Friday, February 18, 2011

बात आस्था की

आनन्द एक झलक की भाँति उपलब्ध
प्रश्न-आनन्द थोड़ी देर के लिये अनुभव होता है और फिर वह आनन्द चला जाता है। वह आनन्द और अधिक देर तक कैसे रहे ?
उत्तर-यह बहुत महत्वपूर्ण है पूछना, क्योंकि आज नहीं कल, जो लोग भी आनन्द की साधना में लगेंगे, उनके सामने यह प्रश्न खड़ा होगा। आनन्द एक झलक की भाँति उपलब्ध होता है-एक छोटी-सी झलक, जैसे किसी ने द्वार खोला हो और बन्द कर दिया हो। हम देख ही नहीं पाते उसके पार कि द्वार खुलता है और बन्द हो जाता है। वह आनन्द बजाय आनन्द देने के और पीड़ा का कारण बन जाता है, क्योंकि जो कुछ दिखता है, वह आकर्षित करता है, लेकिन द्वार बन्द हो जाता है। उसके बाबत चाह और भी घनी पैदा होती है, फिर द्वार खुलता नहीं, बल्कि फिर हम जितना उसे चाहने लगते हैं, उतना ही उससे वंचित हो जाते हैं। अगर मैं किसी व्यक्ति से चाहूँ कि उसने इतना प्रेम दिया है मुझे और प्रेम दे तो जितना मैं चाहूँगा उतना ही मैं पाऊँगा कि प्रेम उससे आना कम हो गया। प्रेम उससे आना बन्द हो जायेगा। ये चीजे छीनी नहीं जा सकतीं, ये जबरदस्ती पजेस नहीं की जा सकती। जो आदमी इनको जितना कम चाहेगा, जितना शान्त होगा, उतनी अधिक उसे उपलब्धि होगी। एक बहुत पुरानी कथा है-एक हिन्दू कथा है, कहानी काल्पनिक है। नारद एक गांव के करीब से निकले। एक वृद्ध साधु ने उनसे कह कि तुम भगवान के पास जाओ तो उनसे पूछ लेना कि मेरी मुक्ति कब तक होगी, मुझे मोक्ष कब तक मिलेगा? मुझे साधना करते हुए बहुत समय बीत गया। नारद ने कहा-मैं जरूर पूछ लूंगा। वह आगे बढ़े तो बरगद के दरख्त के नीचे एक नया-नया फकीर, जो उसी दिन फकीर हुआ था, तम्बूरा लेकर नाच रहा था। नारद ने उससे मजाक में पूछा-तुमको भी पूछना है भगवान से कब तक तुम्हारी मुक्ति होगी? वह कुछ बोला नहीं। जब नारद वापस लौटे तो उस वृद्ध साधु से उन्होंने जाकर कहा-मैंने पूछा था- भगवान बोले कि अभी तीन जन्म और लिये जायेंगे। वह अपनी माला फेरता था, उसने गुस्से में अपनी माला नीचे पटक दी। उसने कहा-तीन जन्म और! यह तो बड़ा अन्याय है, यह तो हद हो गयी। नारद आगे बढ़ गये। वह फकीर नाच रहा था, उस वृक्ष के नीचे। उससे कहा-सुनते हैं ! आपे बाबात भी पूछा था। लेकिन बड़े खेद की बात है, उन्होंने कहा कि जिस दरख्त के नीचे वह नाच रहा है, उसमें जितने पत्ते हैं, उतने जन्म उसे लग जायेंगे। वह फकीर बोला-तब तो पा लिया और वापस नाचने लगा। वह बोला-तब तो पा लिया, क्योंकि दरख्त पर कितने पत्तें हैं, इतने पत्ते, इतने जन्म न-तब जो जीत ही लिया, पा ही लिया। वह पुन: नाचने लगा। और कहानी कहती है, वह उसी क्षण मुक्ति को उपलब्ध हो गया-उसी क्षण। यह जो नानटेंस, यह जो रिलेक्स्ड माइण्ड है,
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देलवाड़ा जैन मन्दिर (वास्तुशिल्प का नायाब नमुना)
