Monday, January 17, 2011

आइए श्री गणेश करते हैं




आइए श्री गणेश करते हैं। प्रारंभ करते हैं, बिसमिल्लाह करते हैं। अभी तो आग़ाज़ है, इप्तदा है अर्थात बिगनिंग है। ऐसे ही कुछ शब्द बोल कर किसी बात का प्रारंभ होना माना जाता है। सनातन-धर्म में प्रत्येक शुभ-कार्य का प्रारंभ गणपति, विनायक, विघ्ननाशक, लम्बोदर, एकदंत अर्थात श्री गणेश जी के नामों से किया जाता है। प्रत्येक धार्मिक संस्कार, नवग्रह पूजन, यज्ञ आदि में गणेश जी की पूजा पहले करने का विधान है। भारत ही नहीं बल्कि विश्व के अनेक देशों जैसे चीन, जापान, अमेरिका, नेपाल, तिब्बत, म्यांमार, जावा, सुमात्रा, कम्बोडिया, ग्रीक, ईरान, मिश्र आदि में भी किसी न किसी रुप में गणेश पूजन की प्रथा है।
विश्व भर में जितनी भी सिद्धियॉ हैं, उन्हें गणेश जी की दासियॉ माना जाता है। वह गर्भ से उत्पन्न न होकर अमैथुनी सृष्टि के अनादि और स्वयंभू देवता माने जाते हैं। चूहे को उनका वाहन माना जाता है। मनुष्य के समान मस्तक न होकर उनका गज अर्थात हाथी का सिर है। हाथी के समान ही उनके बड़े कान और सूंड है। बहुत बड़ा पेट होने के कारण उनको लम्बोदर कहा जाता है। प्रत्येक देवी देवताओं में से पूजा के लिए सर्वप्रथम उन्हें चुना गया है।
नर और गज स्वरुप का मिला-जुला यह विचित्र रुप मात्र चित्रकार की कल्पना का परिणाम है? क्या उनका स्वरुप वास्तव में ऐसा ही है? यह प्रश्न प्राय: मन में उठते हैं।
हिन्दू संस्कारों में कोई भी ऐसा शुभ कर्म नहीं है जो गणेश जी की पूजा से प्रारंभ न होता हो। शाब्दिक अर्थ में तो श्री गणेश 'प्रारंभ' का ही पर्याय हो गया है या कहें कि गणेश जी 'प्रारंभ' अर्थ में ही आरुढ़ हो गए हैं।
गणेश जी को गज के मस्तक वाला बताया गया है। गज का मस्तक अर्थात सिर एक बहुत ही संवेदनशील अंग है। तभी तो महावत खूंखार से खूंखार हाथी को उसके मस्तक पर अंकुश चुभा कर नियंत्रित कर लेता है। प्रत्येक बौद्धिक व्यक्ति असंयमी, दुष्ट और अहंकारी से व्यर्थ ही सिर नहीं भिड़ाता। ये मर्म केवल गज के सिर में ही माना गया है। गणेश जी के सिर से भी हमें यह शिक्षा मिलती है कि व्यर्थ में किसी अविवेकी कार्य को लेकर सिर नहीं भिड़ाना चाहिए। यही बात कभी किसी चित्रकार से पहले किसी ग्रंथकार की समझ में आई होगी जो उसने गणेश जी की बुद्धि-विवेक की तुलना गज-मस्तक से की और उसी को लेकर चित्रकार ने गणेष जी का साकार चित्र खींच दिया। वही कल्पना धीरे-धीरे गणपति जी के गज सिर के रुप में साकार प्रचलित हो गई।
ऋ ग्वेद में स्पष्ट लिखा है कि देवाधिदेवों में गणपति जी सर्वज्ञ हैं, उनके बिना कोई भी शुभ कर्म आरंभ नहीं किया जाता।
गणेश पुराण में भी स्पष्ट है कि गणपति जी को शैव, शक्ति और वैष्णव तथा प्रत्येक संप्रदाय के मानने वाले दैहिक, भौतिक अथवा वैदिक शुभाशुभ प्रत्येक कार्यों में सर्वप्रथम पूजनीय मानते हैं।
