Saturday, May 5, 2012

सौदों के बाद शोध में सड़ांध



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किसी सेनाध्यक्ष द्वारा पहली बार रक्षा सौदों में दलालों की सक्रियता के आरोपों के बाद सरकार से लेकर सेना तक में हलचल है. लेकिन कम लोगों को पता है कि यह लॉबी सिर्फ रक्षा सौदों को ही नहीं बल्कि रक्षा शोध और विकास को प्रभावित करके भारत को स्वदेशी उपकरण विकसित करने से भी रोक रही है. हिमांशु शेखर 
सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने कुछ दिन पहले एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया कि उन्हें विदेशी कंपनी के साथ होने वाले एक रक्षा सौदे में रिश्वत की पेशकश की गई थी. इसके बाद एक बार फिर से हर तरफ यह चर्चा हो रही है कि किस तरह से रक्षा सौदों में दलाली बदस्तूर जारी है और ज्यादातर रक्षा सौदों को विदेशी कंपनियां अपने ढंग से प्रभावित करने का खेल अब भी खेल रही हैं. इसके बाद सेनाध्यक्ष का प्रधानमंत्री को लिखा वह पत्र लीक हो गया जिसमें बताया गया है कि हथियारों से लेकर तैयारी के मामले तक में सेना की स्थिति ठीक नहीं है. नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की रिपोर्ट भी सेना की तैयारियों की चिंताजनक तस्वीर सामने रखती है.
रक्षा सौदों में दलाली और तैयारी के मोर्चे पर सेना की बदहाली के बीच एक मामला ऐसा है जो इशारा करता है कि विदेशी कंपनियां अपनी पहुंच और पहचान का इस्तेमाल न सिर्फ रक्षा सौदों के लिए कर रही हैं बल्कि इस क्षेत्र के शोध और विकास की प्रक्रिया को बाधित करने के खेल में भी शामिल हैं ताकि उनके द्वारा बनाए जा रहे रक्षा उपकरणों के लिए भारत एक बड़ा बाजार बना रहे.
यह मामला है 1972 में शुरू हुई उस परियोजना का जिसके तहत मिसाइल में इस्तेमाल होने वाला एक बेहद अहम उपकरण विकसित किया जाना था. इसमें शामिल एक बेहद वरिष्ठ वैज्ञानिक का कहना है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहल पर शुरू हुई यह परियोजना जब अपने लक्ष्य को हासिल करने के करीब पहुंची तो इसे कई तरह के दबावों में जानबूझकर पटरी से उतार दिया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि आज भी भारत इस तरह के उपकरण बड़ी मात्रा में दूसरे देशों से खरीद रहा है. इंदिरा गांधी के बाद के चार प्रधानमंत्रियों के संज्ञान में इस मामले को लाए जाने और एक प्रधानमंत्री द्वारा जांच का आश्वासन दिए जाने के बावजूद अब तक इस मामले की उचित जांच नहीं हो सकी है.
साठ के दशक में चीन से चोट खाने और फिर 1971 में पाकिस्तान के साथ हुई लड़ाई के बाद यह महसूस किया गया कि रक्षा तैयारियों के मामले में अभी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है. फिर से भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के उस सपने का जिक्र हो रहा था जिसमें उन्होंने कहा था कि वे रक्षा जरूरतों के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं. तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रक्षा से संबंधित अहम स्वदेशी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए उन भारतीय वैज्ञानिकों की सेवा लेने पर जोर दिया जो दूसरे देशों में काम कर रहे थे.इन्हीं कोशिशों के तहत अमेरिका की प्रमुख वैज्ञानिक शोध संस्था नासा में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिक रमेश चंद्र त्यागी को भारत आने का न्योता दिया गया. त्यागी ने देश के लिए काम करने की बात करते हुए नासा से भारत आने के लिए मंजूरी ले ली. इसके बाद भारत के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की एक लैब सॉलिड स्टेट फिजिक्स लैबोरेट्री में उन्हें प्रमुख वैज्ञानिक अधिकारी (प्रिंसिपल साइंटिफिक ऑफिसर) के तौर पर विशेष नियुक्ति दी गई. उन्हें जो नियुक्ति दी गई उसे तकनीकी तौर पर ‘सुपर न्यूमरेरी अपवाइंटमेंट’ कहा जाता है. यह नियुक्ति किसी खास पद या जरूरत को ध्यान में रखकर किसी खास व्यक्ति के लिए होती है और अगर वह व्यक्ति इस पद पर न रहे तो यह पद खत्म हो जाता है.
