Friday, November 19, 2010

सफाई न दें, सफाई करें





सचमुच लंबा वक्त हुआ, जब किसी ने सत्तारूढ़ पार्टी की तारीफ की होगी। घोटाले के आरोपियों से इस्तीफे लेने के लिए कांग्रेस थोड़ी-सी प्रशंसा की हकदार है। लेकिन इसे किसी भी रूप में सजा नहीं माना जा सकता। इस्तीफे महज एक अच्छा पहला कदम हैं। इन इस्तीफों के साथ नैतिकता और शुचिता के ऊंचे दावे किए जा रहे हैं, जो नितांत झूठे हैं। इस्तीफे इस बात की स्वीकारोक्ति हैं कि वास्तव में कुछ गलत हुआ है।

इस्तीफे लेने का यह मतलब भी है कि सत्तारूढ़ पार्टी मानती है कि अपने भविष्य की खातिर वह मीडिया के दबाव और जनाक्रोश से उदासीन नहीं रह सकती। राजनेताओं को अहसास हो चुका है कि घोटाले महज ऐसा विषय नहीं रहे, जिनके बारे में अंग्रेजी समाचार चैनलों पर हमारे बौद्धिक कुलीन बहसें करते हैं, बल्कि इस बार घोटाले मुख्यधारा का विषय बन गए हैं।

छोटा-सा उदाहरण देखिए। पिछले हफ्ते मैं उत्तर भारत के एक साधारण-से रेस्त्रां में था। जब वेटर बिल लेकर आया, उसने कहा कि छोटे-मोटे चोरों को जेल में डाल दिया जाता है, पर करोड़ों लूटने वाले नेताओं का बाल भी बांका नहीं होता। वह न तो स्पेक्ट्रम एलोकेशन के बारे में जानता था, न मनी लॉन्ड्रिंग के। मगर इतना वह जरूर जानता था कि सत्ता के शिखर पर बैठे कुछ लोग करोड़ों-अरबों की धनराशि लूट रहे हैं। पिछले महीने मैंने करीब दर्जन भर टैक्सी ड्राइवरों से बात की।

उनमें से दो-तिहाई कम से कम एक बड़े घोटाले और उसमें शामिल लोगों के बारे में जानते थे। ये मामूली और अवैज्ञानिक प्रमाण हैं पर बहुत कुछ कहते हैं। पिछले कुछ महीनों से मीडिया पर बार-बार आने वाली घोटाले की खबरें आखिरकार आम आदमी की चेतना को मथने लगी हैं। कहना मुश्किल है कि इनसे गांव का मतदाता किस हद तक प्रभावित हुआ है या नहीं हुआ है, लेकिन विशाल मध्यवर्ग को समझ में आ गया है कि आखिर क्या चल रहा है।

दरअसल घोटालों ने चैनलों को रोचक व जानदार कहानियां दे दी हैं और उन्हें टीवी पर देखना काफी मनोरंजक हो गया है। उन्हें देख रहा एक भी दर्शक ऐसा नहीं मानता कि आरोपी नेता असल में निदरेष है। फिर भी उसे हरसंभव तरीके से अपना बचाव करते हुए देखकर दर्शक मजा लेता है। इन तरीकों में सुस्त न्याय प्रणाली, जी-हुजूर जांच एजेंसियां, दूसरों पर दोष मढ़ना और बीते जमाने की सरकारी शब्दावली शामिल है, जो अब बेमानी है। यह क्लासिक रियलिटी टीवी है जिसमें हम आरोपी की 72 इंच चौड़ी मुस्कान, डींग व अकड़ देखते हैं, जबकि उनके अपराध के सबूत सारी दुनिया देख चुकी होती है।

इसका सबसे अच्छा हिस्सा उनकी ढिठाई है, जब वे कहते हैं कि ‘मैं क्यों इस्तीफा दूं?’ हालांकि यह पक्का संकेत होता है कि यह आदमी जल्दी ही ठीक यही करने वाला है। कुछ वर्ष पहले इराकी सूचना मंत्री को याद कीजिए, जो टीवी पर इराकी फतह का दावा कर रहे थे, जबकि ठीक उनके पीछे हम अमेरिकी टैंकों को आगे बढ़ता देख रहे थे। खाड़ी जंग का यह सबसे मनोरंजक प्रहसन था। कांग्रेस ने बचाव की मुद्रा से अपनी मुश्किलें और बढ़ा लीं। जितना वे इनकार करते, उतना ही न्यूज स्टोरी को हवा मिलती, देखने में मजा आता, टीआरपी बढ़ती जाती, जब तक कि चींटी अंतत: मीडिया के तवे पर पककर हाथी नहीं बन जाती।