माउंट आबू को राजस्थान का स्वर्ग कहा जाता है। आबू रोड से करीब 15 कि.मी. की दूरी पर पर्वत पर स्थित माउंट आबू नाम से विख्यात नगर का इतिहास बहुत पुराना है। यह पर्वत न केवल भव्य मंदिरों के लिए विख्यात है, बल्कि यह पर्वत ऋषियों की साधना की भूमि भी रही है। पहाड़ पर स्थित अनेक गुफाओं से इस बात की पुष्टि होती है कि यहां अनेक ऋषियों ने तपस्या की थी। इस जगह का विकास इस तरह हुआ कि आज यह जगह अध्यात्म और संस्कृति का एक बेमिसाल संगम है। एक ओर यहां के महनुमा होटल देशी व विदेशी ट्रस्टियों को आकर्षित करते हैं। वहीं दूसरी ओर विभिन्न संप्रदाय के मठ-मंदिर व ब्रह्माकुमारीज विश्वविद्यालय का साधना स्थल एक अलग ही छटा बिखेरते हैं। प्रकृति का खूबसूरत उपहार कहलाने वाली यह जगह वास्तु शिल्प का बेजोड़ उदाहण है। मुख्य रूप से माउंट आबू देलवाड़ा में स्थित जैन मंदिरों के कारण विश्व विख्यात है। पर्वत पर स्थित देववाड़ा गांव में धवल संगमरमर से बनाए गए देलवाड़ा जैन मंदिर अपनी शिल्पकला, वास्तुकला एवं स्थापत्य कला के कारण आकर्षण का केंद्र है। हिंदु संस्कृति के यह मंदिर जैन वैभव कला को अपने आप में समेटे हुए हैं। मंदिर में देवी-देवता, नृत्य करतीं पत्थरों पर उकेरी गई मूर्तियां, पशु-पक्ष, फल-फूल आदि सभी सजीव दिखाई पड़ते हैं। संगमरमर पर ऐसी सूक्ष्म कला विश्व में शायद ही कहीं और देखने को मिले। 5 मंदिरों का देलवाड़ा मंदिर गुंबजों की छतों पर स्फटिक बिंदुओं की भांति झूमते मंदिरों में 22 तीर्थकरों की मूर्तियां हैं। बताया जाता है, कि इन मंदिरों का निर्माण राजा भीमदेव के मंत्री विमल वसाही ने किया था। इन मंदिरों का निर्माण 11 वीं सदी से प्रारंभ होकर 13 वीं सदी में पूर्ण हुआ था। विमल मंदिर: इस मदिर के निर्माण के बारे में कहा जाता है, कि विमल शाह ने अनेक युद्ध किए जिसमें अनेक लोगों की हत्या का कारण स्वयं को समझकर प्रयाश्चित हेतु आबू पर्वत पर जैन मंदिर के निर्माण की योजना बनाई। कुछ लोगों के द्वारा विरोध करने पर उनहं संतुष्ट करके विमल शाह ने 14 वर्षों में 1500 कारीगरों और 1200 मजदूरों के द्वारा इस मंदिर का निर्माण करवाया, जिसमें 8 करोड़ 35 लाख रुपयों की लागत लगी। इस मंदिर में प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव की मूलनायक की प्रतिमा से प्रतिष्ठा जैनाचार्य वर्धमान सूरीजी द्वारा संपन्न हुई। मंदिर में कुल 21 स्तंभों में से 30 अलंकृत हैं। विद्यादेवी-महारोहिणी की 14 हाथों वाली मूर्ति, गुंबज में गुजलक्ष्मी और दूसरे गुंबज में शंखेश्वरी देवी की सूक्ष्मकृति, कमल के फूल में 16 नर्तकियों युक्त गुंबज और बीस खंडों का एक शिल्पपट्ट भी देखने लायक है। लूण मंदिर: यह मंदिर विमल मंदिर के बाद बनवाया गया। यह मंदिर छोटा है, लेकिन शिल्पकला में उससे भी अधिक है, जिसमें संगमरमर पर हथौड़ी-छैनी की मदद से कारीगरों ने बेल-बूटे, फूल-पत्ती, हाथी, घोड़ा, ऊंट, बाघ, सिंह, मछली, पछी, देवी-देवता और मानव जाति की अनेक कलात्मक मूर्तियां उकेरी गयी हैं। गुजरात के राजा वीरध्वन के मंत्री वास्तुपाल और तेजपाल दोनों भाइयों ने अपने स्वर्गीय भाई के नाम पर लूण मंदिर बनवाया।

ऋषि-मुनियों की तपस्थली के नाम से जाना जाता है ऋषिकेश