दुश्मन के जहाज को गिराने के लिए भारत उस समय जिस मिसाइल का इस्तेमाल करता था उसमें एक उपकरण होता था ‘इन्फ्रा रेड डिटेक्टर’. इसकी अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे आम बोलचाल की भाषा में ‘मिसाइल की आंख’ कहा जाता है. मिसाइल कैसे अपने लक्ष्य तक पहुंचेगी, यह काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि यह उपकरण कैसे काम कर रहा है. पर इस उपकरण के साथ गड़बड़ी यह है कि इसकी उम्र महज छह महीने होती है. मिसाइल का इस्तेमाल हो या न हो लेकिन हर छह महीने में यह उपकरण बदलना पड़ता है. उन दिनों भारत रूस से यह डिटेक्टर आयात करता था. जानकार बताते हैं कि कई बार रूस समय पर यह डिटेक्टर देता भी नहीं था. इंदिरा गांधी ने इस समस्या को समझा और तय किया कि भारत ऐसा उपकरण खुद विकसित करेगा. नासा में काम करते हुए त्यागी ने दो पेटेंट अर्जित किए थे और वहां वे इसी तरह की एक परियोजना पर काम कर रहे थे. सेमी कंडक्टर टेक्नोलॉजी और इन्फ्रा रेड डिटेक्शन पर त्यागी के काम को अमेरिका में काफी सराहा भी गया था. इसी वजह से उन्हें इस परियोजना का कार्यभार सौंपा गया.
1972 में भारत आकर त्यागी ने इस परियोजना पर काम शुरू किया. भारत सरकार ने इस परियोजना को ‘सर्वोच्च प्राथमिकता यानी टॉप प्रायोरिटी’ की श्रेणी में रखा था. औपचारिक तौर पर इसे ‘पीएक्स एसपीएल-47’ नाम दिया गया. त्यागी के सहयोगी के तौर पर अमेरिका के नेब्रास्का विश्वविद्यालय में काम कर रहे वैज्ञानिक एएल जैन को भी भारत लाया गया. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहद प्रतिष्ठित समझी जाने वाली फुलब्राइट स्कॉलरशिप हासिल कर चुके जैन भी देश के लिए कुछ करने का भाव मन में रखकर यहां आए थे. जैन के पास अमेरिकी सेना की कुछ ऐसी परियोजनाओं में काम करने का अनुभव भी था. इन दोनों वैज्ञानिकों ने मिलकर कुछ ही महीनों के अंदर वह उपकरण विकसित कर लिया और बस उसका परीक्षण बाकी रह गया था. इसी बीच पहले एएल जैन को विभाग के अधिकारियों ने परेशान करना शुरू किया. डीआरडीओ की मैनेजमेंट इन्फार्मेशन रिपोर्ट (एमआईआर) में भी इस बात का जिक्र है कि उन्हें परेशान इसलिए किया जा रहा था कि उन्होंने केमिकल बाथ मेथड से डिटेक्टर विकसित करने की परियोजना को लेकर आपत्ति जताई थी और इस तथ्य को भी उजागर किया था कि इसकी क्षमता को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है. लेकिन जैन की बात को परखने की बजाय उन्हें इस कदर परेशान किया गया कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया. त्यागी बताते हैं कि कुछ समय के बाद जैन अमेरिका वापस चले गए. इसके बाद तरह-तरह से उन्हें भी परेशान किया जाने लगा. इसकी शिकायत उन्होंने उस वक्त के रक्षा मंत्री वीएन गाडगिल से भी की. त्यागी कहते हैं कि गाडगिल ने उपयुक्त कदम उठाने की बात तो कही लेकिन किया कुछ नहीं.
