वह दिन जब खबर की दुनिया बदल गई
विकीलीक्स ने कई देशों के रिश्तों को संकट में डाल दिया है लेकिन इसी के साथ ही यह खबरों की दुनिया के लिए एक ऐतिहासिक मोड़ साबित हुआ है। नवंबर 2010 की 28 तारीख को अब उस दिन के तौर पर याद किया जाएगा, जब संचार माध्यमों की दुनिया में सब कुछ बदल गया।
दुनिया भर के सारे परंपरागत अखबार अभी उस पुराने सवाल से ही जूझ रहे थे कि खबर को सबसे पहले अखबार में दिया जाए या फिर इंटरनेट संस्करण में। लेकिन इस बार जवाब मिल गया। सभी अखबारों ने चाहे वह डेर स्पेगल हो, न्यूयॉर्क टाइम्स हो, ले मांडे हो या गार्जियन, इस बार सभी को शुरुआत इंटरनेट संस्करण से करनी पड़ी, और उससे निकली खबरें फिर अखबारों में छाईं। ऐसा लगा जैसे इंटरनेट और अखबार का एक समन्वय हो गया हो। इस पूरी कामयाबी से कई बातें सामने आईं।
पहली बात जो सामने आई, वह तादाद या संख्या से जुड़ी है। विकीलीक्स के जरिये जो फाइलें आईं, दुनिया भर के पाठकों के पास पहुंचीं, उन्हें पढ़ा गया, उन पर चर्चा हुई, विश्लेषण हुए, बहस हुई। उन ढेर सारी फाइलों की संख्या का अपना एक महत्व है। असल में दस्तावजों की यह भारी तादाद ही विकीलीक्स की असली ताकत है। किसी और माध्यम से आप इतने सारे दस्तावेज एक साथ पूरी दुनिया को उपलब्ध नहीं करा सकते।
अखबार और टेलीविजन का स्वरूप ऐसा नहीं है कि वह इसे कर सकें। विकीलीक्स ने जो किया हर तरह से लोकतांत्रिक भी है। एक बार जब ये दस्तावेज ऑनलाइन हुए तो वे पूरी दुनिया के सभी नागरिकों के लिए समान रूप से उपलब्ध थे। कंप्यूटर जैसे सामान्य से उपकरण से कोई भी उन हजारों-लाखों पन्नों को पलट सकता था। इसके पहले तक यह लगभग असंभव था। पहले अगर ये सारे दस्तावेज किसी के हाथ आ भी जाते तो इसका कोई तरीका उपलब्ध नहीं था कि इसे आम लोगों तक पहुंचाया जा सके।
पहली बार इस तरह से दस्तावेजों का इस्तेमाल किसी बहुत बड़ी ताकत की असलियत को उजागर करने के लिए हुआ। यह भी सच है कि ऐसी असलियत दूसरी ताकतों की भी होगी। इनकी गोपनीय बातचीत में भी इतनी ही बुरी बातें हो सकती हैं। और यह भी लगभग तय ही है कि इसके बाद से कई स्तरों पर सूचनाओं के आदान-प्रदान के तरीके भी बदल जाएंगे। लेकिन फिलहाल का सच यही है कि इंटरनेट के जरिये ये सारे दस्तावेज सभी लोगों के पास पहुंच गए।
इस विस्तार ने लोगों तक मीडिया के एक नए स्वरूप को पहुंचा दिया। इसने लोगों को न सिर्फ सच तक एक पहुंच दी, बल्कि कोई भी चाहे तो भंडाफोड़ करा सकता है, किसी छुपाए गए सच को खोजकर पूरी दुनिया के सामने पेश कर सकता है। लोग उस पर बात कर सकते हैं, उस पर संदेह कर सकते हैं, उस पर अपनी धारणा बना सकते हैं। वे अपने मत-सम्मत से ऐसे दस्तावेजों की धार बढ़ा सकते हैं, उन्हें नया महत्व दे सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय और यहां तक कि स्थानीय स्तर पर ऐसी बहुत सारी संभावनाएं पैदा की जा सकती हैं।
संख्या यहां बहुत बड़ी ताकत है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि यहां सिर्फ दस्तावेजों की संख्या ही महत्वपूर्ण है। इसमें गुणवत्ता को लेकर भी काफी काम किया जा सकता है। और इसमें मीडिया के परंपरागत पेशेवरों के लिए भी बड़ी भूमिका निभाने का मौका है। एक तो इतनी बड़ी संख्या में आए दस्तावेजों को सही ढंग से व्यवस्थित करना बड़ा काम है। फिर उन्हें सरल भाषा में पाठकों तक पहुंचाने की भी जरूरत है।
सूचनाओं के समुद्र में कूदना और उसमें से लोगों की जरूरत के मोती ढूंढ़ लाना कोई आसान चुनौती भी नहीं है। हर बार चीजें इतनी सीधी भी नहीं होंगी जितनी कि इस बार हैं। कई बार उनकी विस्तृत व्याख्या की जरूरत पड़ सकती है। कई बार इस ओर इंगित करना भी जरूरी होगा कि गड़बड़ी दरअसल कहां हुई है या हो रही है।
इस लिहाज से 28 नवंबर, 2010 की तारीख कई तरह से ऐतिहासिक है। सबसे पहले तो यह वह दिन है जब खबर सीधे इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों तक पहुंची और उसके बाद दूसरे माध्यमों ने उसे उठाया। दूसरे यह पहला मौका था जब आम लोगों के पास उस तरह के गोपनीय दस्तावेज पहुंचे जिसकी इसके पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। तीसरे इस दिन आम लोगों को मौका मिला कि वे खुद दस्तावेजों को देखें और उनका विश्लेषण करें। चौथे इस दिन ने मीडिया पेशेवरों के लिए भी एक नई चुनौती पेश की।
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