एक वक्त था जब संपादकों को देखा या सुना नहीं, केवल पढ़ा जाता था। इस ‘आइवरी टॉवर’ रवैये की बेहतरीन मिसाल 1960 के दशक के एक शीर्ष संपादक एनजे नानपोरिया थे। एक बार जब वह बाजार में खरीदारी कर रहे थे, उन्होंने पाया कि एक शख्स लगातार उन्हें देखकर मुस्करा रहा है। कौतूहलवश उन्होंने पूछा कि वह कौन है।
उसने कहा, ‘मैं आपका चीफ रिपोर्टर हूं सर!’ मुमकिन है कि यह किंवदंती हो, लेकिन यह बताती है कि किस तरह गुजरे जमाने के संपादक कभी-कभार ही अपने केबिन से बाहर कदम रखते थे। आज के टेलीविजन युग में स्थिति बिल्कुल उलट चुकी है, जहां संपादक-एंकर फौरन पहचान ली जाने वाली सेलेब्रिटी बन चुके हैं।
भव्यता का भ्रम पैदा करने वाले ‘पर्सनैलिटी कल्ट’ के इस दौर में आत्महंता गुमनामी बड़ी हद तक नुकसानदेह होती है। (इस लेख के साथ आप अपने स्तंभकार की तस्वीर देख रहे हैं, कुछ साल पहले इसका छपना कुफ्र माना जाता।)
ऐसा नहीं कि केवल संपादकों की ही आत्म-छवि बदली है। पब्लिक रिलेशंस या जनसंपर्क पेशेवरों की छवि में भी नाटकीय परिवर्तन हुआ है। मुझे याद है 1980 के दशक के आखिरी सालों में हम हर दीवाली पर बिजनेस डेस्क की तरफ तनिक ईष्र्या से देखते थे, जब उदास दिखते पीआर मैनेजर की तरफ से बिजनेस रिपोर्टर के लिए त्योहार की ‘बख्शीश’ आती थी।
जमाना बदला। सूटपीस की जगह आई-पैड ने ले ली। ज्यादा अहम बदलाव यह आया कि कम तनख्वाह वाले पीआर एक्जीक्यूटिव के स्थान पर स्मार्ट सूट-बूटधारी कॉपरेरेट कम्युनिकेशन एमबीए आ गए। पहले पीआर प्रचार की खबरों को सिंगल कॉलम जगह दिलवा पाने के लिए जाने जाते थे, वहीं अब इसकी जगह हाई-प्रोफाइल ‘एडवोकेसी’ कैंपेन ने ले ली, जो न केवल पत्रकार, बल्कि समूचे नीति-निर्माता तंत्र को प्रभावित करने के लिए बनाए जाते हैं।
नीरा राडिया टेप्स इसी बदलाव को प्रदर्शित करते हैं। वे निर्णय प्रक्रिया में एक विशिष्ट हस्ती के तौर पर कॉपरेरेट ‘लॉबिस्ट’ के आगमन का संकेत हैं, जो सिर्फ रहस्यमयी ऑपरेटर ही नहीं, अपवर्डली मोबाइल, बेहद व्यवहार-कुशल सामाजिक हैसियत वाली शख्सियत भी हैं।
टेप्स ने इस बात की भी पुष्टि की है कि तटस्थ पर्यवेक्षक की भूमिका निभाने वाले संपादक के दिन अब लद गए और उसकी जगह खबरों को बनाने की प्रक्रिया में ज्यादा ‘सक्रिय’ मौजूदगी दर्ज कराने वाले संपादक ने ले ली है। दुर्भाग्य से पत्रकारिता और लोक नीति पर इन टेप्स के प्रभावों का आकलन करने के बजाय मीडिया के एक वर्ग ने टेप्स में पकड़े गए पत्रकारों पर ही फोकस किया है।
एक बदतरीन राज यह है कि पत्रकारिता में ऐसे लोग हैं जो पैसे और पावर के प्रलोभन में आ जाते हैं और नैतिक संबल के अभाव में ‘फिक्सर’ बनकर रह जाते हैं। लेकिन ईमानदारी से देखें तो अभी तक टेप्स में इन पत्रकारों द्वारा अवैध हित साधने या व्यापक ‘षड्यंत्र’ का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है जैसा कि कहा जा रहा है।
बातचीत के अंश कॉपरेरेट, राजनेता और संपादकों के बीच चिंताजनक नजदीकी को जरूर उजागर करते हैं, जो पेशेवर विवेकहीनता और पत्रकार व ‘स्रोत’ के बीच के फर्क को धुंधला करने का कारण बनती है। लेकिन इससे वह उन्मादपूर्ण क्रोध जायज नहीं ठहरता जो इन खुलासों पर प्रकट किया जा रहा है।
तथ्यों के बजाय अटकलों पर आधारित सनसनीखेज पत्रकारिता पाठकों को कुछ समय के लिए उत्तेजित जरूर कर सकती है, लेकिन वह हमें सच्चाई तक नहीं ले जा सकती। सच यह है कि राडिया टेप्स पत्रकारीय बदनीयत के बारे में कम और हाई-स्टेक कॉपरेरेट युद्ध के बारे में ज्यादा हैं, जो अंतत: समूचे तंत्र का सर्वनाश कर सकते हैं, फिर चाहे वे टेलीकॉम के लिए लड़े जा रहे हों या गैस के लिए।