ऋषिकेश का नाम भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में जाना जाता है। ऋषिकेश पूर्व में हषिकेश के नाम से जाना जाता था। ऋषिकेश का इतिहास पौराणिक ग्रंथों में आज भी पढऩे को मिलता है। ऋषिकेश ऋषि-मुनियों की तपस्थलियों के नाम से भी जाना जाता है, जहां आज भी ऋषिमुनि गंगा तट के किनारे तप कर कई सिद्धियों को प्राप्त करते हैं। ऋषिकेश की सीमा चार जिलों से घिरी हुई है जिनमें पौड़ी, नई टिहरी, हरिद्वार व देहरादून शामिल हैं। यहीं से विश्व प्रसिद्ध चारधाम श्री बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री सहित हेमकुण्ट साहिब की यात्रा शुरू होती है। ऋषिकेश में पौराणिक भारत भगवान का मंदिर, भैरो मंदिर, काली मंदिर, चन्द्रशेखर सिद्धपीठ, नीलकंठ महादेव सोमेश्वर महादेव, वीरभद्र महादेव व सिद्धपीठ हनुमान जी की आज भी देश एवं विदेश से पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है, जिससे देश-विदेशों में प्रतिवर्ष कई लाखों की संख्या श्रद्धालु इन सिद्धपीठों के दर्शन कर पुण्य कमाते हैं। वहीं ऋषिकेश में मनोकामना सिद्ध मां गंगा की अविरल धारा बहकर गंगा सागर तक पहुंचती है, जिसमें प्रतिदिन लाखों की संख्या में लोग स्नान कर पुण्य अर्जित करते हैं। ऋषिकेश में रामझूला लक्ष्मण झूला, गीता भवन, परमार्थ निकेतन, 13 मंजिल मंदिर सहित अन्य रमणीक स्थलों पर लाखों की संख्या में देश-विदेश पर्यटक दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। तीन माह बाद हरिद्वार-ऋषिकेश में महाकुंभ मेले का आयोजन होने जा रहा है, जिसमें करीब 15 से 20 करोड़ श्रद्धालुओं के आने की संभावना है, श्रद्धालु महाकुंभ में हरिद्वार हरकी पैड़ी पर स्नान कर पुण्य अर्जित करते हैं। कहा जाता है कि हरकी पैड़ी पर समुद्र मंथन के समय जब देवगणों और राक्षसों को अमृत बंट रहा था, तब कुछ अमृत हरकी पैड़ी पर बह रही गंगा की अविरल धारा में गि गया था, जिसके कारण हरकी पैड़ी इस विशेष स्थान पर स्नान करने से श्रद्धालु पुण्य अर्जित करते हैं। ऋषिकेश से करीब 15 किमी. नीलकंठ महादेव का सिद्ध मंदिर भी है, जहां पर सावन के माह में लोग लाखों की संख्या में पहुंचकर शिवलिंग पर जल चढ़ाकर पुण्य लाभ कमाते हैं। कहा जाता है कि महादेव ने जब विष धारण कर लिया था तो वह नीलकंठ पर्वत पर आकर तपस्या करने लगे, इसीलिए इस मंदिर को नीलकंठ महादेव के नाम से जाना जाता है। नीलकंठ महादेव में अब तो बारहों महीने ही श्रद्धालु शिवलिंग पर जल चढ़ाकर दर्शन करने आते हैं, लेकिन सावन के महीने में नीलकंठ महादेव पर जल चढ़ाने का पुण्य लाभ अधिक मिलता है। ऋषिकेश में स्थित त्रिवेणी घाट पर गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम भी होता है जिसे देखने के लिए देश-विदेशों से लाखों की संख्या में पर्यटक पहुंचकर आनंद उठाते हैं, त्रिवेणी घट पर इस संगम का अद्भुत नजारा पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर खींच लेता है। वहीं मां गंगा तट के किनारे शाम के समय जब श्री गंगा सेवा समिति द्वारा आरती की जाती है तो मां गंगा के जंगल के तटीय क्षेत्र में हिरन, मोर, हाथियों का झुंड आकर गंगा जल ग्रहण करता है व मां गंगा की हो रही आरती का अनुभव महसूस करता है। यह नजारा देख पर्यटक मुग्ध हो जाते हैं और मां गंगा को प्रणाम करते हैं।
