Friday, February 18, 2011

बात आस्था की ............................

गुरू गोबिंद सिंह ने वैसाखी पर की थी खालसा पंथ की साजना
साहिब-ए-कमाल, सरबंस बलिदानी, महान योद्धा, उच्च के पीर व कविश्रेष्ठ दशम पातशाह गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 में वैसाखी के दिन खालसा पंथ की साजना कर उस दौर के प्रताडि़त भयग्रस्त और भ्रमित समाज को संगठनात्मक व वैचारिक तौर पर एकता की डोर में बांधने का एक ऐसा अद्वितीय कार्य किया, जिस सी मिसाल आज विश्व के किसी इतिहास में ढूंढे नहीं मिलती। खालसा शब्द से बना है खालसा जिसका अर्थ है शुद्ध अर्थात ऐसे लोग जिनका आचरण और जीवनचर्या पाक-साफ हो। गुरु जी फरमाते हैं-खालसा मेरो रुप है खास, खालसे में हौं करों निवास। यह दशम गुरु की अज़ीम शख्सियत का ही करिश्मा था, कि जिसने एक ही दिन में श्रीआनंदपुर साहिब के निकट श्री केसगढ़ साहिब में जुटी लगभग 60 हज़ार लोगों की भीड़ की मानसिकता और जीवनशैली को पूर्णरुपेण क्षण में धराशायी हो गईं और कायरता सूरमताई में बदल गईं। सिक्खों का खालसा में रुपांतरण हुआ। गुरुजी वैसाखी के इस अवसर पर नंगी तलवार लिए जनसमूह के समक्ष आए और कहा कि यह तलवार आज कुरबानी की मांग करती है। भीड़ में सन्नाटा छा गया। तब गुरुजी के फिर गर्जना की और वचन दोहराए। तभी लाहौर के खत्री जाति के भाई दया राम सामने आए और उन्होंने अपना शीश झुका कर गुरुजी के समक्ष पेश कर दिया। गुरुजी दयाराम को एक तंबू के अंदर ले गए और थोड़ी देर बाद खून से सनी तलवार के साथ बाहर आए और एक और बलिदान की मांग की। इस बार हरियाणा के धर्मदास नामक जाट ने खुद को कुरबानी के लिए पेश कर दिया। इसी प्रकार गुजरात के मोहकम चंद, उड़ीसा से आए जगन्नाथ तथा कर्नाटक के साहिब चंद ने हिम्मत दिखाते हुए गुरुजी के चरणों में शीश भेंट करने की पेशकश की। थोड़ी देर बाद गुरुजी उन पांचों को संगत के समक्ष लेकर आए। पांचों सुंदर परिधानों व अस्त्र-शस्त्र से ंसुसज्जित थे। गुरु जी ने स्वयं उन्हें खंडे के पाहुल यानी अमृत का पान कराया और फिर उन्हीं से खुद अमृत छका। गुरुजी ने संगत के समक्ष उन्हें-पंज प्यारों के संबोधन से सम्मानित किया। उन्होंने कहा-खालसा अकाल पुरख की फौज-मतलब खालसा परमात्मा का सैनिक है। उन्होंने ताकीद की कि जो लोग खालसा बनना चाहते हैं, वह अमृत छकें, पुरुष अपने नाम के साथ सिंघ शब्द का इस्तेमाल करें और महिलाएं नाम के पीछे कौर लगाएं, जिसके कारण उनकी जाति का बोध न हो पाए। खालसा की वेषभूषा और स्वरुप ऐसा हो, जिससे उसकी एक अलग पहचान बनें। उन्होंने पांच ककारों केश, कँघा, कड़ा, कृपाण व कच्छा धारण करने की हिदायत दी। उन्होंने संदेश किया-एक पिता एकस के हम बारक-अर्थात सभी मानव एक पिता की संतान हैं, अत: धर्म जात-पात के आधार पर किसी से नफरत न करो। गुरुजी ने वैसाखी के दिन जो संदेश दिया है, आज उसके महत्व को गहरे में समझने-समझाने की जरुरत है। जब हम मानवीय मृल्यों के विभिन्न आयामों तथा विभिन्न पहलुओं का गहन मंथन करें, तो जो सच्चाई सामने आती हैं, वह यह है कि मानवीय मूल्यों को न तो कभी समय तब्दील कर सकता है और न ही समाज। मूल्य तो सनातन सत्य