Monday, February 23, 2015

जाल जासूसी का

बजट सत्र के ठीक पहले केेंद्र सरकार के कुछ प्रमुख मंत्रालयों में हो रही जासूसी का खुलासा होना कई गंभीर सवाल खड़े करता है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे राजनेता, महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अधिकारियों, रईस उद्योगपतियोंंऔर कुख्यात बाहुबलियों का अंतर्जाल देश और समाज की घिनौनी, क्रूर हकीकत है। प्रत्यक्ष में इनके हाथ एक-दूसरे से न मिले हों, लेकिन परोक्ष रूप से सबके हाथ किसी न किसी तरह एक-दूसरे की पीठ पर हैं। समय-समय पर इसकी झलक भी जनता को देखने मिल जाती है। जो सरकार चलाता है वह कहता है कि भ्रष्टाचार किसी भी रूप में बर्दाश्त नहींकिया जाएगा। जो विपक्ष में बैठा है वह भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करना अपना परम कर्तव्य मानता है। हालांकि दोनों जानते हैं कि भ्रष्ट तरीकों को अपनाए बिना, भ्रष्ट ताकतों को साथ लिए बिना वे अपना स्वार्थ सिद्ध नहींकर पाएंगे। इसलिए भ्रष्टाचार दूर करने का या उजागर करने का दावा करने वालों पर भरोसा कठिन है। आज जब पेट्रोलियम मंत्रालय के कुछ गोपनीय, महत्वपूर्ण दस्तावेजों की चोरी की घटना सामने आई है और उसमें कुछ लोगों की गिरफ्तारी में पुलिस को सफलता मिली है, तब यह सवाल उठता है कि जो प्यादे बिसात से उठा लिए गए हैं, क्या उनसे ही भ्रष्टाचार को मात दी जा सकती है या वजीर और राजा तक पहुंच कर उन्हें कभी शह दी जा सकेगी? दस्तावेज चोरी होने का मामला उजागर होते ही पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने पूर्ववर्ती यूपीए सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि उसने इसकी खुली छूट दी थी, लेकिन मोदी सरकार इसे लेकर बेहद सख्त है। विगत नौ महीनों से कांग्रेस सत्ता से बाहर है, बहुत से चुनावों में उसे करारी हार मिली है, तब इस तरह का बयान देकर श्री प्रधान क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या इसका कोई संबंध दिल्ली चुनाव में मिली हार, बिहार के आगामी चुनाव, मोदीजी की छवि को दुरुस्त करने से है? अर्थतंत्र से सीधे संबद्ध मंत्रालयों में जासूसी आज का खेल नहींहै, अरसे से उद्योगपतियों को मुनाफा पहुंचाने के लिए ऐसे भ्रष्ट तरीके अपनाए जा रहे हैं। निचले स्तर से लेकर ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों को समय-समय पर कीमती उपहार उद्योग घरानों से पहुंचाए जाते हैं। छुट्टियों के नाम पर विदेशों में ऐश करवाई जाती है। कई बार सरकारी नौकरी से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर बड़े अधिकारी निजी कंपनियों में निर्णायक पदों पर बिठा दिए जाते हैं। जाहिर है उनकी सरकारी नौकरी के पूर्व अनुभव ही नहीं, उनकी अंदरूनी पहुंच व संबंध भी उनके लिए लाभदायक होते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के निकायों में भ्रष्टाचार का रोना रो कर उन्हें निजी हाथों में सौंपने की वकालत भी इसी भ्रष्टाचार से संबंधित है। सार्वजनिक निकाय गठन के साथ ही भ्रष्ट नहींहुए, उन्हें खोखला करने में निजी क्षेत्र का षड्यंत्र है, जो सबको नजर आता है, लेकिन कोई कहना नहींचाहता। जहां तक सरकारों या राजनीतिक दलों की बात है तो यह तथ्य भी किससे छिपा है कि इन्हें बड़े पैमाने पर चंदा औद्योगिक घरानों से मिलता है।
 चुनावों के वक्त इनके साधनों व संसाधनों का खुलकर उपयोग होता है। कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा सबके पीछे औद्योगिक घरानों की पूंजी की ताकत है। इन दिनों वह भाजपा के साथ अधिक दिखती है। चुनावों के वक्त मोदीजी अडाणी लिखे विमान में कितना सफर करते थे, सबको पता है। उन्हें देश के शीर्ष उद्योगपतियों ने प्रधानमंत्री बनाने की कितनी पुरजोर वकालत की थी, यह भी सब जानते हैं। कार्पोरेट पूंजी सामाजिक या देशहित की कितनी भी बातें करे, उसकी पहली प्राथमिकता हर हाल में मुनाफा कमाना होता है, चाहे वह युद्ध के मैदान से ही क्यों न कमाया जाए। ऐसे पूंजीपति अगर अपने लाभ के लिए मंत्रालयों में चोरी करवाते हैं, देशहित से जुड़े दस्तावेजों की प्रतिलिपि हासिल करना चाहते हैं, सरकार की नीतियों को प्रभावित करने के लिए अपने जासूस मंत्रालयों के भीतर पठाए हैं, तो यह आश्चर्य की नहीं, लेकिन चिंता की बात अवश्य है। फिलहाल दिल्ली पुलिस ने एक पूर्व पत्रकार समेत रिलायंस, एस्सार आदि के कुछ लोगों को गिरफ्तार किया है। गिरफ्तार पूर्व पत्रकार शांतनु सैकिया का कहना है कि यह घोटाला 10 हजार करोड़ का है। अगर धुआं है तो आग भी लगी ही होगी। सरकार का दावा है कि वह दूध का दूध और पानी का पानी कर देगी। पर यह नीर-क्षीर इंसाफ तो तभी होगा जब हंसों की जमात में शामिल बगुलों की पहचान होगी।

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