डीआरडीओ ने उपकरण के परीक्षण की दिशा में काम आगे बढ़ाने की बजाय एक दिन त्यागी को बताया कि आपका स्थानांतरण पुणे के सैनिक शिक्षण संस्थान में कर दिया गया है. इस तरह से रहस्यमय ढंग से उस परियोजना को पटरी से उतार दिया गया जिसके लिए इंदिरा गांधी ने विदेश में काम कर रहे दो वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों को विशेष आग्रह करके भारत बुलाया था. इसका नतीजा यह हुआ कि आज भी भारत इस तरह के उपकरणों के लिए काफी हद तक दूसरे देशों पर निर्भर है. जानकारों का कहना है कि इस तरह के जो उपकरण भारत में बाद में विकसित भी हुए उनकी हालत गुणवत्ता के मामले में बहुत अच्छी नहीं है.
 त्यागी कहते हैं,  ‘इस परियोजना को तहस-नहस करने का काम उस लॉबी ने किया जो इस उपकरण के सौदों में शामिल थी. इस उपकरण के आयात पर 20 फीसदी दलाली की बात उस वक्त होती थी. इसलिए इन सौदों में शामिल लोगों ने यह सोचा कि अगर स्वदेशी उपकरण विकसित हो गया तो उन्हें मिल रहा कमीशन बंद हो जाएगा. यह बात तो किसी से छिपी हुई है नहीं कि रक्षा सौदों में किस तरह से दलाली का दबदबा है. लेकिन मेरे लिए सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि रक्षा क्षेत्र से संबंधित शोध और विकास कार्यों पर भी किस तरह से विदेशी कंपनियां, कमीशन खाने वाली लॉबी और उनके इशारे पर काम करने वाले अधिकारी असर डाल रहे थे.’ इसके बाद त्यागी ने तय किया कि वे हारकर अमेरिका नहीं लौटेंगे बल्कि भारत में रहकर ही यह लड़ाई लड़ेंगे.
अब तक इस रहस्य से पर्दा नहीं उठा कि आखिर वह कौन-सी ताकत थी जिसने त्यागी की अगुवाई में शुरू हुई अहम रक्षा परियोजना का बेड़ा गर्क कर दिया
लंबी लड़ाई के पहले कदम के तौर पर त्यागी ने अपने स्थानांतरण के आदेश को मानने से इनकार कर दिया. वे कहते हैं,  ‘मुझे एक परियोजना विशेष के लिए लाया गया था तो फिर स्थानांतरण स्वीकार करने का सवाल ही नहीं उठता था. खुद पुणे के उस संस्थान के निदेशक ने कहा था कि रमेश चंद्र त्यागी के पास जिस क्षेत्र की विशेषज्ञता है उससे संबंधित वहां कोई काम ही नहीं है.’ बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में इस बात को दोहराया. त्यागी को स्थानांतरण का यह आदेश 1977 की फरवरी में मिला था. इसे मानने से इनकार करने पर उन्हें दो साल के लिए आईआईटी में प्रतिनियुक्ति पर भेजा गया. उन्होंने यहां 1978 से 1980 तक काम किया और इसी दौरान उन्हें बेहद प्रतिष्ठित श्री हरिओम प्रेरित एसएस भटनागर पुरस्कार मिला. यह पुरस्कार उन्हें सोलर कंसन्ट्रेटर विकसित करने के लिए मिला था. यह रक्षा मंत्रालय के किसी वैज्ञानिक को मिलने वाला पहला राष्ट्रीय पुरस्कार था. प्रतिनियुक्ति पूरी होने के बाद उन्हें फिर से पुणे जाने के लिए कहा गया. जब उन्होंने ऐसा करने से मना किया तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया. त्यागी कहते हैं, ‘मैं भारत का पहला ऐसा वैज्ञानिक बन गया था जिसे बर्खास्त किया गया था और मैं इस कलंक के साथ मरना नहीं चाहता था. मैं उस नापाक गठजोड़ को भी उजागर करना चाहता था जिसने भारत की एक प्रमुख स्वदेशी रक्षा परियोजना को सफलता के मुहाने पर पहुंचने के बावजूद ध्वस्त कर दिया था.’