तो क्या मीडिया की लपलपाती लपटों को बुझाने के लिए इस्तीफे काफी हैं? ऐसा पहले हुआ करता था, पुराने भारत में, जिसमें हम बड़े हुए। आज के वक्त में यह काफी नहीं है। एक मिसाल लें : एक हत्यारे ने एक आदमी को गोली मार दी। पकड़े जाने पर उसने कहा कि वह अपनी बंदूक सरेंडर कर रहा है। या फिर उसने कहा कि वह बंदूक अपने दोस्त को दे देगा।

क्या भारतीय राजनेताओं को भी इसी तरह सजा नहीं दी जाती? दूसरी मिसाल : एक आदमी अपनी बीवी को पीटता है। पकड़े जाने पर कहता है, चलो ठीक है, मैं कमरे से बाहर चला जाता हूं। क्या इससे वह सुधर जाएगा? क्या इससे पत्नी को पीटने वालों को भविष्य में कठोर संदेश मिलेगा? इस्तीफे पुराने भारत के नावाकिफ चेहरों को संतुष्ट कर सकते थे, जो दूरदर्शन जैसी सरकारी पीआर एजेंसियों को देखा करते थे और उससे ज्यादा जिन्हें कुछ पता नहीं होता था। अब दुनिया बदल गई है।

युवा पीढ़ी अपराध के लिए जुबानी जमाखर्च और असली सजा का फर्क जानती है और मीडिया भी उसे याद दिलाता रहता है। अगर सत्तारूढ़ पार्टी दोषियों को सजा नहीं देती है, तो इस्तीफों का उलटा असर होगा। बड़े नेताओं को सलाखों के पीछे डालना कठिन हो सकता है। मुमकिन है ऐसा सोचना भी दुश्वार हो। लेकिन कोई दूसरा रास्ता नहीं है। इसके लिए कांग्रेस को तीन मुश्किल कदम उठाने होंगे। सबसे पहले उसे तय करना होगा कि पार्टी में कौन-कौन से नेता भ्रष्ट हैं और कौन ईमानदार। पार्टी खुद यह काम करे, वर्ना मीडिया करेगा। दूसरे, पार्टी मंत्रिमंडल के पुनर्गठन सहित सत्ता के ढांचे का कायापलट करे और केवल ईमानदार नेताओं को बागडोर सौंपे। तीसरे, जब सत्ता ईमानदार नेताओं के हाथों में होगी, तो जो लोग सबसे ज्यादा भ्रष्ट दिखाई दे रहे हैं उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करना आसान होगा। यह कार्रवाई दरअसल प्रतिष्ठा बहाली का अवसर हो सकती है। कांग्रेस अपने प्रति जितनी कठोर हो सकती है, कोई भी बाहरी एजेंसी नहीं हो सकती। इसलिए उसे भारत को भ्रष्टाचार से मुक्त करने का बीड़ा उठाना चाहिए। अगर यह काम वह दक्षता से करे तो इसका पूरा श्रेय उसे मिलेगा।

मौजूदा हालात में ऐसा करना ज्यादा ही कठिन हो, तो समझदारी इसी में है कि सरकार को गिर जाने दें, आमूलचूल सुधार के कदम उठाएं, पार्टी की पूरी सफाई करें और फिर चुनाव जीतकर दोबारा आएं। सत्ता में होना विशेषाधिकार है, लेकिन यह बोझ भी है। एक घायल वेटलिफ्टर को वजन नीचे रखकर अपने को संभालना और फिर वजन उठाना होता है। भ्रष्ट साथियों की मदद से सत्ता पर पकड़ बनाए रखना अब सुरक्षित नहीं रह गया है। घोटाले का कलाबाज हर मंत्री टाइम बम की तरह फटने का इंतजार कर रहा है। ऐसे हरेक धमाके से पार्टी की प्रतिष्ठा को जो धक्का लगेगा, उसकी भरपाई बरसों में हो पाएगी। अपनी सफलता से खुश मीडिया अगले घोटाले के पीछे शिकारी कुत्ते की तरह पड़ा होगा।

अंत में एक बात विपक्षी दलों से। भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट अभियान चलाकर वे बिल्कुल सही कर रहे हैं। अलबत्ता हर मौके पर उन्हें पूरी कांग्रेस को कठघरे में खड़ा नहीं करना चाहिए। उन्हें दोषी लोगों को सजा दिलवाने पर फोकस करना चाहिए। जैसे आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता, वैसे ही भ्रष्ट राजनीतिज्ञ की कोई राजनीतिक पार्टी नहीं होती। यही वह रवैया है जिसकी भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए जरूरत है। अगर सभी पार्टियां, मीडिया और हम, भारत के लोग अपनी भूमिका सही ढंग से निभाएं, तभी देश को इस बुराई से स्वच्छ करके निकाला जा सकता है। आइए हम अगली पीढ़ी के लिए बेहतर भारत छोड़ें ताकि उनके बच्चे कह सकें कि हां, घोटाले कोई ऐसी चीज थे जिसके बारे में हमारे पितामह बात किया करते थे।

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