हैं। आज फिर मनुष्य इन मूल्यों का तिरस्कार कर जो अमानवीय कृत्य करने लगा है, उस संदर्भ में आज पुन: वैसाख 1699 की पांच प्यारे साजना के समय धारण किए गए वचन को जागृत करने की परम आवश्यकता है। वैसे समूचे भारत में अलग-अलग रुप में मनाया जाने वाला बैसाखी पर्व ऐसा त्यौहार है, जो वास्तव में धार्मिक पर्व होने के साथ-साथ एक नववर्ष व फसल पर्व भी है। पंजाब में यह अति महत्वपूर्ण त्यौहार है और नानकशाही कैलंडर के शुुरुआत का प्रथम दिन है। इस दिन श्री स्वर्णमंदिर साहिब अमृतसर में भारी संख्या में संगते जुड़ती हैं और दीवान सजते हैं। केरल में इसे विशुकनी और असम में रोगाली बिहू त्यौहार के नाम पर मनाया जाता है। बिहार में इसे वैशाख कहा जाता है और इस दिन सूर्यपूजा की जाती है, तथा हिमाचल में ज्वालादेपी का पूजन किया जाता है। उड़ीसा पश्चिम बंगाल और नेपाल में भी इसे नववर्ष के रुप में मनाया जाता है। इस दिन तीर्थाटन और गंगा स्नान का भी विशेष महत्व बताया गया है। वैसाखी के दिन सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, इसलिए इसका एक अलग ज्योतषीय महत्व भी है।
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बैसाखी का करिश्मा
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करीब तीन सौ साल पहले की बात है, सुनहरी लहरहाती फसलों पर गेहूं के यौवन मोती झिलमिलाते हुए आसमां की ऊंचाईयों को छू रहे थे। गुरू गोबिंद सिंह जी ने गेहूं की भांति यौवन पर पहुंची जीवन लहर को अमर करने के लिए अमृत पिलाया ताकि मौत कभी भी उसको मार न सके। हाथ में तलवार पकड़ाई जिससे वो लोक शक्तियों के विरोधी तत्वों को मौत के घाट उतार सकें। दिन बैसाखी का था, गुरू गोबिंद जी ने प्रतिज्ञा दुहराई कि अब वक्त आ गया है कि, साधारण जानी जाने वाली जाति के लोगों को सिंहासन पर बैठाया जाए और उन्हें सरदार बनाया जाए। बातें वो बनीं जो जनता का पैंगबर चाहता था। मगर, जिन्दगी को इस तरह टिकाव दिया गया कि मुरझाई हुई कलियां खिल उठीं। धर्म का सहारा लेकर समाज को खोखला कर रही ता$कत को जोर से गिराया गया और फिर कलगियों वाले ने सयं सिखों को सिरों पर कलगियां सजाईं। यह सुन्दर रूप देखकर खुद गुरू जी की आत्मा मुस्कुराई और गुण गाने लगी-
खालसा मेरे रूप है खास
खालसे मेहि होउं करूं निवास
गुरू गोबिंद सिंह जी ने खुद खालसे का रूप धारण किया और पांच प्यारों द्वारा अमृत छका। यह गुरू-चेले करिश्मा सचमुच ही वाह-वाह करने योग्य था। ''वाहो-वाहे गुरू गोबिंद सिंह आपे गुरू चेला।" गुरू जी की इच्छा थी कि जिन्दगी भर गुरू गद्दी धरती के सरदार को सौंपी जाये। ऐसा न हो कि धरती के लोग हमेशा आसमान से उतरने वाले पीरों और अवतारों के इंतजार में समय व्यर्थ गवां दें। इसीलिए मनुष्य के अन्दर के भगवान को जगाया। उन्होंने दुनिया के सामने स्पष्ट किया कि मुझे जीती जागती अमर जनता की सेवा पसंद है। मेरे पास जो कुछ भी दौलत है वो खालसे को समर्पित है। मैंने इस खालसा (शक्ति) के जरिये सभी युद्ध जीते और शैतानी ताकतों को हराया। यह कलयुग के महान गुरू गोबिंद सिंह जी के शब्द थे और यही गरीब निवाज सतगुरू जी की वैसाखी का अद्वितीय करिश्मा भी था।