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भारतीय संस्कृति में व्रतों का महत्व
रामनवमी व्रत- रामनवमी वैष्णवो का पुनीत व्रत है। रामचंद्र की जन्मभूमि अयोध्या में रामजन्मोत्सव के समारोह का आयोजन करते हैं। लोग व्रत रखते हैं और सरयू की पावनधारा में स्नान करते हैं। अयोध्या के अलावा यह पर्व नेपाल में जनकपुर में काफी धूमधाम से मनाया जाता है।
जन्माष्टमी व्रत- भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि में और प्रतिवर्ष भद्रमास कृष्णाष्टमी को यह आती है। पूरे दिन व्रत रखने के उपरांत रात्रि में 12 बजे श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है। मथुरा तथा वृंदावन में जन्माष्टमी के अवसर पर झुले का वृहद समारोह मनाया जाता है और भगवान में वर्णित उनकी लीलाओं की भव्य झाकियां सजाई जाती हैं। अयोध्या, प्रयाग, काशी में भी झांकियों की व्यवस्था होती है।
रामनवमी व्रत- फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुदर्शी को शिवरात्रि अथवा महाशिवरात्रि कहते हैं। इसे शिवतेरस भी कहते हैं। भारतवर्ष में भगवान शिव के चौदह ज्योतिर्लिंग माने जाते हैं। उन सबके मंदिरों में इस दिन मेला लगता है। शिवरात्रि को लोग निर्जला व्रत रख जागरण व शिव कीर्तन करते हैं।
सातों वारों के व्रत- रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्र, शनि इन सातों वारों में भी व्रत के विविध धर्मशास्त्रों और पुराणों में दिए गए हैं। वारों की स्थिति एक सूर्योदय से लेकर दूसरे सूर्योदय तक रहती है। ये सातों प्रत्यक्ष गृह है और आकाश में इनकी प्रत्यक्ष अवस्थिति है। सूर्य दिन में और शेष छह रात्रि में दिखाई पड़ते हैं। मानव जीवन में इन गृहों का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। अत: इनके जीवन पर जप दान, प्रतिष्ठा, पूजा और व्रत आदि के विधान हमारे पूर्वजों ने बनाए हैं।
वट सावित्री व्रत- ज्येष्ठ मास की अमावस्या को वट सावित्री व्रत का विधान है। कुछ लोगों ने कृष्ण पक्ष की द्वादशी तथा कुछ लोगों ने त्रयोदशी को भी इसके विभिन्न लाभों की चर्चा की है। किंतु साधारण रीति से उत्तर भारत में ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से पूर्णिमा तक तीनों दिन इसके मनाने की प्रथा है, किंतु ज्यादातर लोग अमावस्या अथवा पूर्णिमा को ही इसका व्रत रखते हैं। इस व्रत में सधवा स्त्रियां सावित्री, सत्यवान की कथा सुनती हैं, पति की दीर्घायु के लिए प्रार्थना करती है।
चातुर्मास का व्रत-आषाढ़ शुक्ल एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादश्ी तक चातुर्मास व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। यह व्रत प्राचीन काल से रखा जा रहा है। बौद्ध भिक्षु-साधु, संन्यासी और पंडितजन इस व्रत का अनुष्ठान करते हैं। चातुर्मास के व्रत में केवल फलाहार किया जाता है। अन्न नहीं खाया जाता है।
