कोई भी स्टेट (किसी भी पार्टी की सरकार) केवल कानून के जोर से ही राज नहीं करती बल्कि राज स्थापित करने और बनाए रखने में रूलिंग आइडिया की ज्यादा भूमिका होती है। आम लोगों के विजन को किसी भी तरीके से धुंधला करके सत्ताधारी लोगों की उम्मीदें अपने साथ जोड़े रखते हैं और राज करते रहते हैं।
राजनीति में समाज को विभाजित करके सत्ता हासिल करना इसी का एक रूप है। लोगों को धर्म , जाति या बिरादरी में हो या वर्ग में इस तरह के विभाजन करके वे अपना काम चलाते रहते हैं। जाति-बिरादरियां, जोड़ने का जितना कम करती हैं उससे भी ज्यादा तोड़ने का करती हैं जो समाज के लिए बेहद खतरनाक है। इस विभाजन को समाप्त करके आम लोगों के लिए सरकारें काम कर सकती हैं लेकिन राजनीतिक पार्टियां अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए ऐसा करने की बजाए विभाजन करने वाली नीतियों को ही प्रोत्साहित करती हैं।
डेरे भी इसी श्रेणी में आते हैं। दरअसल डेरों के जरिए जुटाया जाने वाला वोट बैंक बेहद सस्ता होता है और किसी भी डेरा प्रमुख के चरणों सिर झुकाकर उसे अपने पक्ष में करने के सारे गुर ये राजनेता जानते हैं। डेरा प्रमुखों के एक इशारे पर उनके अनुयायी एकमुश्त उसी राजनीतिक पार्टियों के पक्ष मे उतरकर मतदान करते हैं। यदि राजनीतिक पार्टियों को इन्हीं सब वोटरों को अपने पीछे लगाना हो तो उन्हें उनके लिए बहुत काम करना पड़ेगा और ये काफी महंगा साबित होता है इसलिए इस ओर राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह से ध्यान नहीं देतीं। समग्र रूप में काम न करके , थोड़ा थोड़ा करके उन्हें अपने साथ जोड़े रखती हैं।
डेरों की ओर क्यों?
आम लोग दो सतहों पर जीते हैं । पहला सामाजिक और दूसरा अध्यात्मिक । वह तबका जिसका पदार्थवाद में शोषण किया जाता है, कुछ चमत्कार होने की आस में धर्मगुरुओं की शरण लेते हैं। हर डेरे में एक खास वर्ग के ही लोग होते हैं और इन्हें धर्म गुरु के समर्पित रहने के लिए जहां पक्का किया जाता है वहीं दूसरों से तोड़ने के लिए भी उतनी ही ताकत लगाई जाती है। वैसे कुछ डेरों के साकारात्मक काम को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है, इनकी समाज को काफी देन है।
नशे से दूर करने या फिर गरीब तबके की बेटियों की शादियां करवाने, उनके स्वास्थ्य के लिए सस्ती दरों पर इलाज मुहैया करवाने आदि जैसे काम करवाए जा रहे हैं। एसजीपीसी सहित अन्य धार्मिक संस्थाओं पर शिक्षा पर किए गए काम को कौन अनदेखा कर सकता है? इन डेरों को राजनीतिक पार्टियां भी प्रोत्साहन देती रहती हैं ताकि इन्हें वोट बैंक के रूप में प्रयोग किया जा सके।
राजनीतिक पार्टियों का यह कदम समाज के लिए आत्मघाती है क्योंकि इससे वह न तो उस वर्ग के लिए कुछ करने की ओर रूचि लेते हैं जिन्हें सचमुच विकास में हिस्सेदारी की जरूरत है । इन वगोर्ं के लिए छोटे छोटे विभाग बनाकर बहुत कुछ करने के दावे किए जाते हैं जबकि हकीकत यह है कि इनके लिए होता कुछ भी नहीं है।
कितने ही बोर्ड और कमीशन इन्हें सामाजिक न्याय देने के नाम पर बनाए जाते हैं लेकिन वास्तविकता किसी से भी छिपी नहीं है कि ये बोर्ड और आयोग दरअसल उस वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके शोषण से बचाने के लिए ये बनाए गए हैं। इसके चिन्ह अब दिखाई देने लगे हैं। सुपरपावर बनने का दावा करने वाले भारत में 50 करोड़ से अधिक लोग भुखमरी का शिकार हैं या 20 रुपए रोजाना से भी कम पर जीते हैं। महंगाई काबू में न आना, बेरोजगारी लगातार बढ़ते रहने से साफ है कि कहीं कुछ बहुत गलत हो रहा है उन्हें ठीक करने की जरूरत है।
डॉ मनजीत सिंह समाजशास्त्री
राजनीति में समाज को विभाजित करके सत्ता हासिल करना इसी का एक रूप है। लोगों को धर्म , जाति या बिरादरी में हो या वर्ग में इस तरह के विभाजन करके वे अपना काम चलाते रहते हैं। जाति-बिरादरियां, जोड़ने का जितना कम करती हैं उससे भी ज्यादा तोड़ने का करती हैं जो समाज के लिए बेहद खतरनाक है। इस विभाजन को समाप्त करके आम लोगों के लिए सरकारें काम कर सकती हैं लेकिन राजनीतिक पार्टियां अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए ऐसा करने की बजाए विभाजन करने वाली नीतियों को ही प्रोत्साहित करती हैं।
डेरे भी इसी श्रेणी में आते हैं। दरअसल डेरों के जरिए जुटाया जाने वाला वोट बैंक बेहद सस्ता होता है और किसी भी डेरा प्रमुख के चरणों सिर झुकाकर उसे अपने पक्ष में करने के सारे गुर ये राजनेता जानते हैं। डेरा प्रमुखों के एक इशारे पर उनके अनुयायी एकमुश्त उसी राजनीतिक पार्टियों के पक्ष मे उतरकर मतदान करते हैं। यदि राजनीतिक पार्टियों को इन्हीं सब वोटरों को अपने पीछे लगाना हो तो उन्हें उनके लिए बहुत काम करना पड़ेगा और ये काफी महंगा साबित होता है इसलिए इस ओर राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह से ध्यान नहीं देतीं। समग्र रूप में काम न करके , थोड़ा थोड़ा करके उन्हें अपने साथ जोड़े रखती हैं।
डेरों की ओर क्यों?
आम लोग दो सतहों पर जीते हैं । पहला सामाजिक और दूसरा अध्यात्मिक । वह तबका जिसका पदार्थवाद में शोषण किया जाता है, कुछ चमत्कार होने की आस में धर्मगुरुओं की शरण लेते हैं। हर डेरे में एक खास वर्ग के ही लोग होते हैं और इन्हें धर्म गुरु के समर्पित रहने के लिए जहां पक्का किया जाता है वहीं दूसरों से तोड़ने के लिए भी उतनी ही ताकत लगाई जाती है। वैसे कुछ डेरों के साकारात्मक काम को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है, इनकी समाज को काफी देन है।
नशे से दूर करने या फिर गरीब तबके की बेटियों की शादियां करवाने, उनके स्वास्थ्य के लिए सस्ती दरों पर इलाज मुहैया करवाने आदि जैसे काम करवाए जा रहे हैं। एसजीपीसी सहित अन्य धार्मिक संस्थाओं पर शिक्षा पर किए गए काम को कौन अनदेखा कर सकता है? इन डेरों को राजनीतिक पार्टियां भी प्रोत्साहन देती रहती हैं ताकि इन्हें वोट बैंक के रूप में प्रयोग किया जा सके।
राजनीतिक पार्टियों का यह कदम समाज के लिए आत्मघाती है क्योंकि इससे वह न तो उस वर्ग के लिए कुछ करने की ओर रूचि लेते हैं जिन्हें सचमुच विकास में हिस्सेदारी की जरूरत है । इन वगोर्ं के लिए छोटे छोटे विभाग बनाकर बहुत कुछ करने के दावे किए जाते हैं जबकि हकीकत यह है कि इनके लिए होता कुछ भी नहीं है।
कितने ही बोर्ड और कमीशन इन्हें सामाजिक न्याय देने के नाम पर बनाए जाते हैं लेकिन वास्तविकता किसी से भी छिपी नहीं है कि ये बोर्ड और आयोग दरअसल उस वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके शोषण से बचाने के लिए ये बनाए गए हैं। इसके चिन्ह अब दिखाई देने लगे हैं। सुपरपावर बनने का दावा करने वाले भारत में 50 करोड़ से अधिक लोग भुखमरी का शिकार हैं या 20 रुपए रोजाना से भी कम पर जीते हैं। महंगाई काबू में न आना, बेरोजगारी लगातार बढ़ते रहने से साफ है कि कहीं कुछ बहुत गलत हो रहा है उन्हें ठीक करने की जरूरत है।
डॉ मनजीत सिंह समाजशास्त्री