उस समय से लेकर अब तक त्यागी इस मामले को विभिन्न सक्षम अदालतों, एजेंसियों और व्यक्तियों के सामने उठाते रहे हैं लेकिन अब तक इस रहस्य से पर्दा नहीं उठा है कि आखिर वह कौन-सी ताकत थी जिसने त्यागी की अगुवाई में शुरू हुई उस परियोजना का बेड़ा गर्क कर दिया. इस बात को सिर्फ यह कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है कि स्थानांतरण और बाद में बर्खास्तगी की खीझ में त्यागी इस तरह के आरोप लगा रहे हैं. सच्चाई तो यह है कि डीआरडीओ की एमआईआर में भी यह माना गया है कि इस परियोजना को जानबूझकर बाधित किया गया. त्यागी की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि रमेश चंद्र त्यागी के साथ अन्याय हुआ. दुनिया के प्रमुख रिसर्च जर्नलों ने भी माना कि त्यागी जिस पद्धति से इन्फ्रा रेड डिटेक्टर विकसित कर रहे थे सिर्फ उसी के जरिए उच्च गुणवत्ता वाला यह उपकरण विकसित किया जा सकता है. ये तथ्य इस ओर इशारा कर रहे हैं कि कोई न कोई ऐसी ताकत उस वक्त रक्षा मंत्रालय और खास तौर पर डीआरडीओ में सक्रिय थी जिसके हित त्यागी की परियोजना की सफलता से प्रभावित हो रहे थे. यह ताकत शायद अब भी डीआरडीओ और रक्षा मंत्रालय में सक्रिय है और इसी वजह से अब तक इस मामले में दूध का दूध और पानी का पानी नहीं हो पाया है.
1977 में डीआरडीओ ने जो एमआईआर तैयार की थी उसे सॉलिड फिजिक्स लैबोरेट्री के निदेशक को 17 जनवरी, 1977 को सौंपा गया था. यह रिपोर्ट उस समय के रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार एमजीके मेनन को भी भेजी गई थी लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. सॉलिड फिजिक्स लैबोरेट्री में टेक्नीकल मैनेजमेंट डिविजन के प्रमुख रहे जीके अग्रवाल द्वारा तैयार की गई एमआईआर बताती है, ‘इस परियोजना को बाधित करने के लिए बार-बार डॉ त्यागी और डॉ जैन को परेशान किया गया. परियोजना पर काम करने के लिए त्यागी खुद के द्वारा अमेरिका में विकसित किया गया जो यंत्र नासा की विशेष अनुमति से लेकर आए थे उसका नाम था इपिटैक्सियल रिएक्टर. सर्वोच्च प्राथमिकता वाली परियोजना में लगे रहने के बावजूद इसका स्थान बदलकर परियोजना को बाधित करने की कोशिश की गई. अतः इस निष्कर्ष से बचा नहीं जा सकता कि किसी षड्यंत्र के तहत जानबूझकर डॉ जैन और डॉ त्यागी को उखाड़ फेंकने की योजना बनाई गई.’ जिस अपरेटस का यहां जिक्र है उसे त्यागी ने अमेरिका में विकसित किया था और भारत में ऐसा अपरेटस नहीं होने की वजह से नासा से विशेष अनुमति लेकर वे उसे अपने खर्चे पर भारत लाए थे.
सामरिक दृष्टि से इस बेहद महत्वपूर्ण परियोजना को मटियामेट करने की पूरी कहानी अपनी रिपोर्ट में बयां करना जीके अग्रवाल पर भारी पड़ा. पहले स्थानांतरण और बाद में उन्हें निलंबित कर दिया गया. यह घटना भी त्यागी के उन आरोपों की पुष्टि करती है कि कोई न कोई अदृश्य शक्ति बेहद प्रभावशाली ढंग से उस वक्त से लेकर अब तक रक्षा मंत्रालय और डीआरडीओ में सक्रिय है जो नहीं चाहती कि भारत रक्षा उपकरणों के मामले में आत्मनिर्भर बने.