करवा चौथ का व्रत: इस व्रत का अनुष्ठान केवल सौभाग्यवती स्त्रियां करती हैं। इसमें शिव पार्वती, कार्तिकेय, चंद्रमा की पूजा की जाती है और नैवेद्य के रूप में मिट्टी के कच्चे करवे में लड्डू पुआ या पपड़ी रखी जाती है। करवे के प्रयोग के कारण इसका नाम करवा या कारका चतुर्थी है।
हरितालिका व्रत या तीज: हरितालिका पार्वती का व्रत है। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की तृतीया को इस्तनक्षत्र में दिनभर का निर्जला व्रत रखना चाहिए। आरंभ में गणेश का विधिवत् पूजन करना चाहिए। गणेश पूजन के पश्चात शिव पार्वती का आह्वान आसन अध्र्य, आचमन वस्त्र आदि से पूजन करना चाहिए। तृतीया को पूरे दिन एवं रात को निर्जला व्रत रहकर पूरी रात्रि जागर के पश्चात दूसरे दिन सवेरे पूजा की समाप्ति होने पर पारण किया जाता है। यह व्रत नेपाल में भी मनाया जाता है।


आस्था का केंद्र है मां पाथरी वाली का मंदिर
सिरसा में स्थानीय थेड़ मौहल्ला स्थित मां पाथरी वाली का मंदिर आज हजारों लोगों की आस्था का केन्द्र हैँ। यहां हरियाणा, पंजाब, राजस्थान आदि प्रदेशों के लोग दर्शकों से आते हैं। वर्ष 1999 तक यह स्थान दो ईंटों से बना हुआ था। जहां सेवक राम कुमार परोचा अपने परिवार के साथ भक्ति किया करता था और आज भी राम कुमार का परिवार ही सेवा करता है। अब यह दो ईंटों का स्थान भव्य रूप धारण कर चुका है। बुधवार को मां के दर्शनों के लिए लम्बी लाईनें लगती है। दूर-दूर से लोग मां के दर्शनों को आते हैंँ। एक ओर जहां जनता इस मन्दिर में अपने सुख के लिए मन्नते मानती है। वहीं कुछ राजनैतिक लोग अप्रत्यक्ष रूप से मां को पूजते हैं। हरियाणा सरकार में जेल मंत्री के पद पर रह चुके मनफुल सिंह भी इस दर पर माथा टेक चुके हैं। हर साल 24 अप्रैल को मां पाथरी वाली का विशाल जागरण होता है। मां पाथरी वाली को 52 स्वरूपों की देवी भी कहां जाता है। वावन रूपी मां पाथरी वाली पल में भक्तों की इच्छाएं पूरी करती है। और नाराज होने पर मां को मनाना आसान भी नहीं है। मां पाथरी वाली के बारे में विभिन्न कथाएं प्रचलित है। मां सती के स्वरूपों में एक रूप कपाल पाथरी है। कपाल पाथरी मां की पहाड़ी क्षेत्र में बहुत मान्यता है। चेत्र माह में यहां विशाल मेला लगता है। सिरसा केमोहल्ला थेड़ में मां पाथरी वाली गली में मां पाथरी वाली का विशाल भव्य मंदिर है जो कि लोगों की आस्था का केन्द्र है। बताया जाता है कि मां पाथरी गुरू गौरव नाथ की शिष्या है। आदि काल में मां पाथरी वाली गुरू गौरखनाथ के साथ गांव सीख पाथरी में छोड़ गए थे। इसी गॉंव के रहने वाली जमतू-भगतू नामक दो व्यक्तियों ने मां की पूजा-अर्चना की थी वह उनकी मन की मुरादें पूरी हुई थी। उन्होंने गॉंव में मां का मन्दिर बनवाया था। धीरे-धीरे मां पाथरी की महिमा का प्रचार हरियाणा व आस-पास के प्रदेशों में होने लगा। वर्तमान में भी मां पाथरी वाली की पूजा तन-मन-धन से करते हैं।

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