शिव की उपासना संसार भर में विभिन्न रूपों में आदिकाल से प्रचलित रही है। सभी देवीद्ब्रदेवताओं में विशिष्ट होने से इन्हें महादेव के नाम से पूजा जाता है।
देवाधिदेव महादेव की उपासना हमारे देश में सर्वत्रा व्याप्त है और शिवालयों की अनन्त श्रृंखला इसे प्रकट करती हैं। देश में कुछ पुण्य क्षेत्रा ऐसे हैं, जहां शिव उपासना प्राचीनकाल से अत्यधिक प्रचलित और चरम उत्कर्ष पर रही है। कैलाश पर्वत पर समाधि में डूबे एकांत प्रिय देवता शिव जैसा कोई देव नहीं। शिव ऐसे देवता हैं जो एकांत/निर्जन स्थान/पर्वतों, गुफाओं और कन्दराओं में निवास करते हैं।
शिव को अपनी प्रकृति के अनुकूल जैसे राजस्थान, गुजरात और मालवा की लोक संस्कृतियों और नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण पुण्य धरा वाग्वर प्रदेश रास आ गया है। यही कारण है कि इस अंचल में सर्वत्रा भगवान शिव के एक से बढ़ कर प्राचीन और अदभुत महत्व वाले मंदिर विद्यमान हैं जो यहां शिव उपासना की प्राचीन परंपराओं का बोध कराते नहीं अघाते।
यह समूचा इलाका कलद्ब्रकल बहती सरिताओं, प्राकृतिक सौंदर्य श्री से परिपूरित पहाड़ों, वनों और सर्पाकार बहती नहरों के कारण महत्वपूर्ण है। यहां हर ओर शिवालयों का उन्नत पताकाएं नभ में शिव उपासना की श्रेष्ठता का संदेश सुनाती प्रतीत होती हैं। इसकी स्पष्ट झलक वनवासी संस्कृति में दृष्टिगोचर होती है। जिस तरह शिव बाबा धूनी रमाये कैलाश पर्वत पर बिराजम्मान रहते हैं, ठीक उसी फक्कड़ शैली में वनवासियों के मस्त मौला जीवन की झांकी मिलती है। वनवासी को न कल की चिंता है न वे किसी भूत के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होते हैं। वह तो प्रकृति के बीच रह कर दो जून की रोटी कमाकर ही संतोष में रह लेते हैं। अपने हाल में सदा मस्त रहने वाला वनवासी औघड़दानी बाबा शिव की ही तरह अलमस्त हैं और वह शिव को ही ख़ास कर अपना उपास्य देव मानते आये हैं। शिव की उदारता की परंपरा का वनवासी सच्चे शिव भक्त की तरह अनुकरण करता है।
वागड़ अंचल में एक सिरे से लगाकर किसी भी सिरे तक चले जाएं, हर गांव, शहर, कस्बा आदि सब जगहों पर शिवालय बहुतायत में विद्यमान हैं वहीं शैव मतावलंबियों ने यहां शैव मत, तंत्रा साधना और शैव मूर्तिकला को अतीत में काफी उच्च स्तर तक पहुंचाया, जिसके कारण आज भी हर कहीं अभिषेक शिव मंत्रों और हरद्ब्रहर महादेव या जय महादेव की गंूज टापरे से लगाकर महलों तक शिवत्व का संदेश सुना रही है।
शिव पूजा की व्यापकता और शिवालयो के बाहुल्य के कारण ही संसार में वाग्वर प्रदेश को लोढ़ी काशी के रूप में मान्यता मिली है। वाराणसी के बाद राजस्थान का यह दक्षिणांचल ही एक मात्रा ऐसा स्थल है, जहां शिव उपासना और शिवालय अति समृ रहे हैं। कंकर-कंकर में शंकर....इसे सही मायनों में वागड़ प्रदेश की सार्थक कर रहा है। भगवान शिव की सर्वव्यापकता के बारे में कहा गया है:द्ब्र
पातालेचान्तरिक्षे दश दिशि गगने