जब 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो उस वक्त कई सांसदों ने सामरिक दृष्टि से बेहद अहम इस परियोजना से संबंधित सभी पहलुओं की जांच करने की मांग करते हुए एमआईआर को सार्वजनिक करने की मांग भी रखी थी. उस समय के रक्षा मंत्री ने मामले की जांच कराने की बात तो कही लेकिन एमआईआर को यह कहते हुए तवज्जो नहीं दी कि यह एक निजी रिपोर्ट है और ऐसी कोई रिपोर्ट तैयार करने के लिए अग्रवाल को नहीं कहा गया था. जबकि डीआरडीओ ने 3 जून, 1976 को बाकायदा चिट्ठी लिखकर अग्रवाल को एमआईआर तैयार करने का काम सौंपा था. जगजीवन राम के ही समय में इस पूरे मामले की जांच के लिए रक्षा क्षेत्रों के शोध से संबंधित इलेक्ट्रॉनिक्स डेवलपमेंट पैनल ने जांच का काम जनरल सपरा को सौंपा. त्यागी कहते हैं, ‘सपरा ने भी एमआईआर की बातों को माना. फिर भी न तो किसी की जवाबदेही तय हुई और न ही मुझे दोबारा उस परियोजना पर काम आगे बढ़ाने के लिए बुलाया गया.’
इस बीच कुछ सांसदों ने रक्षा मंत्री से लेकर संसद तक में इस मामले से संबंधित जानकारियां मांगीं जवाब में सरकार ने जिनके चार अलग-अलग जवाब दिए. 27 नवंबर, 1980 को राज्यसभा में सत्य पाल मलिक के सवाल के जवाब में उस समय के रक्षा राज्यमंत्री शिवराज पाटिल ने कहा, ‘इस परियोजना को 1977 के जुलाई माह में बंद कर दिया गया. क्योंकि इसके तहत विकसित किए जा रहे डिटेक्टर की कोई जरूरत ही नहीं थी.’ इसी दिन भाई महावीर समेत तीन अन्य सांसदों के सवाल पर पाटिल ने ही अपना जवाब बदल दिया. उन्होंने कहा, ‘इस परियोजना के तहत विकसित किए जाने वाले इन्फ्रा रेड डिटेक्टर को विकसित करने का काम और बड़े पैमाने पर चल रहा है.’ सरकार की तरफ से विरोधाभासी बयानों का सिलसिला यहीं नहीं थमा. संसद की पिटिशन कमेटी के अध्यक्ष बिपिनपाल दास ने अपनी रिपोर्ट में 13 फरवरी, 1981 को कहा, ‘परियोजना को न तो बाधित और न ही बंद किया गया. इसे सफलतापूर्वक 1977 में पूरा किया गया.’ सांसद संतोष गंगवार ने इस मामले में 1992 में एक पत्र उस समय के रक्षा मंत्री शरद पवार को लिखा. इसके जवाब में शरद पवार ने 6 फरवरी, 1992 को एक पत्र लिखकर बताया, ‘इस प्रोजेक्ट की प्रगति की देखरेख के लिए गठित पैनल की सिफारिश पर वर्ष 1976 में इसे बंद कर दिया गया था.’ अब इसमें यह तय कर पाना किसी के लिए भी काफी कठिन है कि इनमें से किस जवाब को सही माना जाए.
इस बीच न्याय के लिए अदालतों का चक्कर काटते हुए त्यागी के हाथ निराशा ही लगती रही. एक समय ऐसा आया जब उन्हें ऐसा लगा कि अगर न्याय हासिल करना है तो खुद ही कानून को जानना-समझना होगा और नासा में काम कर चुके इस वैज्ञानिक ने बाकायदा एलएलबी की पढ़ाई की. उनका मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंचा और वहां फैसला उनके पक्ष में आया. सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि त्यागी का पुणे में स्थानांतरण किया जाना अनधिकृत था और उनकी बर्खास्तगी भी गैरकानूनी थी. जस्टिस आरएम सहाय और एएस आनंद की खंडपीठ ने 11 फरवरी, 1994 के अपने फैसले में यह उम्मीद जताई थी कि डीआरडीओ त्यागी जैसे वैज्ञानिक की विशेषज्ञता और अनुभव को देखते हुए उनकी सेवाओं पर अधिक सकारात्मक रुख अपनाएगा.