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बहुत ही पवित्र दिवस है गुड फ्राइडे
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विश्वभर में रहने वाले करोड़ों ईसाई मतावलम्बी गुड फ्राइड को क्षमा पूर्व के रूप में प्रतिवर्ष बहुत भक्तिभाव के साथ एक दु:खी दिवस के रूप में मानते हैं। इसे पवित्र शुक्रवार, काला शुक्रवार और महान शुक्रवार कहा जाता है। इस दिन ईसाई मत के प्रवत्र्तक ईसा मसीह को निर्दोष होने के बावजूद सूली पर चढ़वा दिया गया था। इसके लिए दोषी शासक वर्ग को उन्होंने क्षमता कर देना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। विश्व इतिहास में क्षमा करने का इससे बड़ा अनुकरणीय कोई अन्य उदाहरण नहीं मिलता। ईसा मसीह का जन्म उस समय हुआ जब यहूदियों पर रोमन सम्राट टाइब्रेरियस सीजर का प्रभुत्तव था। यहूदी जनता मोजेज के बताये गये 'टेन कमांडमेंटस' का पालन करती थी। यहूदी समाज बुरी तरह से गुटों में विभाजित था। लोग पुरानी रूढिय़ों और रीति-रिवाजों में जकड़े हुए थे। सर्वत्न बुराईयों का साम्राज्य था। छोटी छोटी बात पर लोग एक-दूसरे का खून कर देते थे। अपनी स्वार्थ पूर्ति ही उनके जीवन का ध्येय था। शासक वर्ग जनता का रक्षक न हो कर शोषक बन गया था। आम जनता के कष्टों का निवारण करने वाला कोई दिखाई नहीं देता था। ऐसी विकट परिस्थितियों में ईसा मसीह का जन्म येरूश्लम में हुआ। जोसेफ और मरियम के पुत्न के रूप में भगवान ने उन्हें मानव के कष्टों का निवारण करने के लिए ही धरती पर भेजा था। ईसा मसीह ने पुरानी व्यवस्था को बदल कर एक नई व्यवस्था को स्थापित करने के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। पवित्र शुक्रवार के दिन ईसा मसीह ने यह सन्देश दिया था प्रतिहिंसा का त्याग करके शत्रुओं से भी प्रेम करना चाहिए। उनके अनुसार ईश्वर की नजर में पापी, अधर्मी और अपराधी सभी बराबर हैं। उन्होंने कहा कि मनुष्य को सबसे साथ एक जैसा व्यवहार करना चाहिए। केवल अपनों को प्यार करना कौन सी बड़ी बात है। बड़ी बात तो तब है जब अपने विरोधियों से प्यार किया जाये। उन्होंने क्रोध और लालच से बचने की शिक्षा दी। वह चाहते थे कि बुराई के बदले भलाई की जाए। वह मानते थे कि हर चीज लौटकर किसी न किसी रूप में आपके पास वापिस आती है। यदि बुराई करोगे तो आपके पास भी बुराई ही आयेगी। उन्होंने पाखंड और झूठे आडम्बर से बचाने का उपदेश दिया। वह चाहते थे कि जलोग दान और परोपकार का मार्ग अपनाएं। ईसा भगवान के पुत्र थे और वह मानव को ईश्वर का भाग ही मानते थे। वे चाहते थे कि व्यक्ति जो अपना सर्वस्व ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए। ईसा मसीह की इन शिक्षाओं से शासक वर्ग का रूष्ट होना स्वाभाविक था। ईसा के सीधे सरल और हृदय को छू जाने वाले विचारों के कारण अधिक से अधिक लोग उनके अनुयायी होने लगे। इससे पुरोहित वर्ग भी उनसे नाराज हो गया। ईसा की शिक्षाएं उन्हें अपने स्वार्थों पर कुठाराघात करती हुई लगती थी। फलत वे उनके विरूद्ध अनर्गल आरोप लगाने लगे। ईसा की आवाज को हमेशा के लिए बंद करने के लिए उन्हें बंदी बना कर उन पर मुकदमा चलाया गया। उन पर