सप्त शैले समुद्रे, भस्मे काष्ठे च लोष्ठे क्षितिजल पवने
स्थावरे जंगमे वा बीजौ सर्वोषधीनां असुर सुरपति
पुष्पपत्रो तृणाग्रे एको व्यापी शिवोहं इति वदति हरि नास्ति देवो द्वितीय।
पुरातन काल से चली आ रही शैव परंपरा में यहां हजारों छोटे-बड़े शिवालय हैं और इनमें से हर बड़े शिवालय के पीछे रोचक किम्वदंती या चमत्कार छुपा हुआ है। यहां हर किस्म के शिवालय हैं। अरथुना और पाराहेड़ा के प्राचीन शिल्प एवं स्थापत्ययुक्त शिवालय कला की दृष्टि से बेजोड हैं तो हर शताब्दी में शिवालय निर्माण की श्रृंखला अनवरत जारी रही, जिसने इस वाग्वर प्रदेश को पूरी तरह शिवमय बना दिया है।
वाग्वर प्रदेश में अवस्थित शिवालयों में से कई सारे मंदिरों में शिवलिंग किसी के द्वारा प्रतिष्ठापित न होकर स्वत: प्रादूर्भुत अर्थात स्वयंभू शिवलिंग माने जाते हैं, स्वंयभू शिवलिंगों की उत्पत्ति के पीछे रोचक किम्वदंती है, जिसके अनुसार यह गाय के थनों से दुग्धाभिषेक होते वक्त प्रकट हुए और बाद में लोगों ने पूजना आरंभ किया। यह शिवलिंग आदि शिवलिंग हैं जो विभिन्न कालखण्डों में भूमिगत होते रहे और फिर प्रकट होते हैं।
वाग्वर प्रदेश का अरथुना प्राचीन सभ्यता का पुरातात्विक धाम है जहां का मण्डलेश्वर शिवालय बहुत प्राचीन है। इसका उत्कृष्ट कोटि का शिल्प और स्थापत्य देखने लायक हैं। दीवारों, खम्भों आदि पर सुंदर कारीगरी दृष्टिगोचर होती है। वहां के मंदिरों में लकुलीश संप्रदाय के चिह्न भी देखने को मिलते हैं। इसी तरह के शिवालय यहां कई हैं जो पुरातत्व की अनमोल धरोहर हैं।
डूंगरपुर के पूर्वोत्तर में प्रावाहमान सोमन् नदी के मुहाने देव सोमनाथ का श्वेतप्रस्तर निर्मित तिमंजिला शिवालय कला का अनूठा उदाहरण है और पत्थरों पर टिका यह मंदिर हर दर्शनार्थी को विस्मय में डाल देता है। इस शिवालय को पूर्व में सोलहवीं शताब्दी में बहुत महत्व प्राप्त था, लेकिन कालांतर में समुचित देखरेख के अभाव में यह जीर्णद्ब्रशीर्ण होता गया।
बेणेश्वर का प्राचीन शिवालय माही, सोम और जाखम नदियों के त्रिवेणी संगम स्थल के बीच बने ऊंचे टापू पर अवस्थित हैं जो जनद्ब्रजन की भारी आस्था के कऌद्र के रूप में प्रख्यात हैं। इस मंदिर में प्राचीन शिवलिंग विद्यमान है।
बांसवाडा शहर के पूर्वी छोर पर कागदी नदी के किनारे वनेश्वर शिवोपासकों की श्रद्धा का ख़ास केन्द्र रहा है जिसकी गिनती अति प्राचीन शिवालयों में की जाती है। वनेश्वर क्षेत्रा में वनेश्वर के अलावा नीलकण्ठ और धनेश्वर स्वयं भू शिवलिंग हैं, जिनकी उत्पत्ति दैवीय चमत्कारों से हुई है। देश में शायद ही कोई ऐसा स्थान हो जहां तीन स्वयं भू शिवलिंग हों, वनेश्वर शिवालय इस दृष्टि से बेमिसाल है। यहां बारहवीं शताब्दी का मंदिर था, बाद में सत्राहवीं शताब्दी में जीर्णोदार कर नया स्वरूप प्रदान किया गया। वनेश्वर क्षेत्रा एक मंदिर ही नहीं, बल्कि समूचा धर्म क्षेत्रा है, जहां की लंबे चौड़े परिक्षेत्रा में छोटे-बड़े मिलाकर कोई पचास से ज्यादा देव स्थानक हैं। यहां