त्यागी कहते हैं, ‘इसके बाद मैं डीआरडीओ गया. उस समय डीआरडीओ के प्रमुख एपीजे अब्दुल कलाम थे. उन्होंने मुझे कोई अहम जिम्मेदारी देने और किसी महत्वपूर्ण परियोजना से जोड़ने का भरोसा दिलाया. लेकिन हुआ इसका उलटा. मैं तो कलाम के आश्वासन के बाद समुद्र के अंदर काम करने वाला डिटेक्टर विकसित करने की योजना का खाका तैयार कर रहा था और इसका प्रस्ताव डीआरडीओ को भी दिया था. लेकिन 2 सितंबर, 1994 को टेलेक्स से मुझे सेवानिवृत्त करने की सूचना दे दी गई. जबकि उस वक्त मेरी उम्र 60 साल हुई नहीं थी.’ अब्दुल कलाम की छवि बेहद साफ-सुथरी रही है लेकिन उनके आश्वासन के बावजूद त्यागी को समय से पहले सेवानिवृत्त किया जाना इस बात की ओर इशारा करता है कि इस पूरे मामले में कोई न कोई ऐसी शक्ति काम कर रही थी जिस पर न तो कोई   हाथ डालने की हिम्मत जुटा पा रहा है और न ही उस पर से रहस्य का पर्दा उठाने का साहस कर रहा है.
रक्षा मंत्रालय ने इसपर चुप्पी साधकर रहस्य को और गहरा करने का काम किया कि खुद डीआरडीओ और जनरल सपरा की रिपोर्ट पर अब तक क्या कार्रवाई हुई
इसके बाद संतोष गंगवार समेत आधे दर्जन से अधिक सांसदों ने उस समय के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को 8 अगस्त, 1995 को पत्र लिखकर जानकारी दी. इन सांसदों ने अपने पत्र में इस मामले को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से बेहद संवेदनशील बताते हुए मांग की कि शुरुआत से लेकर अब तक इस पूरे मामले की विस्तृत जांच की जाए और इस पर श्वेत पत्र लाया जाए. इसके जवाब में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने 16 अगस्त 1995 को लिखित में यह कहा, ‘इस मामले की मैं छानबीन कराऊंगा.’ लेकिन इस बार भी कोई नतीजा नहीं निकला.
1996 में प्रधानमंत्री बने एचडी देवगौड़ा ने भी सांसदों द्वारा यह मसला उठाए जाने पर उचित कार्रवाई की बात की लेकिन हुआ कुछ नहीं और जो मामला देशद्रोह का हो सकता है उस पर से रहस्य का पर्दा नहीं हटाया गया. त्यागी कहते हैं कि 1998 में प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी को इस मामले की जानकारी शुरुआती दिनों से ही थी और खुद उनके मंत्रिमंडल में शामिल तकरीबन आधा दर्जन मंत्रियों ने समय-समय पर इस मामले को उठाया था लेकिन वाजपेयी ने भी इस मामले में कुछ नहीं किया. 2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो उन्हें भी कुछ सांसदों ने विस्तृत जांच की मांग करते हुए 8 दिसंबर, 2004 को पत्र लिखा. मनमोहन सिंह ने इसका जवाब भी 13 दिसंबर, 2004 को दिया. 8 दिसंबर का पत्र लिखने वाले सांसदों में शामिल चंद्रमणि त्रिपाठी ने 21 मार्च, 2005 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को फिर से पत्र लिखकर बताया, ‘अभी तक मुझे कोई और जानकारी नहीं मिल पाई है जिससे मेरे पत्र लिखने का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाया है. इस बीच रक्षा मंत्रालय के किसी अधिकारी ने मेरे निवास पर फोन द्वारा यह जानना चाहा था कि आपको प्रेषित मेरा पत्र क्या वास्तव में मेरे द्वारा लिखा गया था. जांच के दायरे में आए संबंधित विभाग द्वारा ऐसी परिस्थितियों में सांसद से संपर्क करना विचित्र लगा.’ रक्षा मंत्रालय का जो व्यवहार चंद्रमणि त्रिपाठी को विचित्र लगा और जिसकी जानकारी उन्होंने शिकायत के लहजे में प्रधानमंत्री को दी वह आरसी त्यागी के उस आरोप को मजबूती देती है कि इस मामले को दबाने के लिए कोई ताकतवर लॉबी अदृश्य तौर पर काम कर रही है.
