Friday, November 12, 2010

गरीबों को देशनिकाला

हर सुबह काम पर जाते वक्त मेरे रास्ते में झुग्गी-झोपड़ियां पड़ती हैं। मुझे दिखाई देते हैं मिट्टी की दीवारों और प्लास्टिक व टीन की छतों वाले छोटे-छोटे अस्थायी घर। इन घरों में कचरा बीनने वाले भी रहते हैं तो चाकरी करने वाले भी। गलियों में फेरी लगाने वाले भी रहते हैं तो रोज कुआं खोदने और रोज पानी पीने वाले मेहनतकश भी।

बसाहट के बुरे हाल हैं। बिजली के तार खतरनाक ढंग से यहां-वहां लटके हैं और खुली नालियां मैले और गंदगी से पटी पड़ी हैं। महिलाएं और पुरुष सार्वजनिक नलों के नीचे बारी-बारी से नहाते हैं। मैले-कुचैले अधनंगे बच्चे हंसते-खिलखिलाते फुटपाथ पर खेलते हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं, जिनके कंधों पर उनके शरीर से भी बड़े आकार के प्लास्टिक के थैले टंगे हैं, जिनमें वे कचरा भरते हैं। इनमें से बहुत कम ऐसे हैं, जो पढ़ाई करने स्कूल जाते हैं।

दिल्ली समेत देश के सभी महानगरों में इस तरह के नजारे आम हैं। लेकिन कुछ दिनों पहले एक सुबह मैं यह देखकर हैरान रह गया था झुग्गियां कहीं भी नजर नहीं आ रही थीं। उनके स्थान पर मुझे दिखाई दे रहे थे भड़कीले बैंजनी-नीले रंगों वाले पोस्टर, जिन्हें बांस के सहारे खड़ा किया गया था।

पोस्टरों पर बाघ के शावक की तस्वीर थी। यह शेरा था : दिल्ली के कॉमनवेल्थ खेलों का शुभंकर। मैं समझ गया कि इन पोस्टरों को एक रणनीति के तहत यहां लगाया गया है ताकि झुग्गी झोपड़ियां उनके पीछे छिप जाएं और वे किसी को नजर न आएं। मुझे बड़ी शर्मिदगी महसूस हुई।

फुटपाथ, ट्रैफिक सिग्नल और झुग्गियों में गरीबों को देखकर अक्सर मेरा मन अफसोस, गुस्से और तकलीफ से भर जाता है। लेकिन मुझे कभी शर्मिदगी का अहसास नहीं हुआ। मानसून की शामों को जब मैं प्लास्टिक की चादर तले बच्चों को भीख मांगते देखता हूं तो मेरा मन उदास हो जाता है।

इन बच्चों को स्कूल में होना चाहिए था। मुझे इस पर गुस्सा आता है कि हमने कभी भी अपने शहरों की योजना इस तरह नहीं बनाई कि उसमें गरीबों के रहने के लिए भी जगह हो। मुझे तकलीफ इस बात से होती है कि हमारे योजना निर्माताओं और नेताओं की वरीयता में यह तबका शामिल नहीं है। लेकिन मुझे कभी शर्मिदगी का अहसास नहीं हुआ। मुझे शर्म तब आई, जब मैंने शेरा का वह पोस्टर देखा। मुझे अपनी सरकार पर शर्म आई कि वह अपने गरीब नागरिकों पर शर्मसार है।

अलबत्ता दिल्ली से गरीबों को दरकिनार करने के सरकारी प्रयास इससे बहुत पहले शुरू हो गए थे। खेलों के आयोजन से पहले सरकार 350 झुग्गी बस्तियों को हटा चुकी थी। अंग्रेजों के जमाने की याद दिलाने वाले भिक्षावृत्ति निरोधक कानून लागू कर दिए गए, ताकि हजारों गरीब-गुरबों को जेलों से भी बदतर भिक्षुक गृहों में भेजा जा सके।

यह कानून गरीबों को अपनी पैरवी करने का बहुत कम मौका देता है और उन्हें गंदे और उजाड़ भिक्षुक बंदीगृहों में दस साल तक की अवधि तक रहने को मजबूर कर देता है। लेकिन काम की धीमी गति से अधीर होकर सरकार ने आठ मोबाइल कोर्ट स्थापित कर दीं। इसके तहत मजिस्ट्रेट खुद उन स्थानों पर जाते, जहां लोग कथित रूप से भीख मांगते थे।