दो प्राचीन ध्यान स्तूप भी हैं। वनेश्वर जनास्था का भारी कऌद्र रहा है, जहां आने वाले हर भक्तजन की मनोकामना भगवान शिव अवश्य ही पूरी कर देते हैं। इस मंदिर के शिवलिंगों और क्षेत्रा की अनेक विशेषताएं हैं। यहां जलाभिषेक करने पर शिवलिंग से संगीत का उत्फुटन, सारा का सारा पानी भूमि में समा जाना, विभिन्न रंगों के दिव्य सर्पों का होना, पास के प्राचीन स्नानागार का पानी का वर्ष में अनेक बार रंग बदलना आदि प्रमुख हैं।
यहां पहले श्मशान घाट था, इस कारण इस क्षेत्रा में घूसते ही हर किसी को असीम आत्मतोष का अनुभव होता है। यहां रोजाना दर्शनार्थियों का जमघट लगा ही रहता है। वर्ष भर यहां धार्मिक अनुष्ठानों की गूंज बनी रहती है। बांसवाड़ा शहर के त्रायम्बकेश्वर शिवालय को भी बड़ी ख्याति प्राप्त है और यह प्राचीन शिवालयों में गिना जाता है। यहां का शिवलिंग भूगर्भगृह में है व स्वयंभू है। इस मंदिर में काफी शीतलता है।
मंदिर के बाहर स्थित मूर्तियां, खंभों आदि का शिल्प बेहद सुंदर है। इसका जीर्णोर पंद्रहवीं शताब्दी के आसपास त्रायम्बक नामक ब्रह्मण द्वारा कराया गया।
बड़ोदिया के निकट सुरम्य पर्वतीय आंचल में स्थित घोटिया आंबा जगप्रसि है, जहां पाण्डवों ने अपना वनवास बिताया और ऋषियों को भोजन कराया था। महाभारतकालीन युग से संबे घोटिया आंबा तीर्थ पर घोटेश्वर महादेव का पौराणिक एवं प्राचीन मंदिर है, जो एक पहाड़ी पर बना हुआ है। इसमें शिव पार्वती, नंदी के अलावा कुंती, द्रोपदी एवं पांच पाण्डवों की मूर्तियां स्थापित हैं।
डूंगरपुर जिले के ठाकरडा गांव स्थित सिनाथ महादेव और बांसवाड़ा जिले के परतापुर कस्बे के निकट भगोरा में स्थापित भगोरेश्वर महादेव की ख्याति दूरद्ब्रदूर तक मनोकामनापूर्ति करने वाले देवता के रूप में है। दूरद्ब्रदूर से दर्शनार्थी यहां आकर मनौतियाँ लेते हैं। बांसवाड़ा शहर का भगोरेश्वर महादेव मंदिर जनास्था का धाम है। यहां के शिवलिंग के बारे में बताया जाता है कि इसकी उत्पत्ति भगौने में से हुई है।
वागड़ क्षेत्रा के पाड़ी स्थित रामेश्वर पुत्रा देने वाले शिव के रूप में प्रसिे हैं। यहां हर ओर सैकड़ों शिवालय हैं, जिनमें सलाखडेश्वर, संगमेश्वर, जगमेश्वर, क्षीरेश्वर, गवरेश्वर, मदारेश्वर, कपालेश्वर, ताम्बेश्वर, राज राजेश्वर, अंकलेश्वर, धोरेश्वर, नीलकण्ठ, गुप्तेश्वर, पातालेश्वर, मंगलेश्वर, गोकर्णेश्वर, पारसोलिया महादेव, वनाला या वख्तेश्वर, घंटालेश्वर, भैरवानन्देश्वर, अर्केश्वर, केदारेश्वर, गौतमेश्वर, मनकामेश्वर, मण्डलेश्वर आदि प्रमुख हैं।
इस अंचल में बड़ेद्ब्रबड़े मेले शिवालयों पर ही लगते हैं। शिवरात्रि और श्रावस मास के दौरान तो वागड़ का चप्पा-चप्पा शिवमय हो उठता है और शिवालयों से जय शिव ओंकार...अथवा जय गंगाधर हर शिव... की आरतियों की गूंज रह रहकर वातावरण को दिव्य बनाती है। श्रावण मास में शिव अनुष्ठानों की धूम मची रहती है।