इसके बाद, चाहे यह निर्णय लेना हो कि संसद में बजट पर होने वाली बहस में कौन बोले, या यह कि स्पेक्ट्रम का आवंटन कैसे होना चाहिए, या मंत्रिमंडल में कौन शामिल हो, साफ है कि ऐसे निर्णयों की समूची कवायद भ्रष्ट नेताओं और तत्पर बाबुओं की मदद से मुट्ठी भर ओलिगार्क या रसूखदारों के व्यापक व्यावसायिक हितों की रक्षा करने के लिए की जाती है।
लेकिन इस विराट योजना में पत्रकारिता कहां फिट होती है? क्लासिकल ढांचे में पत्रकार को तंत्र में ‘छापामार’ लड़ाके जैसी भूमिका निभानी चाहिए, जिसका काम है तहकीकात और भंडाफोड़ करना। दुर्भाग्यवश पत्रकारों को भी सत्ताधारी कुलीनों का साझेदार बना लिया गया है, जबकि वास्तव में उन्हें ‘आउटसाइडर’ की भूमिका में होना चाहिए था।
नतीजा यह है कि विरोध की पत्रकारिता की सुदृढ़ भारतीय परंपरा को आरामदायक नेटवर्को की बलिवेदी पर गिरवी रख दिया गया है। एक स्तर पर यह नैतिक ह्रास बाजार की बदलती सच्चाइयों का नतीजा है। खबरों के बेहद प्रतिस्पर्धात्मक संसार में ‘पहुंच’ बहुत महत्वपूर्ण होती है और ‘पहुंच’ ऐसा विशेषाधिकार है जो अक्सर निजी रिश्ते बनाने पर निर्भर करता है।
उदाहरण के तौर पर फिल्म पत्रकारों से अपेक्षा की जाती है कि अगर सितारे का ‘एक्सक्लूसिव’ इंटरव्यू चाहिए तो वे अपने रिव्यू में फिल्म की तारीफ करें। दुनिया की सैर के लिए लाइफस्टाइल पत्रकार प्रायोजित सौदों पर निर्भर रहते हैं।
राजनीतिक पत्रकारों को जगह बनाने के लिए व्यक्तिगत या वैचारिक शिविरों से नजदीकियां बढ़ानी पड़ती हैं। बिजनेस पत्रकारिता तो और भी कठिन है, क्योंकि बड़े विज्ञापनदाताओं के व्यावसायिक बाहुबल और स्वतंत्र पत्रकारिता के सिद्धांत के बीच कभी भी टकराव हो सकता है।
पिछली बार ऐसा कब हुआ था, जब मीडिया में कॉपरेरेट भ्रष्टाचार का मुस्तैदी से भंडाफोड़ किया गया? अधिकांश बिजनेस इंटरव्यू व्यक्तित्व पर केंद्रित सॉफ्ट फोकस प्रोफाइल होते हैं, जिनका मकसद पड़ताल करने के बजाय छवि निर्माण करना होता है। सत्यम के बॉस रामालिंगा राजू को गड़बड़ियों की स्वीकारोक्ति के पहले तक रोल मॉडल की तरह पेश किया जाता था।
केतन पारीख की स्टॉक मार्केट की समझ पर तारीफों के पुल बांधे जाते थे। 19९क् के दशक के प्रारंभ में हुआ हर्षद मेहता घोटाला अंतिम उदाहरण था, जिसे पत्रकारों ने बेनकाब किया। २जी घोटाले का खुलासा भी भारतीय मीडिया की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों में से है, जो यह दिखाता है कि सशक्त व्यावसायिक और राजनीतिक हितों को बेनकाब करने में मीडिया कितनी सकारात्मक भूमिका निभा सकता है।
संभव है कि सीएजी की रिपोर्ट ए राजा के ताबूत में आखिरी कील साबित हो, बीते दो सालों से प्रिंट व टीवी के अनेक पत्रकार स्पेक्ट्रम आवंटन में भ्रष्टाचार को लेकर आगाह करते आ रहे थे। कॉमनवेल्थ और आदर्श घोटाले के विरुद्ध जारी अभियान बताता है कि पत्रकारिता धीरे ही सही, लेकिन आत्म-परिष्कार की प्रक्रिया से गुजर रही है, ताकि खोई हुई विश्वसनीयता पुन: प्राप्त कर सके। आमीन!
पुनश्च : हाल के समय में मीडिया निदरेष साबित होने तक अपराधी मानने के नियम पर चलता रहा है। मीडिया के जरिये पड़ताल की अवधारणा अब मीडिया के ही गले पड़ गई है
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