गंदे और मैले-कुचैले लोगों को एक जगह एकत्र कर दिया जाता और किसी न्यायाधीश द्वारा उन्हें तत्काल सजा सुना दी जाती, जो खुद ही गवाह भी थे, अभियोजक भी थे और निर्णायक भी। पिछली सर्दियों में सरकार ने बेघरबारों के आश्रय स्थलों की तादाद भी कम कर दी। नतीजा यह रहा कि बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर दम तोड़ने लगे। आखिरकार सर्वोच्च अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा।

जैसे-जैसे खेलों के आयोजन की तारीख नजदीक आने लगी, पुलिस गरीब-गुरबों को सार्वजनिक पार्को में बने कैम्पों में एकत्र करने लगी। एक बार फिर उन्हें पोस्टरों से ढांप दिया गया। उन्हें यह दिलासा दिया जाता रहा कि खेलों के आयोजन के दौरान उनके रहने और खाने का इंतजाम किया जाएगा। लेकिन इसके स्थान पर उन्हें भेड़-बकरियों की तरह ट्रकों और ट्रेनों में लादकर शहर छोड़ने को मजबूर कर दिया गया।

पुलिस भी झुग्गी-झोपड़ियों पर टूट पड़ी और वहां रहने वालों को ‘सलाह’ दी कि वे खेल खत्म होने यानी १७ अक्टूबर तक शहर में न दिखाई दें। केवल उन्हीं गरीब-गुरबों को रहने की ‘इजाजत’ दी गई, जिनके पास अपने ‘आइडेंटिटी कार्ड’ थे।

बेचारे लोग हैरान-परेशान-से पुलिस थानों के बाहर कतार लगाकर खड़े रहे ताकि अपनी पहचान का कोई सबूत जुटा सकें, लेकिन नतीजा सिफर। आखिरकार इनमें से बहुतेरों को अपना शहर और आजीविका छोड़कर जाने को मजबूर होना पड़ा।

लेकिन जब इतने प्रयासों के बावजूद शहर को गरीबों से पूर्णत: मुक्त नहीं किया जा सका, तो अफसरों ने योजना बनाई कि गरीबों की बस्तियों के आगे बांस रोप दिए जाएं, ताकि उन्हें राहगीरों की निगाहों से छुपाया जा सके। गरीबों को शहर की गैरकानूनी और नाजायज आबादी समझा जाता है।

हमारे संविधान ने अपने नागरिकों को देश के किसी भी हिस्से में जाकर रहने और काम करने का अधिकार दिया है। फिर भी हाल ही के एक मामले में अदालत का यह स्पष्ट मत था कि जो लोग दिल्ली में रहने का खर्च वहन नहीं कर सकते, उन्हें यहां आकर नहीं बसना चाहिए।

दिल्ली के मध्य वर्ग में से एक बड़ा हिस्सा प्रवासियों का है, लेकिन कोई भी उनसे शहर छोड़कर जाने को नहीं कहता। गरीबों को शहर पर एक बोझ की तरह देखा जाता है लेकिन इस बात की अनदेखी कर दी जाती है कि ये गरीब ही शहर को बनाने, घरों की सफाई करने, कचरे का निस्तारण करने और खुदरा वस्तुओं की आपूर्ति करने के लिए सस्ती और सुलभ श्रमशक्ति की भूमिका निभाते हैं।

अगर ये गरीब न होते तो मध्य वर्ग के लिए अपनी जीवन शैली का निर्वाह करना नामुमकिन होता। सरकारें भी दावा करती हैं कि शहरों की सुरक्षा के लिए गरीबों को शहरबदर करने की जरूरत है, लेकिन मैंने आज तक किसी ऐसे आतंकवादी के बारे में नहीं सुना, जो बेघर था। आखिर वह अपने आरडीएक्स और बम कहां छुपाएगा?

सरकार को गरीबों पर इसलिए शर्म आती है, क्योंकि वे गंदे और मैले-कुचैले हैं, लेकिन उनके सामने और कोई विकल्प भी तो नहीं है। यह सरकार की नाकामी है कि वह गरीबों को आवास मुहैया नहीं करा पाई। अनेक अध्ययन बताते हैं कि झुग्गी झोपड़ियों में स्थानीय निकायों द्वारा कोई सेवाएं नहीं प्रदान की जाती हैं।

ऐसे में शर्म की बात यह नहीं है कि गरीब गंदे हैं, बल्कि यह है कि सरकार ने उन्हें इसी तरह रहने को मजबूर कर दिया है। सरकार और उसके अधिकारियों की कल्पनाओं का शहर वह है, जो गरीबों से मुक्त हो। लेकिन क्या हम इससे ज्यादा मानवीय कल्पना नहीं कर सकते? क्या हम किसी ऐसे शहर की कल्पना नहीं कर सकते, जिसमें गरीबी को देशनिकाला दिया गया हो, गरीबों को नहीं?

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