शिव कल्याण करने वाले हैं और समूचा वागड़ अंचल अपने में शिवालयों को समाये सर्वत्रा शिव के कल्याण मूलमंत्रा का उपदेश देता दिखायी देता है।
देवाधिदेव महादेव की उपासना हमारे देश में सर्वत्रा व्याप्त है और शिवालयों की अनन्त श्रृंखला इसे प्रकट करती हैं। देश में कुछ पुण्य क्षेत्रा ऐसे हैं, जहां शिव उपासना प्राचीनकाल से अत्यधिक प्रचलित और चरम उत्कर्ष पर रही है। कैलाश पर्वत पर समाधि में डूबे एकांत प्रिय देवता शिव जैसा कोई देव नहीं। शिव ऐसे देवता हैं जो एकांत/निर्जन स्थान/पर्वतों, गुफाओं और कन्दराओं में निवास करते हैं।
शिव को अपनी प्रकृति के अनुकूल जैसे राजस्थान, गुजरात और मालवा की लोक संस्कृतियों और नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण पुण्य धरा वाग्वर प्रदेश रास आ गया है। यही कारण है कि इस अंचल में सर्वत्रा भगवान शिव के एक से बढ़ कर प्राचीन और अदभुत महत्व वाले मंदिर विद्यमान हैं जो यहां शिव उपासना की प्राचीन परंपराओं का बोध कराते नहीं अघाते।
यह समूचा इलाका कलद्ब्रकल बहती सरिताओं, प्राकृतिक सौंदर्य श्री से परिपूरित पहाड़ों, वनों और सर्पाकार बहती नहरों के कारण महत्वपूर्ण है। यहां हर ओर शिवालयों का उन्नत पताकाएं नभ में शिव उपासना की श्रेष्ठता का संदेश सुनाती प्रतीत होती हैं। इसकी स्पष्ट झलक वनवासी संस्कृति में दृष्टिगोचर होती है। जिस तरह शिव बाबा धूनी रमाये कैलाश पर्वत पर बिराजम्मान रहते हैं, ठीक उसी फक्कड़ शैली में वनवासियों के मस्त मौला जीवन की झांकी मिलती है। वनवासी को न कल की चिंता है न वे किसी भूत के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होते हैं। वह तो प्रकृति के बीच रह कर दो जून की रोटी कमाकर ही संतोष में रह लेते हैं। अपने हाल में सदा मस्त रहने वाला वनवासी औघड़दानी बाबा शिव की ही तरह अलमस्त हैं और वह शिव को ही ख़ास कर अपना उपास्य देव मानते आये हैं। शिव की उदारता की परंपरा का वनवासी सच्चे शिव भक्त की तरह अनुकरण करता है।
वागड़ अंचल में एक सिरे से लगाकर किसी भी सिरे तक चले जाएं, हर गांव, शहर, कस्बा आदि सब जगहों पर शिवालय बहुतायत में विद्यमान हैं वहीं शैव मतावलंबियों ने यहां शैव मत, तंत्रा साधना और शैव मूर्तिकला को अतीत में काफी उच्च स्तर तक पहुंचाया, जिसके कारण आज भी हर कहीं अभिषेक शिव मंत्रों और हरद्ब्रहर महादेव या जय महादेव की गंूज टापरे से लगाकर महलों तक शिवत्व का संदेश सुना रही है।
शिव पूजा की व्यापकता और शिवालयो के बाहुल्य के कारण ही संसार में वाग्वर प्रदेश को लोढ़ी काशी के रूप में मान्यता मिली है। वाराणसी के बाद राजस्थान का यह दक्षिणांचल ही एक मात्रा ऐसा स्थल है, जहां शिव उपासना और शिवालय अति समृ रहे हैं। कंकर-कंकर में शंकर....इसे सही मायनों में वागड़ प्रदेश की सार्थक कर रहा है। भगवान शिव की सर्वव्यापकता के बारे में कहा गया है:द्ब्र
पातालेचान्तरिक्षे दश दिशि गगने
सप्त शैले समुद्रे, भस्मे काष्ठे च लोष्ठे क्षितिजल पवने
स्थावरे जंगमे वा बीजौ सर्वोषधीनां असुर सुरपति