इस बीच जब उस समय के रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी को पत्र लिखकर जांच की मांग की गई तो उन्होंने उन्हीं बातों को दोहराया जो बातें 1992 में उस समय के रक्षा मंत्री शरद पवार कह रहे थे. हालांकि 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने त्यागी के पक्ष में फैसला देकर शरद पवार को गलत साबित किया था लेकिन प्रणव मुखर्जी इसके बावजूद रहस्य पर पर्दा डालते रहे और उन्होंने त्यागी पर बेवजह सरकार को परेशान करने का आरोप लगाया. मुखर्जी ने भी शरद पवार की तरह ही इस सवाल पर चुप्पी साधकर रहस्य को और गहरा करने का काम किया कि खुद डीआरडीओ की एमआईआर और जनरल सपरा की रिपोर्ट पर रक्षा मंत्रालय ने अब तक क्या कार्रवाई की. त्यागी कहते हैं, ‘जब एके एंटोनी रक्षा मंत्री बने तो फिर मैंने इस पूरे मामले की जांच के लिए एक पत्र लिखा लेकिन अब तक मुझे इस पत्र का जवाब नहीं मिला है.'
इतना सब होने के बावजूद सरकार का इस मामले में विस्तृत जांच नहीं करवाना कई सवाल खड़े करता है. क्या विस्तृत जांच के लिए सरकार उस मौके का इंतजार कर रही है जब सेनाध्यक्ष वीके सिंह सरीखा कोई व्यक्ति सामने आकर कहे कि रक्षा सौदों में ही नहीं, रक्षा शोध एवं विकास में भी अदृश्य शक्तियां सक्रिय हैं? क्या मौजूदा प्रधानमंत्री के लिए उस वैज्ञानिक की बातों का कोई महत्व नहीं है जिसे खुद उन्हीं की पार्टी की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विशेष आग्रह के साथ नासा से भारत वापस बुलाया था?
रमेश चंद्र त्यागी के साथ जो कुछ हुआ उसका खामियाजा देश को कई तरह से भुगतना पड़ रहा है. इसमें मिसाइल के लिए जरूरी डिटेक्टर के लिए दूसरे देशों पर निर्भरता, बढ़े रक्षा खर्चे और कमजोर सैन्य तैयारी प्रमुख हैं. लेकिन इस घटना की वजह से नासा में काम कर रहे कई भारतीय वैज्ञानिकों ने भारत सरकार द्वारा अपने वतन लौटकर देशप्रेम की भावना के साथ काम करने का प्रस्ताव ठुकरा दिया है. त्यागी कहते हैं, ‘नासा में एक तिहाई भारतीय काम करते हैं. इनमें कई ऐसे हैं जो अपने वतन के लिए काम करते हैं. सरकार समय-समय पर इनमें से कुछ को भारत वापस लाने की कोशिश भी करती है. लेकिन जिस वैज्ञानिक को भी मेरा हाल पता चलता है वह नासा में ही बने रहने का विकल्प चुनता है.’ खुद रक्षा मंत्री एके एंटोनी ने 2008 में संसद में एक सवाल के जवाब में यह जानकारी दी थी कि डीआरडीओ हर साल तीन-चार बार विदेशों में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिकों को यहां लाने की कोशिश करता है.

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