धर्म की निंदा करने के आरोप लगाए गए। यह प्रचार किया गया कि वह अपने आपको ईश्वर का पुत्र कहते हैं। अपनी ईश्वर से अपनी बराबरी करते हैं। इतना ही नहीं वह पापियों, वेश्याओं और हत्यारों को एक जैसी नजर से देखते हैं। उनसे मिलते जुलते हैं और उनके साथ संबंध बनाने का प्रयास करते हैं। वास्तव में ईसा के विरूद्ध किसी प्रकार का प्रमाण नहीं था। जो कुछ था वह मिथ्या प्रचार मात्रा ही था। धार्मिक न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी उन्हें निर्दोष मानते थे, परन्तु वह स्वयं निहित स्वार्थों वाले लोगों के दबाव में थे और इसी प्रकार के दबाव में आकर ही उन्होंने ईसा को सूली पर चढ़ाने का निर्णय सुना दिया। यह सबसे कठोर मृत्यु दंड था। इतने कठोर दंड की बात सुन कर उनके शिष्य जुडास को बहुत पश्चाताप करने के लिए उसने आत्महत्या कर ली। ईसा मसीह को दंड सुनाने के बाद बहुत कठोर यातनाएं दी गईं। बाद में उन्हें गुलगुथा नामक पहाड़ पर ले जा कर सूली पर चढ़ा दिया गया। उनके शरीर को एक कब्र में दफना दिया गया। एक भविष्यवाणी थी कि ईसा पुन: जीवित हो जायेंगे। इसलिए उनकी कब्र के द्वार पर एक भारी पत्थर रख दिया गया। रविवार को जब परम्परा के अनुसार महिलायें सूर्य उदय के साथ सुगंधित सामग्री लेकर वहां पहुंची तो उन्होंने देखा कि कब्र का मुह खुला है और कब्र के अन्दर ईसू का शरीर नहीं है। महिलायें वहां से भागती हुई गई और उन्होंने सबको सूचित कर दिया कि ईसा पुन जीवित हो गये हैं। तीसरे दिन प्रभु के पुन: जीवित होने का पर्व ईस्टर के रूप में मनाया जाता है और जिस दिन उन्हें सूली पर चढ़ाया गया था उसे गुड फ्राइडे कहा जाता है। गुड फ्राइडे को उनके सिद्धान्तों का आईना मान कर मनाया जाता है। उस दिन को याद रखने के लिए ईसाई लोग चर्च में जाकर सुबह की पूजा करते हैं। दोपहर में भी वे तीन घंटे चर्च में अराधना करते हैं। विश्वास किया जाता है कि यही वह तीन घंटे का समय है जब ईसा के शरीर को क्रास पर कीलों के साथ ठोक दिया गया था। इस प्रकार यह ईसा का बलिदान का दिन है जिसे पूरी भक्ति, गंभीरता, पूजा पाठ, ध्यान और पवित्रता के साथ मनाया जाता है। इसके लिए चालीस दिन पूर्व से उपवास रखने प्रारंभ हो जाते हैं। चर्चों एवं घरों से भड़कीली सजावट की वस्तुओं को हटा दिया जाता है। ऐसी वस्तुओं को बैंगनी रंग के कपड़े से ढ़क दिया जाता है। लोग सात्विक एवं शाकाहारी भोजन करते हैं। चर्च में सामूहिक प्रार्थनाएं की जाती हैं। इस दिन चर्च की घटियां शान्त रहती हैं। क्योंकि इस दिन ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था। इसलिए ईसाईयों के लिए यह एक दु:खी दिन होता है।
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भगवान शिव के स्वरूप थे बाबा तारा