गणेश जी की नाक को लेकर प्रश्न उठता है कि इतनी बड़ी नाक वाला भी कोई देव हो सकता है? आपने तो सुना ही होगा कि जितनी बड़ी नाक, उतनी अधिक प्रतिष्ठा अर्थात व्यक्ति उतना ही बड़ा प्रतिष्ठावान। प्रतिष्ठा कम हुई, कहीं अपमान की स्थिति आई तो यह भी कह दिया जाता है कि उसकी तो नाक कट गई। अब कोई पूछे कि भई प्रतिष्ठा और नाक में क्या मेल? बस यह समझिए कि यह एक मुहावरा बन गया, एक प्रचलित संबोधन बना दिया गया प्रतिष्ठा का। बौद्धिक और सभ्य समाज के साथ-साथ प्रत्येक वर्ग में यही शिक्षा दी जाती है कि व्यक्ति को कभी कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे की समाज में उसकी नाक कट जाय। नाक का इतना सम्मान! नाक की इतनी प्रतिष्ठा! नाक का इतना बड़प्पन! नाक की इतनी चर्चा! समाज में सब कुछ जैसे नाक के चारों ओर हो रहा है। हम सब जैसे अपनी नाक बचाने के लिए ही समाज में जी रहे हैं। फिर हमारी नाक लंबी क्यों न हो। हम क्योंकर मान लें कि हमारी नाक किसी से छोटी है। हम क्यों अपनी नाक पर मक्खी बैठने दें।
इन समस्त बातों की शिक्षा हमें हाथी की लंबी सूंड से मिलती है। नभ, थल और जल के किसी जीव की नाक हाथी जितनी बड़ी नहीं है। इसीलिए कल्पना कार गणपति जी के हाथी की लम्बी नाक लगाने के पक्ष में रहे होंगे और आज गणपति जी का यह रुप प्रचलित हुआ होगा।
गणपति जी को समस्त विघ्न बाधाओं को दूर करने वाला विघ्नेश्वर भी कहा जाता है। उन्हें किसी भी आगामी विघ्न का पूर्व ही आभास हो जाता है। वह किसी अशुभ को पहले अनुमान कर लेते हैं। यह आभास कल्पनाकार ने लम्बी सूंड के रुप में दर्शाया। जैसे कि वह किसी भी अनिष्ट को पहले से सूंघ लेते हों। यह लंबी नाक इसी बात का प्रतीक कि वह समस्त विघ्न-बाधाओं को सूंघ कर जान लेते हैं। यह समझें कि जितनी बड़ी नाक होगी उतनी ही शीघ्रता से अप्रिय घटना का आभास हो जाएगा।
प्रभू की लीला भी विचित्र है। हाथी के सिर के अनुपात में ही उसने उसे दो बड़ी ऑखें भी दी हैं। उसकी आंखों में भी कहते हैं कि विचित्रता है। उसे सामने की वस्तु वास्तविक आकार से कई गुना बड़ी दिखाई देती है-ठीक एक आतिशी शीशे की तरह। संभवत: यह गुण इसलिए रहा हो कि हाथी को यह लगे कि वह ही संसार में भीमकाय जीव नहीं है और उसे यह भी अहंकार न हो जाए कि सब तुच्छ हैं और इसी दर्प में वह छोटे-बड़े जीव को कुचलता हुआ ना चले। हाथी के इस गुण से यह शिक्षा मिलती है कि अपने को दूसरों से छोटा समझों अर्थात अपने में अहम् मत आने दो। गणेश जी की ऑखें इसी शिक्षा की प्रतीक हैं। उनकी बड़ी ऑखों वाला रुप चित्रकार द्वारा आज साकार रुप में पूजनीय है।
गणेश जी के लंबे कान और तुंदल पेट भी चित्रों में दिखाये जाते हैं। कान सब सुनते हैं। बड़े कान सतर्कता के प्रतीक हैं। परंतु सुनी हुई बात को अपने में पचाने की कितनी अधिक सामर्थ्य है कि पेट को फूला हुआ ही दिखा दिया। कान का कच्चा होना ओछापन कहलाता है। यह भी कह देते हैं कि उसके कान बहुत छोटे हैं। इसका अर्थ यही निकलता है कि उसमें अच्छी-बुरी बात पचाने की सामर्थ्य नहीं है। उसे इस बात का संयम नहीं है कि वह किसी बात को गुप्त रख सके। ओछे कान इस बात का भी प्रतीक हैं कि वह बिना समझे-बूझे किसी बात पर भी विश्वास कर लें। गणेश जी के बड़े कान उनके संयम का प्रतीक हैं और लंबा उदर, जिसके कारण वह लंबोदर कहलाते हैं, यह दर्शाता है कि छोटी-बड़ी बात पचाने की कितनी अधिक शक्ति उनमें है।
चूहा गणेश जी का वाहन निर्धारित किया गया है। कहाँ यह लंबोदर कहाँ यह सूक्ष्म थलचर! कैसे गजानन इस छोटे से जानवर पर सबारी कर पाते होंगे? यह भी एक हास्यास्पद प्रश्न है। कल्पनाकार ने किसी बात से प्रभावित होकर यह रुप गढ़ा होगा। यह निम्न तर्क से स्पष्ट हो जाएगा।
