशाल क्षमता का प्रदर्शन होता है।   साँप का जहर उतारने के लिए प्रेमचन्द्र की कहानी में पात्र पर घंटों ठंडे पानी के घड़े उड़ेले जाते हैं और उसे सोने नहीं दिया जाता। बड़ा सरल वैज्ञानिक सिद्धान्त है की अवचेतन अवस्था में शरीर की अन्य क्रियाओं के सुप्तावस्था में जाते ही जहर शरीर के अन्य हिस्सों में जाने की बजाय मस्तिष्क में इकट्ठा होकर पूरी तरह गिरफ्त में ले लेगा। मस्तिष्क की क्रियाओं को नियंत्रित करने वाली प्रणाली में पक्षाघात होने से एक बार सोया मानव फिर जाग नहीं पाएगा। न केवल साँप वरन किसी भी प्रकार के जहर को निष्क्रिय करने की हमारे पूर्वजों की अचूक तकनीकी मूर्ख तात्रिकों के फैलाये अंधविश्वास की भेंट चढ़ गयी।   गाँव की बूढ़ी औरतों के द्वारा धुले पोंछे चौके में नहाने के पश्चात ही जाने का कट्टर प्रण भारत की अव्वल दर्जे की हाईजीन चिंता तथा व्याधिमुक्त जीवन के प्रति संवेदनशीलता का प्रमाण है। आयुर्वेद के मूल सिद्धान्त कि जैसा भोजन शरीर में पहुंचता है उसी के फलस्वरूप वैसा बर्ताव शरीर करने लगता है। इसलिए पारंपरिक चिकित्सा विज्ञान में पथ्य व अपथ्य भोजन का उल्लेख किसी भी बीमारी के निदान से पहले मिलता है। सामुद्रिक शास्त्र में वर्णित शरीर की स्थितियों की जानकारी, माथे के वलय, हथेलियों, पैरों, आँखों, धमनियों के परीक्षण के आधार पर व्यक्ति की मूल व्याधि का इलाज, इस सबसे प्राचीन सभ्यता का अदृश्य आधार थी। विडम्बना ही है कि X-Ray, CT स्कैन, MRI, अल्ट्रासाउंड, रक्त-मल-मूत्र की जाचें न किए जाने के बावजूद चिकित्सा के अतुलनीय कीर्तिमान स्थापित हुये। ऋतु परिवर्तन, वातावरण के अलावा जीव और निर्जीव पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है यही वजह है कि शीत रक्त समूह वाले जीव एक लंबी नींद के बाद जागने लगते हैं, दीर्घकालिक वृक्षों के पत्ते पीले पड़ कर झड़ने लगते हैं। आने वाली गर्मी का सामना करने के लिए हरे – चमकदार नए पत्तों का स्वागत करते हैं। जबकि छोटे अल्पायु पौधे इस दौरान अपने यौवन की चरमता पर पहुँच रहे होते हैं। फरवरी-मार्च के दौरान दीर्घायु जीवों की स्थिति असहज होती है, इस काल में शरीर रोग प्रतिरोधकों की क्षमताओं का परीक्षण करता है और जहां भी ये कमी देखता है उसकी भरपाई के लिए बाह्य चिन्ह प्रकट करता है। दो मुख्य ऋतुओं गर्मी व सर्दी के मध्य का समय अल्पायु छोटे जीवाणुओं व पौधों का जीवन काल होता है जबकि दीर्घायु जीवों के लिए कष्टकर समय।   अभी फ्लू वाइरस के विविध संस्करणों का प्रभाव देख रहे हैं, इसके बाद 25° से 40° सें॰ का तापमान परजीवों अर्थात पैरासाइटों, प्रोटोज़ोआ के लिए मुफीद हो जाएगा जिससे फेल्सिपेरम मलेरिया, डेंगू, मेनिंजाइटिस, परागज ज्वर आदि का काल होगा। इससे अधिक तापमान आने पर शरीर से लवणों की कमी, डिहाइड्रेशन, जीवाणु जनित व्याधि, फूड प्वायजनिंग, हैजा आदि की प्रचुरता होगी। गर्मी में वाष्पीकरण के फलस्वरूप होने वाली वर्षा ऋतु कवकों और मध्य सूक्ष्म जीवों को जीवित कर देगी जिससे पेट संबन्धित रोग टाइफाइड, पीलिया आदि ग्रास करेंगी।   नवीन चिकित्सा इन सभी बीमारियों से लड़कर इनको जन्म देने वाले जीवों को मार कर शरीर को जीवित रखने की कला का प्रदर्शन करती है। उसका एक ही सिद्धान्त है दवाइयों के निर्धारित डोज़ द्वारा विषाणुओं – जीवाणुओं – कवकों को मार दो लेकिन इस पद्धति का परिणाम ये होता है की ये अल्पायु जीव अगले जीवन काल में इन दवाओं की प्रतिरोधक क्षमता विकसित करके सामने आ जाते हैं और उसी बीमारी का नया घातक रूप महामारी के तौर पर प्राण लेने लगता है लेकिन अपनी चिर जीवित सभ्यता के मूल सिद्धान्त की पड़ताल में एक ही सूत्र सामने आता है की हम किसी भी जीव को मारकर जीवित नहीं रह सकते हैं बल्कि उनके साथ सहअस्तित्व लिए खुद को सुरक्षित रखने के सतत आविष्कारों का सहारा लेना होगा। फेफड़ों का कैंसर और अमाशय में अल्सर पैदा करने वाली आल आउट या हिट के धुएं से मलेरिया पैदा करने मच्छरों को मारकर डेंगू मच्छरों को जन्म देने से बेहतर नीम की सूखी पत्तीयों का धुआँ और मच्छरदानी होती थी। नालियों और ठहरे हुये पानी में जब तक हमारे घरों का साबुन, डिटाल और हारपिक नहीं पहुँचा था तब तक मच्छरों को नियंत्रित रखने वाली मछलियाँ हमारा अस्तित्व संभाले रहती थीं।   और इन परिस्थितियों को जन्म देने वाली अंधी जनसंख्या नीति का समर्थन करने वाले सत्तालोलुप धर्मांध नेताओं कभी गौर से नीम के पेड़ के नीचे खड़े होकर देखना. बरसात में निंबौरी से लाखों छोटे छोटे नीम पैदा होते हैं लेकिन अगले साल उस जगह सिर्फ एक या दो ही पेड़ खड़े नज़र आते हैं। कभी सोचा है क्यों? अस्तित्व के संघर्ष में प्रकृति की बेहद जटिल व्यवस्था हैहर जीव के हिस्से में सीमित संसाधन हैं और जो इन संसाधनों को हासिल करने की लड़ाई में जीवित रहता है वही अगली पीढ़ी को जन्म दे पाता हैदवाओं और धन से बढ़ी क्षमता के बल पर हम जीवन प्रत्याशा को बढ़ाने में तो सक्षम हो सकते हैं लेकिन संसाधनों को उत्पन्न नहीं कर सकतेइसके लिए हमें प्रकृति पर ही निर्भर रहना हैयदि आज हम अपने मस्तिष्क और नवीन आविष्कारों के दम पर मानव जीवन बचाने में महारथी हैं तो हमारा ये भी कर्तव्य है की इसको सीमित रखने का उपाय भी हमें ही करना है।

Uploads by drrakeshpunj

Popular Posts

Search This Blog

Popular Posts

followers

style="border:0px;" alt="web tracker"/>