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परम पूजनीय सद्गुरु बाबा तारा जी जो कि भगवान शिव के स्वरूप थे। बाबा जी का जन्म फाल्गुन की शिवरात्रि के दिन पाली गांव जिला हिसार में श्री चन्द्र सैनी के घर में हुआ। जब बाबा जी 2 वर्ष के थे तभी इनके ऊपर से माता-पिता का साया उठ गया। तब बाबा जी की बुआ (इनके पिता की बहन)इनको अपने साथ ले आई और इनका पालन पोषण बुआ व फुफा ने किया। बाबा जी बचपन से ही भगवान शिव की भक्ति भाव एवं एकांत में लीन रहते थे। जब बाबा जी की उम्र 15-16 वर्ष हुई तो इनके परिवार वाले इन पर शादी का दबाव डालने लगे, परन्तु बाबा जी इस सांसरिक मोह माया में नहीं पड़े। इस दौरान इनकी बुआ व फुफा जी का देहान्त हो गया। इन्ही दिनों के दौरान सिरसा में बाबा जी सिद्धबाबा बिहारी जी की सेवा में लग गए, और बाबा बिहारी के दर्शन मार्ग में घोर तपस्या की और बाबा बिहारी जी के आदेशानुसार सिद्वबाबा श्योराम जी से नाम दिक्षा ग्रहण की (सिद्व बाबा श्योराम बाबा बिहारी जी के शिष्य थे)और इसके पश्चात बाबा जी सिरसा छोड़ कर हिसार के पास बिहड़ जंगलों में चले गए और वहां इन्होंने घोर तपस्या की और इस दौरान गांव रामनगरिया सिरसा के हिसार के बिहड़ में जाकर बाबा जी की तलाश की और सभी ने बाबा जी से पुन: सिरसा आने की प्रार्थना की। बाबा जी ने अपने सेवकों की प्रार्थना पर विवश होकर पुन: सिरसा में आकर अलगख जगाई और लगभग 60 वर्ष पूर्व रामनगरिया गांव के जंगलों में अपनी कुटिया बनाई आई बाबा जी ने अपने तप इस भूमि को तपो भूमि बना दिया बाबा जी एक ब्रह्मचारी संत के स्वरूप में विख्यात हुए। बाबा जी ने अपने तप इस भूमि को तपो भूमि बना दिया। बाबा जी एक ब्रह्मचारी संत के स्वरूप मे विख्यात हुए। बाबा जी को किसी प्रकार का मोह नहीं था। वह अकेले ही रहना चाहते थे। रात के समय कुटिया में कोई सेवक व कोई भी मनुष्य नहीं होता था। बाबा जी अपने सवकों को कहते थे कि साध संत को किसी चौकीदार व अंग रक्षकों की जरूरत नहीं होती। रक्षा करने वाले तो भगवान शिव हैं। बाबा जी एक लंगोट और उस पर एक चद्दर बांधते थे, और कोई भी वस्त्र धारण नहीं करते थे और उनका खान-पान बिल्कुल साधारण था। बाबा जी दिन में एक बार रोटी व लाल मिर्च की चटनी लेते थे। बाबा जी ने इसी स्थान पर कठिन से कठिन तपस्या की जिसमें की उन्होंने 12 वर्ष तक भोजन ग्रेण नहीं किया। वर्षों तक मौन व्रत रखा। बाबा जी ने जिस भी मनुष्य को अपनी दिव्य दृष्टि से परखा उसी को दर्शन दिये और जिस जीव ने इस तपोभूमि को नमस्कार किया बाबा जी ने दूर से ही उनका कल्याण किया। बाबा जी हर वर्ष फाल्गुन और श्रावण के मास में शिवरात्रि के समय शिवधाम नीलकंठ महादेव, हरिद्वार, बद्रीनाथ, केदारनाथ, नीलधारा, रामेश्वरम, अमरनाथ जी उज्जैन व भगवान शिव के पूज्रीय स्थल व ज्योर्तिलिंगों की उपमा कुछ सेवकों को साथ लेकर भ्रमण किया करते थे। बाबा जी की दृष्टि में कोई व्यक्ति अमीर, गरीब नहीं होता वो सभी को समान दृष्टि से देखते थे। इसी कुटिया के अनुसार बाबा जी 20 जुलाई 2003 को अपने सवकों को साथ लेकर हरिद्वार गये वहां स्नान करवाया और फिर नीलकंठ महादेव के दर्शन अपने सेवकों को करवाए। बाबा जी अपने सेवकों को साथ 26-07-03 को बद्रीनाथ से वापिस हरिद्वार गंगाघाट पर परमानंद आश्रम पहुंचे और सभी को भोजन करवाया। इसी दौरान रात्री को जब शिव रात्री की पावन बेला प्रारंभ हुई बाबा जी कमरे से एक दम बाहर आये और गंगाघाट पर जहां शिवालय भी स्थापित है वहां आकर अपने सेवकों के हाथों में स्वईच्छा से अपना मानव रूपी चोला छोड़ दिया। यह देखकर आश्रम के लोग व सेवक हैरान रह गए कि कैसे बाबा जी ने अपने आप को शिव में अन्र्तलिन होने को चुना। तत्पश्चात सेवक शिवरात्रि को बाबा जी का पवित्र शरीर बाबा जी की कुटिया पर लेकर आये तो बाबा जी के पवित्र शरीर के दर्शन को समुचा शहर उमड़ पड़ा। लाखों की तादाद में श्रद्धालुओं ने बाबा जी के पवित्र शरीर के अंतिम दर्शन करके श्रद्धा सुमन अर्पित किए। अब इस स्थान पर बाबा जी की पवित्र समाधि स्थापित है इस स्थान पर एक भव्य समाधी का निर्माण हो रहा है। सद्गुरू अन्तरामा के प्राणधन है उनकी चरण धूलि के एक कण की कृपा मात्र से अनन्तकोटि लोकनायक परमात्मा की चिन्मय ज्योति मन्दाकिनी के स्नान करके पर जीवन धन्य और सफल हो जाता है। वेद आदि समस्त भगवान साहित्य में सद्गुरू की महिमा का अमिट बखान मिलता है। सद्गुरू अविनश्वर और अनादि आत्मा के अविकल प्रतीक है। सद्गुरू अविनश्वर और अनादि का भय मिट जाता है। परमात्मा के अस्तित्व सद्गुरू में अमिट आस्था रहती है। परमात्मा और आत्मा जीवात्मा की स्वरूपगत एकता में सद्गुरू की अमिट आस्था रहती है। परमात्मा और आत्मा जीवात्मा की स्वरूपगत एकता में सद्गुरू अविचल विश्वाश करते हैं और आत्मा नित्यता सनातनता में गुरू की गति स्थिर होती है। गुरू संसार के मरूस्थल में मरूस्थल है, वास्तव में गुरू के जीवन आचरण और दिव्य महिमा के परवान का सौभाग्य सहयोगी यात्रियों को प्राप्त हो रहा है। इस प्रयास यात्रा के प्रवचन की मूल का लाभ ही लाभ है, इनके विषय में बस इतना ही कहा जा सकता है। गुरू चरण कमल में हमारा मस्तक सदा विनत रहे।

सरसाई नाथ द्वारा बसाया गयी थी सिरसा नगरी
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हरियाणा के उतरी पश्चिमी कोने में सिरसा नगर ऐतिहासिक दृष्टि से अपना गौरवमय स्थान बनाए हुए है। इतिहासकारों का मत है कि सिरसा की स्थापना बाबा सरसाईनाथ के पावन कर मलों से हुई थी जिसके तथ्य निम्र प्रकार से वर्णित है जो इतिहासकारों व पुरातत्वेताओं की दृष्टि से पूरी तरह मान्य है। एक बार शिव शंकर के अवतारी बाबा गोरखनाथ को देख विमला बाई के मन में आया कि गोखनाथ एक तेजस्वी महात्मा है व क्यों न मैं इनसे विवाह कर लूं ताकि इससे मुझे अमरत्व की प्राप्ति हो जाए। ऐसा विचार कर उसने बाबा गोरखनाथ से विवाह करने की ठान ली। विवाह का प्रस्ताव लेकर वह बाबा गोरखनाथ के पास गई। गोरखनाथ ने विमला बाई को कहा कि आप विवाह के प्रस्ताव के अलावा कुछ भी मांग कर सकती है। इस पर बिमला बाई ने कहा कि मैं आप की परम भक्तिनी हूं। मैं अपना तन मन धन सब कुछ आपको अर्पित करती हूं और मन से आपको अपना पति मानती हूं। परन्तु बाबा गोरखनाथ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया व इसे टालने के लिए उन्होने मूसल तथा ओखली रमत कर बिमला बाई को भेंट की व चले गए। तत्पश्चता बिमला बाई बारह साल तक बाबा गोरखनाथ की तपस्या करती रही। बारह साल उपरांत बाबा गोरखनाथ अचानक वहां से गुजरे और विमला बाई को तप करते देख उसे वरदान मांगने के लिए कहा। इस पर विमला बाई ने दो पुत्रों की मांग कर डाली। इस बात को सुन बाबा गोरखनाथ ने अपना एक हाथ कनक में डाल कर कनकाईनाथ उत्पन्न किया और दूसरा भूस में डाल कर भूसकाईनाथ उत्पन्न कर विमला बाई से कहा कि आप इन दोनों महान पुरूषों के नाम से संसार में पूज्य होगी और आईपंथ के नाम से प्रसिद्ध होगी। बाद में इन दोनों को तीन शिष्य सरसाईनाथ, खोतकाईनाथ व तीसरा अन्य, जिसके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है, थे। एक बार की बात है कनकाईनाथ व भूसकाईनाथ ने अपने तीन शिष्यों को गउओं को चराने वन में भेज दिया और कहा कि तुम्हे यह याद रखना होगा कि इन गउओं का दूध सांय को डेरे में ही दोहना है। इन बछडों का विशेष ध्यान रखना है। मध्याहन के समय में तीनों को भूख ने आ घेरा और तीनों वन में कंद मूल आदि खाने लगे और पीछे से बछडों ने गउओं का सारा दूध पी लिया। तीनों शिष्यों ने जब यह देखा तो वे सोच में पड़ गए और उन्होने कहा कि अब कुछ अनिष्ट होने वाला है इसलिए वे वापस अपने डेरे में नहीं गए। उन्होने एक योजना बनाई और अपने-अपने लंगोट आसमान की तरफ फेंक दिए और कहा कि जहां-जहां ये लंगोट गिरेंगे वहीं-वहीं हम अपने डेरों का निर्माण करेंगे। सरसाईनाथ जी का लंगोटा जिस जगह पर गिरा वहां आज सिरसा शहर बसा हुआ है। आज भी सरसाईनाथ के मंदिर में उनसे संबंधित कुछ वस्तुएं उनकी यादों को संजोए हुए है। दूसरे नाथ खोतकाईनाथ का लंगोटा खोतका, रोहतक में गिरा और उन्होने अपना डेरा वहां बनाया। अभी तक तीसरे गुरू भाई के लंगोटे का कोई सुराग नहीं मिला। पंथ के नाथो का अनुमान है कि वह लंगोटा सात-समुंद्र पार गिरा होगा। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि छठी सदी में यह शहर राजा सारस द्वारा बनाया गया था जिसका नाम सरस्वती नगर पडा था, परंतु दूसरी और कुछ अन्य इतिहासकार इसके नाम को इस डेरे से भी जोडते है। इतिहास कुछ भी कहता हो लेकिन नगर के दक्षिण पूर्व में स्थित बाबा सरसाईनाथ का मंदिर वर्तमान नगर की स्थापना से भी पहले का है जहां सिद्ध योगी बाबा सरसाईनाथ ने तप किया था। एक बार एक पैगम्बर ख्वाजा पीर शेर की सवारी करके बाबा सरसाईनाथ के पास पहुंचे तो नाथ जी ने पैगम्बर जी की सवारी को अपनी गउशाला में बांधने का आदेश दिया। बहुत समय धार्मिक विचार विमर्श के पश्चात जब ख्वाजा साहब ने तैयार होकर अपने शेरों को देखा तो उन्हे सब गउएं दिखाई दी। इस पर ख्वाजा जी ने अपने अंह भावना को त्याग कर अपनी गल्ती का एहसास कर लिया। बाबा अनेक प्रकार के कष्ट व रोगों का निवारण करते थे। एक बार हिंदूस्तान के मुगल सम्राट शाहजहां के पुत्र दाराशिकोह को हकीमों व डाक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था तब सम्राट को सरसाईनाथ की चमत्कारी शक्तियों का पता चला तो सम्राट अपने पुत्र दारा को सरसाईनाथ के पास लेकर आया तो नाथ ने अपने चमत्कार से दारा को जीवित कर उसे जीवनदान दिया तो सम्राट की खुशी का ठिकाना न रहा व उन्होने अपनी खुशी का इजहार करते हुए यहां पर इस मंदिर में गुंबज का निर्माण करवाया और इसी गुंबज में बाबा सरसाईनाथ ने स्वेच्छा से समाधी ली। इस मंदिर में आज भी श्रद्धालु दृढ़ निश्चय से मनोकामना करने आते है व अपनी झोलियां भरकर जाते है।

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