पुष्पपत्रो तृणाग्रे एको व्यापी शिवोहं इति वदति हरि नास्ति देवो द्वितीय।
पुरातन काल से चली आ रही शैव परंपरा में यहां हजारों छोटे-बड़े शिवालय हैं और इनमें से हर बड़े शिवालय के पीछे रोचक किम्वदंती या चमत्कार छुपा हुआ है। यहां हर किस्म के शिवालय हैं। अरथुना और पाराहेड़ा के प्राचीन शिल्प एवं स्थापत्ययुक्त शिवालय कला की दृष्टि से बेजोड हैं तो हर शताब्दी में शिवालय निर्माण की श्रृंखला अनवरत जारी रही, जिसने इस वाग्वर प्रदेश को पूरी तरह शिवमय बना दिया है।
वाग्वर प्रदेश में अवस्थित शिवालयों में से कई सारे मंदिरों में शिवलिंग किसी के द्वारा प्रतिष्ठापित न होकर स्वत: प्रादूर्भुत अर्थात स्वयंभू शिवलिंग माने जाते हैं, स्वंयभू शिवलिंगों की उत्पत्ति के पीछे रोचक किम्वदंती है, जिसके अनुसार यह गाय के थनों से दुग्धाभिषेक होते वक्त प्रकट हुए और बाद में लोगों ने पूजना आरंभ किया। यह शिवलिंग आदि शिवलिंग हैं जो विभिन्न कालखण्डों में भूमिगत होते रहे और फिर प्रकट होते हैं।
वाग्वर प्रदेश का अरथुना प्राचीन सभ्यता का पुरातात्विक धाम है जहां का मण्डलेश्वर शिवालय बहुत प्राचीन है। इसका उत्कृष्ट कोटि का शिल्प और स्थापत्य देखने लायक हैं। दीवारों, खम्भों आदि पर सुंदर कारीगरी दृष्टिगोचर होती है। वहां के मंदिरों में लकुलीश संप्रदाय के चिह्न भी देखने को मिलते हैं। इसी तरह के शिवालय यहां कई हैं जो पुरातत्व की अनमोल धरोहर हैं।
डूंगरपुर के पूर्वोत्तर में प्रावाहमान सोमन् नदी के मुहाने देव सोमनाथ का श्वेतप्रस्तर निर्मित तिमंजिला शिवालय कला का अनूठा उदाहरण है और पत्थरों पर टिका यह मंदिर हर दर्शनार्थी को विस्मय में डाल देता है। इस शिवालय को पूर्व में सोलहवीं शताब्दी में बहुत महत्व प्राप्त था, लेकिन कालांतर में समुचित देखरेख के अभाव में यह जीर्णद्ब्रशीर्ण होता गया।
बेणेश्वर का प्राचीन शिवालय माही, सोम और जाखम नदियों के त्रिवेणी संगम स्थल के बीच बने ऊंचे टापू पर अवस्थित हैं जो जनद्ब्रजन की भारी आस्था के कऌद्र के रूप में प्रख्यात हैं। इस मंदिर में प्राचीन शिवलिंग विद्यमान है।
बांसवाडा शहर के पूर्वी छोर पर कागदी नदी के किनारे वनेश्वर शिवोपासकों की श्रद्धा का ख़ास केन्द्र रहा है जिसकी गिनती अति प्राचीन शिवालयों में की जाती है। वनेश्वर क्षेत्रा में वनेश्वर के अलावा नीलकण्ठ और धनेश्वर स्वयं भू शिवलिंग हैं, जिनकी उत्पत्ति दैवीय चमत्कारों से हुई है। देश में शायद ही कोई ऐसा स्थान हो जहां तीन स्वयं भू शिवलिंग हों, वनेश्वर शिवालय इस दृष्टि से बेमिसाल है। यहां बारहवीं शताब्दी का मंदिर था, बाद में सत्राहवीं शताब्दी में जीर्णोदार कर नया स्वरूप प्रदान किया गया। वनेश्वर क्षेत्रा एक मंदिर ही नहीं, बल्कि समूचा धर्म क्षेत्रा है, जहां की लंबे चौड़े परिक्षेत्रा में छोटे-बड़े मिलाकर कोई पचास से ज्यादा देव स्थानक हैं। यहां दो प्राचीन ध्यान स्तूप भी हैं। वनेश्वर जनास्था का भारी कऌद्र रहा है, जहां आने वाले हर भक्तजन की मनोकामना भगवान शिव अवश्य ही पूरी कर देते हैं। इस मंदिर के शिवलिंगों और क्षेत्रा की अनेक विशेषताएं हैं। यहां जलाभिषेक करने पर शिवलिंग से संगीत का उत्फुटन, सारा का सारा पानी भूमि में समा जाना, विभिन्न रंगों के दिव्य सर्पों का होना, पास के प्राचीन स्नानागार का पानी का वर्ष में अनेक बार रंग बदलना आदि प्रमुख हैं।
