Sunday, November 28, 2010

अमेरिका की स्वतंत्रता और भारत का धर्म



नजरिया . ताकत हासिल कर लेना एक बात है और उसका इस्तेमाल करना दूसरी। पिछले दिनों जब दिल्ली में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और भारत के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की भेंट हुई तो यह दो निराश नेताओं की भेंट थी। ओबामा जहां अमेरिका में मध्यावधि चुनावों में नाटकीय हार से हैरान थे, वहीं मनमोहन सिंह एक के बाद एक हो रहे घोटालों के खुलासों से परेशान थे।

लगता है ये दोनों नेता उस बुनियाद को भूल गए, जिस पर उनके देशों के लोकतंत्र का निर्माण हुआ। जिस तरह स्वतंत्रता के विचार के बिना अमेरिका की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी तरह धर्म के बिना भारत को समझना मुश्किल है। ओबामा यात्रा अंत में ओबामा और मनमोहन दोनों के लिए सुखद साबित हुई, लेकिन इन दोनों को अपने आदर्शो में पुन: विश्वास प्राप्त करने के लिए अभी काफी काम करना होगा।

अमेरिका में रिपब्लिकनों की जीत के सूत्रधार जॉन बोएनर ने ओबामा के बारे में कहा है कि उन्होंने उन मूल्यों को नजरअंदाज करने की भूल की, जिनकी बुनियाद पर अमेरिका का निर्माण हुआ था : आर्थिक स्वतंत्रता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजी उत्तरदायित्व।

इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि बोएनर महोदय सही हैं या गलत, लेकिन आधा अमेरिका तो यही मानता है। हर देश अपने आपमें एक ‘कल्पित समुदाय’ होता है, जिसका निर्माण इस आधार पर होता है कि उसके मतदाता क्या ‘कल्पना’ कर रहे हैं।

अमेरिकी अपने देश को अवसरों और उद्यमशीलता की धरती के रूप में देखते हैं। यह यूरोपीय शैली के कल्याणकारी राज्य की धारणा नहीं है। आलोचक कहते हैं कि समानता को अर्जित करने की कोशिश में ओबामा स्वतंत्रता को भूल गए।

भारत में धर्म की महत्ता इतनी है कि राष्ट्रीय ध्वज में धर्म चक्र को केंद्रीय स्थान दिया गया है। कांग्रेस पार्टी अब भी इस बात को समझ नहीं पा रही है कि एक के बाद एक हो रहे घोटालों ने उसे कितना नुकसान पहुंचा दिया है। लोग तत्काल यह सवाल पूछते हैं : ‘सार्वजनिक जीवन में धर्म का स्थान अब क्या रह गया है?’

यह इसलिए दुखद है कि साफ छवि का होने के बावजूद प्रधानमंत्री इस स्थिति को टाल नहीं सके, जबकि मतदाताओं ने बड़ी उम्मीदों के साथ उन्हें वोट देकर सत्ता सौंपी थी। भारतीयों के मन में एक शासक की कल्पना यह है कि वह धर्म द्वारा संचालित होता है।

यहां धर्म से अर्थ संप्रदाय से नहीं है। 19वीं सदी में जब कलकत्ता में ईसाई मिशनरियों ने दावा किया कि यीशु का पथ ही सच्चा धर्म है, तो हिंदुओं ने उत्तर देते हुए कहा था कि उनका धर्म सनातन यानी शाश्वत है। सार्वजनिक धर्म से आशय है सत्कार्य करना।

हालांकि भारत और अमेरिका की आर्थिक स्थितियां काफी भिन्न हैं, लेकिन फिर भी उनकी समस्याओं के समाधान मिलते-जुलते हैं। अमेरिका एक समृद्ध देश है, लेकिन फिलवक्त वह नौकरियों की किल्लत से जूझ रहा है। अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ लोग सेवा क्षेत्र में काम करना चाहते हैं और वहां उद्योगों का आधार तेजी से घट रहा है।

भारत गरीब, लेकिन तेजी से बढ़ता हुआ देश है। अमेरिका की ही तरह भारत की उच्च विकास दर के लिए भी उसका सेवा क्षेत्र ही जिम्मेदार है। लेकिन अपनी विकास दर के उत्साह में हम यह भूल जाते हैं कि हमारे यहां अभी भी औद्योगिक क्रांति नहीं हुई है।

केवल ‘लो-टेक’, श्रम केंद्रित उद्योगों के जरिये ही ग्रामीण आबादी के लिए नौकरियां सृजित की जा सकती हैं। भारत और अमेरिका दोनों के लिए जरूरी है कि उसके सर्वश्रेष्ठ और प्रतिभाशाली लोग नौकरियों की चकाचौंध से ध्यान हटाकर उद्योग क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करें।

रोजगार गारंटी योजनाओं के जरिये फर्जी नौकरियां सृजित करने के बजाय भारत को निजी एंटरप्राइजों के मार्फत रोजगार के अवसर पैदा करने की जरूरत है। इसके लिए श्रम कानूनों में सुधार की जरूरत है। भूमि अधिग्रहण कानून पास किया जाना चाहिए। घूसखोरी को बढ़ावा देने वाले और उद्यमियों को हतोत्साहित करने वाले ‘इंस्पेक्टर राज’ को खत्म करना चाहिए।

पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के जरिये बड़े पैमाने पर कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने की जरूरत है। हमारी वर्तमान विकास दर से हम केवल पांच से सात हजार डॉलर प्रति व्यक्ति आय के स्तर तक पहुंच सकते हैं। अगर हमने प्रशासन का स्तर नहीं सुधारा और औद्योगिक क्रांति की राह नहीं चुनी तो बहुत संभव है कि भारत का विकास अनेक लातिन अमेरिकी देशों की तरह अवरुद्ध होकर रह जाए।

ओबामा की तरह हमें प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा। ओबामा अमेरिका के पहले डेमोक्रेट राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने कहा कि यदि शिक्षक बच्चों को सफलता का प्रशिक्षण नहीं दे सकते तो उन्होंने निकाल बाहर कर दिया जाना चाहिए। भारत में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति अमेरिका की तुलना में कहीं बदतर है।

हमारे हर चार सरकारी प्राथमिक स्कूलों में से एक में शिक्षक या तो स्कूल से नदारद रहते हैं या पढ़ाने से कन्नी काटते हैं। फिर भी हमारा शिक्षा का अधिकार कानून चुप्पी साधे हुए है। हमारे नेताओं को ‘शिक्षक के धर्म’ के बारे में भी बात करनी चाहिए।

ओबामा यात्रा सफल रही और उसके बाद भ्रष्टों को बाहर का रास्ता दिखाने का सिलसिला भी शुरू हुआ, लेकिन वास्तविक कार्य तो अभी प्रारंभ ही हुआ है। सार्वजनिक जीवन में धर्म की प्रतिष्ठा करने के लिए मनमोहन सिंह को ठोस कदम उठाने होंगे। अधिकारियों को विश्वसनीय बनाने के लिए सिविल सेवा की प्रणाली में सुधार करने होंगे।

खतरनाक खाद्य सुरक्षा विधेयक को रोकना भी जरूरी है, जो हमारे इतिहास का सबसे बड़ा घपला साबित हो सकता है। केवल तभी धर्म की रक्षा हो सकेगी और भारत वास्तव में दुनिया की ‘महाशक्ति’ बन पाएगा

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