व्यक्ति की शंकालु प्रवृत्ति, अनावश्यक तर्क-वितर्क, व्यर्थ में इधर-उधर की चर्चा वाली आदत उसे जीवन में अधोमुखी बनाती है। उसका पतन निश्चित है -यह कह दें तो त्रुटि नहीं होगी। व्यर्थ में तार्किक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति का सर्वनाश होता है। चूहे महाराज को तर्क का प्रतीक माना जाता है। यह तर्क रुपी अपनी दांतों की कैंची से अकारण ही किसी भी वस्तु को कुतरकर उसे नष्ट कर देता है। विश्व में क्या पूरे ब्रह्माण्ड में जहां कही भी चूहा होगा उसे विधी द्वारा यही स्वाभाव मिलेगा।
वितर्कों से बचने के लिए चूहे के वाहन से उपयुक्त और कोई पशु नहीं मिला होगा इसीलिए उसे गणेश जी का वाहन निर्धारित किया गया। चूहे के वाहन सहित गणेश जी का रुप हमें यही शिक्षा देता है कि तर्क को नियंत्रण में रखा जाए, उसे व्यर्थ में स्वतंत्र में विचरण के लिए नहीं छोड़ देना चाहिए।
दूसरी ओर यह प्रथा भी प्रचलित है कि जहां चूहे मरने लगते हैं वहां अकाल, महामारी और अनेक प्रकार की बीमारियों का प्रादुर्भाव होने लगता है। यह भी मान्यता है कि चूहे समृद्ध और वैभवशाली घर में निवास करते है। दरिद्र के घर से चूहे तक भाग जाते है। लोग यहां तक मानते हैं कि जिस घर में चूहे निश्चिंतता से विचरण कर रहे हों उसे घर को कोई विपदा, आपत्ति और चिंता घेर ही नहीं सकती। संभवत: चूहे महाराज को इतना शुभ होने के कारण ही गणेश जी का वाहन माना गया है।
जिस घर में गणपति देव का ध्यान, पूजन आदि श्रद्धा भाव से किया जाता है वहां कैसा भी विघ्न, व्याधि अथवा विशेष रुप से वास्तु प्रदत्त कोई दोष व्यक्ति को नहीं सताता। देव का तो नाम ही है - विघ्नविनाशक। समयाभाव अथवा आलस्यवश यदि विधिविधान पूर्वक आप यदि देव का ध्यान-पूजन नहीं भी कर पा रहे है तो एक छोटा सा उपाय अवश्य प्रारंभ कर दें। दैहिक, भौतिक और अध्यात्मिक तीनों सुखों की अनुभूति आपको स्वत: ही होने लगेगी।
किसी शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश जी की एक ऐसी प्रतिमा, फोटो, पोस्टर, कैलण्डर आदि उपलब्ध कर लें जिसमें उनकी सूंड उनके दाहिने हाथ की ओर मुड़ी हो। इसी प्रतिमा को अपने घर के मुख्या द्वार पर इस प्रकार से स्थापित कर दें कि देव का मुंह घर के अंदर की ओर रहे। इसके ठीक सामने लक्ष्मी जी अथवा कुबेर जी का कोई यंत्र, फोटो अथवा विग्रह आदि रख दें।
नित्य गणेश जी की प्रतिमा पर दूब घास धोकर चढ़ाए। पुरानी दूब को नई चढ़ाने के बाद घर से बाहर छोड़ दें। इसी प्रकार यदि संभव हो सके तो लक्ष्मी जी यंत्र पर लाल रंग के पुष्प नित्य चढ़ा दिया करें। दूब और पुष्प चढ़ाते समय जैसी भी श्रद्धा भाव से पूजा-अर्चना बन पड़े कर लिया करें। पूरी तरह दीन होकर गणेश जी के नेत्रों में त्राटक करके निम्नलिखित स्तुति कम से कम एक बार अवश्य पढ़ लिया करें। पंक्तियॉ पढऩे की संख्या जो प्रथम बार हो वही नित्य रहनी चाहिए।
निरन्तर यह भावना बनाएं रखें कि दुर्भाग्य का आपके परिवार से धीरे-धीरे पलायन हो रहा है और सौभाग्य का उसकी जगह पर आगमन प्रारम्भ हो रहा है। इस सरलतम छोटे से परन्तु उतने ही प्रभावशाली प्रयोग से आप कुछ ही समय में अनुभव करने लगेंगे कि प्रभु की कृपा आप तथा आपके समस्त परिवार पर होनी प्रारम्भ हो गई है। यह भी निरन्तर विश्वास बनायें रखें कि एक बार प्राप्त हुई प्रभु की कृपा सर्वदा स्थाई होती है

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