यहां पहले श्मशान घाट था, इस कारण इस क्षेत्रा में घूसते ही हर किसी को असीम आत्मतोष का अनुभव होता है। यहां रोजाना दर्शनार्थियों का जमघट लगा ही रहता है। वर्ष भर यहां धार्मिक अनुष्ठानों की गूंज बनी रहती है। बांसवाड़ा शहर के त्रायम्बकेश्वर शिवालय को भी बड़ी ख्याति प्राप्त है और यह प्राचीन शिवालयों में गिना जाता है। यहां का शिवलिंग भूगर्भगृह में है व स्वयंभू है। इस मंदिर में काफी शीतलता है।
मंदिर के बाहर स्थित मूर्तियां, खंभों आदि का शिल्प बेहद सुंदर है। इसका जीर्णोर पंद्रहवीं शताब्दी के आसपास त्रायम्बक नामक ब्रह्मण द्वारा कराया गया।
बड़ोदिया के निकट सुरम्य पर्वतीय आंचल में स्थित घोटिया आंबा जगप्रसि है, जहां पाण्डवों ने अपना वनवास बिताया और ऋषियों को भोजन कराया था। महाभारतकालीन युग से संबे घोटिया आंबा तीर्थ पर घोटेश्वर महादेव का पौराणिक एवं प्राचीन मंदिर है, जो एक पहाड़ी पर बना हुआ है। इसमें शिव पार्वती, नंदी के अलावा कुंती, द्रोपदी एवं पांच पाण्डवों की मूर्तियां स्थापित हैं।
डूंगरपुर जिले के ठाकरडा गांव स्थित सिनाथ महादेव और बांसवाड़ा जिले के परतापुर कस्बे के निकट भगोरा में स्थापित भगोरेश्वर महादेव की ख्याति दूरद्ब्रदूर तक मनोकामनापूर्ति करने वाले देवता के रूप में है। दूरद्ब्रदूर से दर्शनार्थी यहां आकर मनौतियाँ लेते हैं। बांसवाड़ा शहर का भगोरेश्वर महादेव मंदिर जनास्था का धाम है। यहां के शिवलिंग के बारे में बताया जाता है कि इसकी उत्पत्ति भगौने में से हुई है।
वागड़ क्षेत्रा के पाड़ी स्थित रामेश्वर पुत्रा देने वाले शिव के रूप में प्रसिे हैं। यहां हर ओर सैकड़ों शिवालय हैं, जिनमें सलाखडेश्वर, संगमेश्वर, जगमेश्वर, क्षीरेश्वर, गवरेश्वर, मदारेश्वर, कपालेश्वर, ताम्बेश्वर, राज राजेश्वर, अंकलेश्वर, धोरेश्वर, नीलकण्ठ, गुप्तेश्वर, पातालेश्वर, मंगलेश्वर, गोकर्णेश्वर, पारसोलिया महादेव, वनाला या वख्तेश्वर, घंटालेश्वर, भैरवानन्देश्वर, अर्केश्वर, केदारेश्वर, गौतमेश्वर, मनकामेश्वर, मण्डलेश्वर आदि प्रमुख हैं।
इस अंचल में बड़ेद्ब्रबड़े मेले शिवालयों पर ही लगते हैं। शिवरात्रि और श्रावस मास के दौरान तो वागड़ का चप्पा-चप्पा शिवमय हो उठता है और शिवालयों से जय शिव ओंकार...अथवा जय गंगाधर हर शिव... की आरतियों की गूंज रह रहकर वातावरण को दिव्य बनाती है। श्रावण मास में शिव अनुष्ठानों की धूम मची रहती है।
शिव कल्याण करने वाले हैं और समूचा वागड़ अंचल अपने में शिवालयों को समाये सर्वत्रा शिव के कल्याण मूलमंत्रा का उपदेश देता दिखायी देता है।